विशेष
-चंद्रप्रकाश और मथुरा के मुकाबले को त्रिकोणीय बनायेंगे टाइगर जयराम
-अपने अभेद्य गढ़ में आजसू को एक बार फिर से जीत दिला सकेगी भाजपा
झारखंड में ‘कुर्मी हार्टलैंड’ के नाम से चर्चित और पूरी दुनिया में ‘बेवकूफ होटल’ के लिए प्रसिद्ध गिरिडीह लोकसभा सीट पर चुनावी मुकाबले की तस्वीर साफ हो गयी है। वास्तव में इस बार गिरिडीह में तीन कुर्मी दिग्गजों के बीच होनेवाली जंग बेहद दिलचस्प होनेवाली है। भाजपा ने पिछली बार की तरह ही अपने इस गढ़ को आजसू को सौंपा है, जिसने एक बार फिर चंद्रप्रकाश चौधरी पर भरोसा जताया है। उधर झामुमो ने टुंडी के विधायक मथुरा महतो को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है। इन दोनों के मुकाबले को त्रिकोणीय ही नहीं, रोमांचक बनाने के लिए झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा के अध्यक्ष जयराम महतो भी मुकाबले में उतर गये हैं। खतियानी नेता जयराम महतो को लोग ‘टाइगर’ के नाम से जानते हैं और हाल के दिनों में वह बड़ी तेजी से झारखंडी हितों के मुद्दे के साथ सियासी फलक पर उभरे हैं। कुर्मी बहुत गिरिडीह लोकसभा क्षेत्र का चुनाव परिणाम उसी उम्मीदवार के पक्ष में होगा, जो अधिक से अधिक कुर्मी वोटरों को अपने पक्ष में कर पायेगा। तीन-तीन कुर्मी प्रत्याशियों के मैदान में उतरने की वजह से इस वोट बैंक का बंटवारा होना तय माना जा रहा है। एक ओर जहां आजसू के सामने सबसे बड़ी चुनौती भाजपा के वोटरों को अपने पाले में करने की होगी, वहीं झामुमो को अपने परंपरागत आदिवासी और मुस्लिम वोटरों पर दूसरे प्रत्याशियों की सेंधमारी रोकनी होगी। उधर जयराम महतो को अपनी सभाओं में उमड़ने वाली युवाओं की भीड़ को वोट में तब्दील कराने का दबाव रहेगा। इसलिए गिरिडीह के बारे में कहा जाता है कि झारखंड के 14 संसदीय क्षेत्रों में से यह संभवत: एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां किसी की नहीं चलती है और हर किसी की चलती है, यानी यह सीट ‘ओपेन फॉर आॅल’ है। क्या है गिरिडीह का चुनावी परिदृश्य और त्रिकोणीय मुकाबले में प्रत्याशियों की ताकत और कमजोरियां, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड की गिरिडीह लोकसभा सीट की गिनती भाजपा के मजबूत गढ़ में तो होती है, लेकिन यह राज्य का एकमात्र संसदीय क्षेत्र है, जहां हर किसी का जोर है। इसलिए यहां की सियासत भी रोचक होती है और यहां का चुनावी मुकाबला भी रोमांचक होता है। गिरिडीह में वैसे तो आम तौर पर सीधे मुकाबले की परंपरा रही है, लेकिन इस बार यहां त्रिकोणीय मुकाबला होने जा रहा है। गिरिडीह के सीटिंग सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी एक बार फिर आजसू प्रत्याशी के रूप में ताल ठोंक रहे हैं, तो झामुमो ने अपने कद्दावर नेता मथुरा महतो को प्रत्याशी बनाया है। यह सीधा मुकाबला उस समय त्रिकोणीय बन गया, जब भाषा आंदोलन की सवारी कर सियासत में इंट्री करने वाले ‘टाइगर’ जयराम महतो ने मैदान में उतरने की घोषणा कर दी।
गिरिडीह का राजनीतिक इतिहास
गिरिडीह संसदीय क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास बेहद रोचक रहा है। इस सीट से 1962 में स्वतंत्र पार्टी से बटेश्वर सिंह जीते थे। 1967 में सीट पर कांग्रेस के इम्तियाज अहमद का कब्जा हो गया। 1971 में कांग्रेस के ही टिकट पर चपलेंदू भट्टाचार्य जीते। 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर रामदास सिंह जीते। 1980 में कांग्रेस के टिकट पर बिंदेश्वरी दूबे और 1984 में कांग्रेस के ही टिकट पर सरफराज अहमद जीतने में कामयाब हुए। 1989 में इस सीट पर भाजपा का खाता खुला और उसके टिकट पर रामदास सिंह जीतने में कामयाब हुए। 1991 में यह सीट झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास चली गयी और उसके टिकट पर बिनोद बिहारी महतो जीते। इसके बाद कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे कृष्ण मुरारी पांडेय के पुत्र रविंद्र कुमार पांडेय भाजपा में चले गये और उन्होंने लगातार तीन बार 1996, 1998 और 1999 में यहां से जीत हासिल की। 2004 में झामुमो के टेकलाल महतो जीतने में कामयाब हुए, लेकिन 2009 में रविंद्र पांडेय ने एक बार फिर भाजपा के लिए यह सीट जीत ली। उनकी जीत का सिलसिला 2014 में भी जारी रहा। 2019 में भाजपा ने तालमेल के तहत यह सीट आजसू को सौंप दी और चंद्रप्रकाश चौधरी को यहां से जीत मिली। गिरिडीह लोकसभा सीट के अंतर्गत छह विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें गिरिडीह, डुमरी, गोमिया, बेरमो, टुंडी और बाघमारा शामिल हैं। इनमें गोमिया सीट पर आजसू का और बाघमारा सीट पर भाजपा का कब्जा है। बेरमो सीट कांग्रेस के पास है, जबकि गिरिडीह, डुमरी और टुंडी झामुमो के पास है।
गिरिडीह की राजनीतिक पृष्ठभूमि
सब जानते हैं कि जातीयता और जातिवाद राष्ट्र निर्माण के मार्ग में बाधक हैं। हमारा देश क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण खड़ी होने वाली दर्जनों समस्याओं से जूझ रहा है। लेकिन इस हथियार का इस्तेमाल करने में कोई दल पीछे नहीं रहता है। यही कारण है कि इन दोनों हथियारों के बल पर सत्ता हासिल करने की होड़ के कारण देश में सैकड़ों छोटे-बड़े राजनीतिक दल उभर आये हैं। गिरिडीह संसदीय क्षेत्र में भी जोड़-तोड़ की राजनीति जोरों पर चल रही है। कहीं प्रत्यक्ष, तो कहीं अप्रत्यक्ष रूप से क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद और धर्म हावी है। मतों का ध्रुवीकरण भी इसी आधार पर हो रहा है। गिरिडीह संसदीय क्षेत्र में कोई किसी से कम नहीं है, लेकिन वोट बंटवारा का लाभ उठाकर सत्ता में काबिज होने की जुगत में हर कोई अपने स्तर से दिमाग लगा रहा है।
गिरिडीह का सामाजिक समीकरण
जहां तक बात सामाजिक समीकरण की है तो गिरिडीह संसदीय सीट पर 16 फीसदी मुसलमान, 14 फीसदी अनुसूचित जाति और 10 फीसदी अनुसूचित जाति की आबादी है। इसके साथ ही करीब 19 फीसदी कुर्मी मतदाता हैं। इसलिए गिरिडीह को ‘कुर्मी हार्टलैंड’ कहा जाता है। गिरिडीह में जीत की चाबी कुर्मियों के पास है और स्वाभाविक तौर पर इस बार तीन कुर्मी दिग्गजों के मैदान में उतरने से मुकाबला रोमांचक हो गया है। गिरिडीह संसदीय क्षेत्र में कुर्मी महतो, कोयरी महतो और मुस्लिम वोट एक होने पर निर्णायक हो जाता है। यहां इसे ‘एम-3’ समीकरण कहा जाता है। यही कारण है कि सभी प्रत्याशियों की नजर इसी समीकरण पर ज्यादा रहती है। भाजपा ने आजसू के साथ मिल कर 2019 में इस समीकरण को साध लिया था, लेकिन इस बार झामुमो ने मुस्लिम मतदाताओं को अलग करने में पूरी ताकत लगा दी है। इसलिए सबसे ज्यादा विकट स्थिति मुस्लिम वोटरों की ही है। उन पर ज्यादा दावेदारी की जा रही है। सभी मानते हैं कि उनका वोट एकमुश्त होता है, लेकिन गिरिडीह के संदर्भ में यह वास्तविकता नहीं है। पिछले चुनावों में इनका वोट भी बंटा था।
चंद्रप्रकाश चौधरी को एंटी-इनकमबेंसी का नुकसान
अब बात चंद्र प्रकाश चौधरी की ताकत की। उनके प्रति एंटी इनकमबेंसी है, लेकिन यहां यह भी याद रखना चाहिए कि वर्ष 2019 में जब गिरिडीह में उनकी इंट्री हुई थी, उस वक्त भी उनके सामने ‘झारखंडी टाइगर’ जगरनाथ मैदान में थे। आजसू की रणनीति और भाजपा की ताकत के सहारे चंद्र प्रकाश चौधरी ने वह मुकाबला करीब तीन लाख मतों से जीत लिया था, जबकि उस वक्त भी मथुरा महतो कंधे से कंधा मिला कर जगरनाथ महतो के साथ खड़े थे। चंद्रप्रकाश चौधरी के पास अपने कार्यकर्ताओं का जोश है और आजसू की अभेद्य रणनीति। इसके साथ मोदी की लोकप्रियता और भाजपा की ताकत उनके पास हथियार के रूप में मौजूद हैं।
मथुरा महतो की पहचान ही उनकी ताकत है
झामुमो प्रत्याशी मथुरा महतो टुंडी से झामुमो विधायक हैं। झामुमो के अंदर और बाहर उनकी गिनती कुर्मी जाति के एक कद्दावर नेता को रूप में होती है। मथुरा महतो आज भी अपने पुराने समीकरणों और नारों को जीत का मूल मंत्र मानते हैं। वह झारखंडी अस्मिता की बात करते हैं। वह जमीन से जुडेÞ नेता हैं और ताम-झाम से दूर जमीन की सियासत करते हैं। लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरने का यह उनका पहला अनुभव है। इसलिए यह उनकी कमजोरी मानी जा सकती है।
हाल के दिनों में खूब सुर्खियां बटोरी हैं जयराम ने
जयराम महतो की छवि किसी जाति विशेष के बीच नहीं होकर आम युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय है। खुद जयराम की कोशिश भी अपने आप को ‘कुर्मी नेता’ के टैग से दूर रखने की है। झारखंडी हितों और खतियान के मुद्दे पर उनकी सोच उन्हें भीड़ से अलग बनाती है। वह सिर्फ जल, जंगल और जमीन की लूट की बात नहीं करते, बल्कि इस लूट में शामिल दलों और नेताओं की भूमिका पर भी सवाल उठाते हैं। उनकी सभाओं में भारी भीड़ उमड़ती है, क्योंकि वह खतियान की बात करते हैं, झारखंडी भाषाओं की बात करते हैं और झारखंड को लूटे जाने का मुद्दा उठाते हैं। लेकिन चुनावी मुकाबले का पहला अनुभव उनकी कमजोरी बन सकती है। उनकी सियासी जमीन चंद्रप्रकाश चौधरी और मथुरा महतो की तुलना में काफी सीमित है, जिसका नुकसान उन्हें उठाना पड़ सकता है।
इस तरह चंद्रप्रकाश चौधरी को त्रिकोणीय मुकाबला का सामना करना होगा। एक ओर झामुमो के वरीय नेता मथुरा महतो उन्हें कड़ी टक्कर देने के लिए लगातार जनसंपर्क कर रहे हैं, वहीं जयराम महतो भी उनसे टकराने के लिए तैयार हैं। तीन-तीन कुर्मी प्रत्याशियों को मैदान में उतरने की वजह से इस वोट बैंक का बंटवारा होना तय माना जा रहा है। अब यह बाजी किसके हाथ लगेगी, यह एक बड़ा सवाल है।