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    Home»विशेष»पाकिस्तान के शिमला समझौता रोकने से कहीं भारत उसके तीन टुकड़े न कर दे
    विशेष

    पाकिस्तान के शिमला समझौता रोकने से कहीं भारत उसके तीन टुकड़े न कर दे

    shivam kumarBy shivam kumarApril 29, 2025No Comments11 Mins Read
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    1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े किये थे, बांग्लादेश का जन्म हुआ था
    अब कहीं बलूचिस्तान, सिंधु देश और पाक अधिकृत कश्मीर की बारी तो नहीं
    भारत अब पाकिस्तान में घुसकर मरेगा भी, टुकड़े भी करेगा, समझौता भी नहीं करेगा

    पहलगाम हमले के बाद भारत ने सिंधु जल समझौता स्थगित किया, तो पाकिस्तान बौखला गया। उसके बाद 24 घंटे के भीतर पाकिस्तान ने सात जवाबी फैसले लिये। इसमें शिमला समझौता रद्द करना भी शामिल है। एक्सपर्ट्स की मानें तो शिमला समझौता रद्द करना पाकिस्तान को ही भारी पड़ने वाला है और भारत को इसका फायदा मिलेगा। पाकिस्तान द्वारा सिंधु जल संधि को रोकने के भारत के फैसले पर गीदड़भभकी दी गयी कि किसी भी तरह के बदलाव को ‘युद्ध की कार्रवाई’ माना जायेगा। उसके बाद भारत के लोगों ने कहा वे तैयार हैं, तू कर तुझे जो करना है। दो कौड़ी का देश धमकी दे रहा है। खाने को आटा नहीं, कटोरा लेकर जगह-जगह घूमने वाला पाकिस्तान भारत को धमकी दे रहा है। खबर तो यहां तक है कि पाक सेना के अधिकारी अपने-अपने परिवार वालों को पाकिस्तान से बाहर भेज रहे हैं। रात भर उन्हें नींद नहीं आ रही है। धमकी तो पाकिस्तान दे रहा, लेकिन भिखमंगों का भारत ने केवल पानी क्या रोका, औकात समझ में आने लगी। आये दिन पकिस्तान उल-जुलूल बयानबाजी कर रहा है। गीदड़भभकी दे रहा है। पाकिस्तान द्वारा शिमला समझौता रोकने के बाद भारत की सेना सीधे पाक आर्मी चीफ असीम मुनीर की गले की नस ही काटने वाली है। 1971 में भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े किये थे, तब बना बांग्लादेश। इस बार कहीं भारत उसके तीन टुकड़े न कर दे, बलूचिस्तान, सिंधु देश और पाक अधिकृत कश्मीर। क्या है शिमला समझौता और इसे स्थगित करने का क्या होगा असर? इस पर आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह की रिपोर्ट।

    1971 में भारत-पाक युद्ध के बाद उनके 90 हजार से ज्यादा सैनिकों को युद्ध में बंदी बनाया गया था। इस जंग में पाकिस्तान की हार हुई और बांग्लादेश को आजादी मिली। इसके बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार के लिए पाक युद्ध बंदियों को छुड़ाने की कवायद शुरू हुई। दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध के लिए 2 जुलाई 1972 को शिमला में एक समझौता हुआ। यह समझौता हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में बार्नस कोर्ट में हुई। बार्नस कोर्ट वर्तमान में हिमाचल का राजभवन है। राजभवन में आज भी शिमला समझौते की निशानियां मौजूद हैं। इस समझौते में दोनों देशों ने शांतिपूर्ण तरीकों और बातचीत के जरिये अपने मतभेदों का समाधान करने की प्रतिबद्धता जतायी थी। पहलगाम हमले के बाद हिमाचल राजभवन से शिमला समझौते के ऐतिहासिक टेबल पर रखा पाकिस्तान का झंडा हटा दिया गया है। अब शिमला समझौते की ऐतिहासिक टेबल पर सिर्फ अपने देश भारत का तिरंगा रखा गया है। जुलाई 1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला समझौते पर दस्तखत किये थे। यह समझौता कश्मीर को लेकर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को दरकिनार करते हुए दोनों देशों के बीच आपसी बातचीत से कोई भी मुद्दा सुलझाने पर जोर देता है। समझौते में कहा गया था कि दोनों देश एलओसी पर अपनी-अपनी स्थिति में वापस लौटेंगे और दूसरे के इलाकों का सम्मान करेंगे। कहा जाता है कि इस समझौते का ही असर रहा कि इसके बाद सिर्फ एक जंग हुई वह है 1999 में कारगिल की जंग।

    समझौते की अहम बातें
    दोनों देशों ने 17 सितंबर 1971 को युद्ध विराम के रूप में मान्यता दी। तय हुआ कि इस समझौते के 20 दिनों के अंदर दोनों देशों की सेनाएं अपनी-अपनी सीमा में चली जायेंगी। यह भी तय हुआ कि दोनों देशों/सरकारों के अध्यक्ष भविष्य में भी मिलते रहेंगे। संबंध सामान्य बनाये रखने के लिए दोनों देशों के अधिकारी बातचीत करते रहेंगे। दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत करेंगे। तीसरे पक्ष द्वारा कोई मध्यस्थता नहीं की जायेगी। यातायात की सुविधाएं स्थापित की जायेंगी। ताकि दोनों देशों के लोग आसानी से आ जा सकें। जहां तक संभव होगा, व्यापार और आर्थिक सहयोग फिर से स्थापित किये जायेंगे। अगर दोनों देशों के बीच किसी समस्या का अंतिम निपटारा नहीं हो पाता है और मामला लंबित रहता है, तो दोनों पक्ष में से कोई भी स्थिति में बदलाव करने की एकतरफा कोशिश नहीं करेगा। दोनों पक्ष ऐसे कृत्यों के लिए सहायता, प्रोत्साहन या सहयोग नहीं करेंगे जो शांतिपूर्ण और सौहार्द्रपूर्ण संबंध बनाये रखने में हानिकारक हैं। दोनों देश एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करेंगे। समानता एवं आपसी लाभ के आधार पर एक-दूसरे के आंतरिक मामले में दखल नहीं देंगे। दोनों सरकारें अपने अधिकार के अंदर ऐसे उग्र प्रॉपेगेंडा को रोकने के लिए हर संभव कदम उठायेंगी, जिनके निशाने पर दोनों में से कोई देश हों। दोनों देश इस तरह की सूचनाएं आपस में साझा करने को प्रोत्साहन देंगे। संचार के लिए डाक, टेलीग्राफ सेवा, समुद्र, सीमा डाक समेत सतही संचार माध्यमों, उड़ान समेत हवाई लिंक बहाल करेंगे। शांति की स्थापना, युद्धबंदियों और शहरी बंदियों की अदला-बदला के सवाल, जम्मू-कश्मीर के अंतिम निपटारे और राजनयिक संबंधों को सामान्य करने की संभावनाओं पर काम करने के लिए दोनों पक्षों के प्रतिनिधि मिलते रहेंगे और आपस में चर्चा करेंगे। दोनों देशों के बीच सहमति बनी कि जहां तक संभव होगा आर्थिक और अन्य सहमति वाले क्षेत्रों में व्यापार और सहयोग बढ़ेगा। विज्ञान और संस्कृति के मैदान में आदान-प्रदान को बढ़ावा देने की सहमति बनी।

    शिमला समझौते को पाकिस्तान पहले से ही नहीं मानता आया
    एक्सपर्ट्स की मानें तो शिमला समझौते को पाकिस्तान पहले से ही नहीं मानता आया है। पाकिस्तान ने इस समझौते की शर्तों का उल्लंघन किया है। वहीं, भारत को इससे कोई नफा-नुकसान नहीं होने वाला है। इससे भारत के लिए तीन नयी संभावनाएं जरूर खुल गयी हैं। अब भारत लाइन आॅफ कंट्रोल (एलओसी) की स्थिति बदल सकता है। कुछ एक्सपर्ट्स का मानना है कि अब भारत एलओसी को एकतरफा तरीके से बदलने के लिए जरूरी कदम उठा सकता है। हालांकि, 1984 में पाकिस्तान कराची समझौते के तहत तय हुए भारत के सियाचिन इलाके में कब्जा करने की कोशिश कर चुका है। जवाबी कार्रवाई में भारत ने ‘आॅपरेशन मेघदूत’ शुरू करके पूरे सियाचिन ग्लेशियर पर कंट्रोल हासिल कर लिया था। वहीं शिमला समझौते के क्लॉज-1 के सबसेक्शन-2 में कहा गया है कि दोनों देश द्विपक्षीय बातचीत के जरिये या आपसी सहमति से किसी शांतिपूर्ण तरीके से आपसी मतभेदों को सुलझायेंगे। किसी समस्या का अंतिम समाधान होने तक कोई भी पक्ष एकतरफा तरीके से स्थिति नहीं बदलेगा और दोनों देश कोई भी ऐसा काम नहीं करेंगे जो शांतिपूर्ण संबंधों को नुकसान पहुंचाने वाला हो। लेकिन अब शिमला समझौते पर पाकिस्तान के रोक लगाने के बाद भारत पहलगाम के बदले में आतंकियों के घुसपैठ के इलाकों में सुरक्षा के मद्देनजर कोई मिलिट्री एक्शन ले सकता है। उस पर संधि के खिलाफ जाने का आरोप भी नहीं लगेगा। शिमला समझौता कहता है कि वैश्विक शक्तियों के दखल के बिना ही दोनों देशों को आपसी मामले निपटाने होंगे। जब समझौता हुआ तब पाकिस्तान के दूसरे देशों के साथ अच्छे संबंध थे। लेकिन अब रोक लगने के बाद अमेरिका, इजराइल, पश्चिम एशियाई और यूरोपीय देशों से भारत के अच्छे संबंध हैं। पहलगाम हमले के बाद दुनिया के ज्यादातर देशों ने इसकी निंदा की है। शिमला समझौते के तहत बाध्यता खत्म होने के बाद पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई में भारत को दुनिया भर के देशों का समर्थन मिल सकता है।

    पाकिस्तान के टूटने की शुरूआत 1971 में हो गयी थी
    पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में जनाक्रोश लगातार बढ़ रहा है। यह क्षेत्र बुनियादी सुविधाओं, बिजली, स्वास्थ्य सेवाओं और रोजगार की कमी से जूझ रहा है, जिसके कारण स्थानीय लोग सड़कों पर उतर आये हैं। वर्तमान में, लोग सरकार से बिजली, स्वास्थ्य सेवाएं और अन्य बुनियादी जरूरतों की बहाली की मांग कर रहे हैं। विरोध प्रदर्शन लगातार बढ़ रहे हैं, और विरोध करने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। पाकिस्तान के टूटने की शुरूआत वर्ष 1971 में हो गयी थी, जब भारत की मदद से बांग्लादेश बना। इसके बनने के पीछे भी 24 सालों का असंतोष था। उसके बाद पीओके, सिंधुदेश और बलूचिस्तान की मांग ने पाकिस्तान के नाक में दम कर रखा है। सिंधु देश की मांग पर तो हाल में हुई रैली में प्रदर्शनकारियों के हाथों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत विश्व के कई बड़े नेताओं की तस्वीरें नजर आयीं। प्रदर्शनकारियों ने सिंध प्रांत को अलग देश बनाने की मांग के मामले में विश्व के नेताओं से दखल देने की अपील की है। सिंधु देश की मांग की कहानी 1947 से जुड़ी है। भारत को आजादी मिलने के बाद सिंधु क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया और पाकिस्तान के चार प्रांतों में से एक बन गया। अलग सिंधु देश की मांग 1967 से शुरू हुई, जब पाकिस्तान सरकार ने यहां के निवासियों के ऊपर उर्दू भाषा थोप दी। यहां के लोगों ने इसका विरोध किया और इसके फलस्वरूप सिंधी अस्मिता का जन्म हुआ। इन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति की दुहाई दी और लोगों को एकजुट किया। इस मुहिम में सिंधी हिंदू और सिंधी मुसलमान दोनों शामिल हुए। ‘सिंधु देश’ जिसका शाब्दिक अर्थ होता है सिंधियों के लिए अलग देश। सिंधु देश एक विचार है, जो पाकिस्तान के सिंध प्रांत में बसे और दुनिया भर में फैले सिंधियों का एक सपना है। ये सिंधी दुनिया दूसरे एथनिक समुदायों की तरह अपने लिये एक अलग होमलैंड की मांग करते आ रहे हैं। जैसे कुर्द अपने लिए अलग देश की मांग करते हैं। यहूदी समुदाय के लोगों ने इजरायल नाम का अपना देश बनाया है। उसी तरह सिंधी पाकिस्तान के अंदर एक निश्चित भूभाग में अपने लिए एक स्वतंत्र और सार्वभौम मातृभूमि चाहते हैं।

    कैसे हो सकते हैं पाकिस्तान के तीन टुकड़े
    भारत से अलग होकर 1947 में बने पाकिस्तान के लिए समस्याएं कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती हैं। दुनियाभर के कर्ज में डूबे पाकिस्तान में अगर आपको आने वाले कुछ वर्षों में गृहयुद्ध की स्थिति बनती दिखाई दे, तो चौंकने वाली बात नहीं होगी। उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी भाषा बनाने की घोषणा के साथ ही पाकिस्तान में अलगाववाद के बीज पनपने लगे थे। लोगों पर जबरदस्ती उर्दू भाषा थोपी गयी। बांग्लाभाषी बहुल पूर्वी पाकिस्तान इसी फैसले के चलते अब अलग देश बनकर बांग्लादेश के रूप में आपके सामने है। वहीं, पाकिस्तान में अगस्त, 1947 के बाद से अब तक बनी सभी सरकारों ने मानवाधिकारों को एक अलग खूंटी पर टांग दिया। बात पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की हो या बलूचिस्तान या फिर सिंधु प्रांत की। पाकिस्तानी सरकारों ने इन सभी जगहों से उठने वाली आवाजों का वर्षों से दमन किया है। पाकिस्तानी फौज के बलूचिस्तान में किये जा रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने वाली एक्टिविस्ट करीमा बलोच की कनाडा में हुई हत्या इसका एक ताजा उदाहरण है। फिलहाल पाकिस्तान के सिंध प्रांत में सबसे ज्यादा हिंदू आबादी रहती है। पाकिस्तान की कुल हिंदू आबादी का करीब 95 फीसदी सिंध प्रांत में हैं। पाकिस्तान के उत्पीड़न से त्रस्त इन लोगों ने अब वैश्विक नेताओं से गुहार लगायी है। वहीं, प्रदर्शनकारियों के हाथ में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर होने के पीछे एक बड़ी वजह है। कश्मीर की स्थिति को लेकर हुई एक सर्वदलीय बैठक में मोदी ने कहा था कि समय आ गया है, अब पाकिस्तान को विश्व के सामने बलूचिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में लोगों पर हो रहे अत्याचारों का जवाब देना होगा। मोदी के इस बयान के चलते बलोच आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में काफी तवज्जो मिली थी। इसके बाद 2016 में भारत के 70वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले की प्राचीर से बलूचिस्तान, गिलगित और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोगों का आभार व्यक्त किया था।

    इसके आलावा गिलगित-बाल्टिस्तान पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का सबसे उत्तरी इलाका है। यहां पर भी लंबे समय से आजादी की मांग चल रही है। चरमपंथी संगठनों ने अपने देश का नाम भी तय कर रखा है- बलवारिस्तान यानी ऊंचाइयों का देश। ये इसलिए क्योंकि ये पूरा इलाका ही पहाड़ों और वादियों का है। समय-समय पर यहां आंदोलन होते रहे। यहां के नेताओं का आरोप है कि पाकिस्तान का सबसे शानदार टूरिस्ट स्पॉट होने के बाद भी वो उन्हें ज्यादा प्रमोट नहीं करती। सरकारी योजनाएं भी यहां पूरी तरह से लागू नहीं होतीं। यही देखते हुए गिलगित-बाल्टिस्तान की मांग होती रही। लेकिन सरकार लगातार इसके लीडर्स को खूनी संघर्ष में खत्म करती रही। सिंधु देश की मांग के आलावा साल 1947 में पाकिस्तान के बनने के साथ ही बलूच मुद्दे ने उसकी नाक में दम कर रखा है। आये दिन बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी की खबरें आती हैं कि उसने अपने यहां कोई धमाका कर दिया, जिसमें पाकिस्तान सरकार या चीन के लोग मारे गये। इसके अलावा भी कई चरमपंथी संगठन हैं, जो बलूच आजादी चाहते हैं। दरअसल ये पाकिस्तान का वो हिस्सा है, जो कभी भी सरकार के बस में नहीं रहा। इसकी दो वजहें हैं- एक, पाकिस्तान ने धोखे से उसे अपने साथ मिला लिया। और दूसरा, बलूचिस्तान मानता है कि पाकिस्तान उसके साथ सौतेला व्यवहार करता रहा। उनका मानना है कि गैस, कोयला, तांबा और कोयला जैसे कच्चे माल में बेहद संपन्न होने के बाद भी हमारा इलाका काफी गरीब है। यहां तक कि स्कूल और अस्पताल जैसी बुनियादी जरूरतें भी वहां पूरी नहीं हो पा रहीं। पाकिस्तान ने अपने कर्ज चुकाने के लिए यहां की खदानों को चीन को लीज पर दे दिया। ये बलूच लोगों पर दोहरी मार थी। वे मानने लगे कि उन्हें पाकिस्तान और चीन दोनों मिलकल लूट रहे हैं।

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