विशेष
कहा-अदालतों का राष्ट्रपति को निर्देश देना अच्छा संकेत नहीं
संसद से पास-राष्ट्रपति की मंजूरी से लागू कानून की समीक्षा भी ठीक नहीं
खतरनाक हो सकता है कार्यपालिका और न्यायपालिका का यह टकराव

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल में विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को संबंधित राज्यपालों द्वारा अनंत काल तक रोक कर ‘पॉकेट वीटो करने की प्रवृत्ति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने जो निर्णय दिया है, उससे विधायिका में भारी कसमसाहट है। वे कह रहे हैं यह कार्यपालिका के क्षेत्र में न्यायपालिका का अनावश्यक हस्तक्षेप है। अदालतें कार्यपालिक प्रमुखों, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपालों को निर्देशित कैसे कर सकती हैं। उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने कहा कि कोर्ट ‘सुपर संसद’ की तरह काम न करे। उप राष्ट्रपति के इस तेवर पर भी विधि विशेषज्ञ दो खेमों में बंट गये हैं। एक इस पर आपत्ति जता रहा है, तो दूसरा इसे ‘साहसिक’ बता रहा है। इसके अलावा संसद द्वारा पारित और राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित कानून पर स्थगनादेश देना भी अदालतों के ‘सुपर संसद’ बन जाने का संकेत हैं। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि क्या अब संविधान के दो मूलभूत अंग, न्यायपालिका और कार्यपालिका ही एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो गये हैं और क्या यह स्थिति हमारे लोकतंत्र के लिए सुखकर है। इन दोनों सवालों का जवाब ‘नहीं’ है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए घातक है, क्योंकि वैचारिक द्वंद्व होना अलग बात है और अधिकारों का अतिक्रमण और मर्यादा के सीमांकन की जिद होना दूसरी बात। इस द्वंद्व में कार्यपालिका, विधायिका से समर्थन चाहेगी, जो हो भी रहा है, क्योंकि स्वतंत्र और प्रभावी न्यायपालिका, जो आज खुद सवालों के घेरे में है, अक्सर कार्यपालिका के कान उमेठती रहती है और कभी-कभार विधायिका को भी निर्देशित करती है। क्या है इस टकराव के मायने और लोकतंत्र के लिए यह रवैया कितना घातक है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

तमिलनाडु के राज्यपाल पर फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर निशाना साधने वाले उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान पर चर्चा छिड़ गयी है। उप राष्ट्रपति ने न्यायपालिका द्वारा राष्ट्रपति के निर्णय लेने के लिए समय सीमा निर्धारित करने और ‘सुपर संसद’ के रूप में कार्य करने को लेकर सवाल उठाते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट लोकतांत्रिक ताकतों पर ‘परमाणु मिसाइल’ नहीं दाग सकता। उप राष्ट्रपति ने कहा, हमारे पास ऐसे जज हैं, जो कानून बनायेंगे, जो कार्यपालिका के कार्य करेंगे, जो ‘सुपर संसद’ के रूप में कार्य करेंगे और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता है। उप राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण शक्तियां प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद 142 को ‘न्यायपालिका को चौबीसों घंटे उपलब्ध लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल’ करार दिया। इसके बाद से न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच मतभेद को लेकर एक बार फिर चर्चा होने लगी है।

न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव
भारत के संवैधानिक इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है, जब न्यायपालिका और कार्यपालिका सीधे-सीधे टकरा गये हैं। इन टकरावों ने संविधान के प्रावधानों को समझने, संसद की शक्तियों की सीमाओं और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को आकार दिया है। एक बड़ा टकराव 1973 में केशवानंद भारती मामले में हुआ था। यह मामला इसलिए हुआ, क्योंकि सरकार भूमि सुधार और सामाजिक बदलाव लाना चाहती थी। इंदिरा गांधी सरकार का मानना था कि संसद संविधान के किसी भी भाग में बदलाव कर सकती है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं। केशवानंद भारती, जो केरल में एक धार्मिक मठ के प्रमुख थे, ने राज्य सरकार द्वारा उनकी संपत्ति के अधिग्रहण को चुनौती दी। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। 13 जजों की बेंच ने फैसला सुनाया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में बदलाव कर सकती है, लेकिन वह इसके मूल ढांचे को नहीं बदल सकती। कोर्ट ने ‘मूल ढांचे’ की पूरी परिभाषा नहीं दी, लेकिन कुछ मुख्य बातें बतायीं, जैसे – संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, शक्तियों का बंटवारा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा। इस फैसले ने सरकार की संविधान पर मनमानी करने की कोशिशों पर रोक लगायी। यह भारत के इतिहास में न्यायिक समीक्षा का एक महत्वपूर्ण उदाहरण था।

इमरजेंसी में जब सरकार का साथ देने पर आलोचना हुई
एक और टकराव इमरजेंसी के दौरान हुआ, जो 1975 से 1977 तक चला। इस दौरान लोगों की आजादी छीन ली गयी, राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और प्रेस पर पाबंदी लगा दी गयी। इस समय का एक महत्वपूर्ण मामला एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामला था, जिसे आम तौर पर बंदी प्रत्यक्षीकरण मामला कहा जाता है। इस मामले में जिन लोगों को प्रिवेंटिव डिटेंशन कानूनों के तहत गिरफ्तार किया गया था, उन्होंने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी। उन्होंने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के माध्यम से राहत मांगी। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया। इसे कोर्ट के इतिहास में एक काला अध्याय माना जाता है। कोर्ट ने कहा कि इमरजेंसी के दौरान, जब अनुच्छेद 32 के तहत संवैधानिक उपायों का अधिकार निलंबित कर दिया गया था, तो नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को लागू करने का भी अधिकार नहीं है। इस फैसले की बहुत आलोचना हुई। बाद में इसे अन्य फैसलों और संवैधानिक संशोधनों द्वारा बदल दिया गया। जस्टिस एचआर खन्ना ने नागरिक स्वतंत्रता के लिए अपनी आवाज उठायी, भले ही उन्हें व्यक्तिगत रूप से नुकसान हुआ। उन्हें हमेशा याद किया जायेगा।

कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संबंध तनावपूर्ण
इसके बाद के सालों में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संबंध तनावपूर्ण बने रहे। खासकर जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर को लेकर। 1980 के दशक की शुरूआत में जजों की नियुक्ति का मुद्दा सामने आया। सरकार ऐसे जजों को ट्रांसफर या नियुक्त करना चाहती थी, जो उसके समर्थक हों। इससे कई कानूनी विवाद हुए, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘थ्री जजेस केस’ के नाम से जाना गया। पहला मामला 1981 में आया, जिसमें जजों की नियुक्ति में सरकार को प्राथमिकता दी गयी। लेकिन 1993 में दूसरे केस में इस फैसले को पलट दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति अब एक कॉलेजियम करेगी, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और कुछ वरिष्ठ जज शामिल होंगे। 1998 में तीसरे केस में इसे और स्पष्ट किया गया। कॉलेजियम सिस्टम को मजबूत किया गया और जजों की नियुक्ति को सरकार के हस्तक्षेप से बचाया गया।

एनजेएसी के मुद्दे पर भी आये आमने-सामने
2014 में संसद ने कॉलेजियम सिस्टम को बदलने के लिए 99वां संविधान संशोधन और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम पारित किया। एनजेएसी में कार्यपालिका के सदस्य, जैसे कानून मंत्री, भारत के चीफ जस्टिस, सीनियर जज और दो जाने-माने लोग शामिल थे। इसे नियुक्ति प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाने के लिए पेश किया गया था। लेकिन, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी को असंवैधानिक घोषित कर दिया। कोर्ट ने कहा कि इससे संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन होता है, क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ती है। कोर्ट ने कहा कि नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका के सदस्यों की उपस्थिति शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है। कोर्ट ने कॉलेजियम सिस्टम को फिर से लागू कर दिया।

सच में संवैधानिक लोकतंत्र के विकास के लिए जरूरी थे टकराव
इन घटनाओं से पता चलता है कि भारतीय इतिहास में कई बार न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव हुआ है। ये टकराव सिर्फ संस्थागत लड़ाई नहीं थे, बल्कि भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के विकास के लिए जरूरी थे। इनसे संसद की शक्तियों की सीमा, नागरिक स्वतंत्रता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता तय हुई। इन सभी मामलों में न्यायपालिका ने संवैधानिक संतुलन बनाये रखने और सरकार की मनमानी के खिलाफ लोकतंत्र की रक्षा करने की कोशिश की।

सरल शब्दों में कहें, तो भारत में समय-समय पर न्यायपालिका और सरकार के बीच मतभेद होते रहे हैं। ये मतभेद संविधान को समझने, संसद की ताकत को सीमित करने और न्यायपालिका को स्वतंत्र रखने में मददगार साबित हुए हैं। इन सभी घटनाओं से पता चलता है कि भारत में न्यायपालिका और सरकार के बीच कई बार टकराव हुआ है। इन टकरावों ने भारत के लोकतंत्र को मजबूत बनाने में मदद की है। इनसे पता चला कि संसद की शक्ति कितनी है, लोगों की आजादी कितनी जरूरी है और न्यायपालिका कितनी स्वतंत्र होनी चाहिए। न्यायपालिका ने हमेशा संविधान की रक्षा करने और सरकार को मनमानी करने से रोकने की कोशिश की है।

वर्तमान संदर्भ में टकराव
अब आते हैं वर्तमान संदर्भों में टकराव पर। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा है कि विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को संबंधित राज्यपालों द्वारा अनंत काल तक रोक कर ‘पॉकेट वीटो’ करने की प्रवृत्ति असंवैधानिक है। इसके अलावा संसद द्वारा पारित और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद लागू वक्फ संशोधन कानून पर सुप्रीम कोर्ट के स्थगनादेश से भी न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठने लगे हैं। इन दोनों मामलों से आवाज उठने लगी है कि यह कार्यपालिका के क्षेत्र में न्यायपालिका का हस्तक्षेप है। अदालतें कार्यपालिका प्रमुखों, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपालों को निर्देशित कैसे कर सकती हैं। इतना ही नहीं, अदालतों में यदि संसद द्वारा पारित कानूनों पर स्थगन आदेश लागू होता रहा, तो फिर इस देश की संसद, यानी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सर्वोच्च मंदिर की जरूरत क्या रह जायेगी।

क्या कहा उप राष्ट्रपति ने
उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 अप्रैल को हाल ही में न्यायपालिका के एक फैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिये जाने की पनपी नयी प्रवृत्ति पर सवाल किया कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। हमने इस दिन के लिए लोकतंत्र की कभी उम्मीद नहीं की थी। राष्ट्रपति को समयबद्ध तरीके से निर्णय लेने के लिए कहा जाता है। धनखड़ की यह टिप्पणी एकदम ठीक है, क्योंकि हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते, जहां हम भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें या उनके द्वारा लागू कानून को स्थगित कर दें। यह लोकतंत्र के लिए घातक ही होगा और इससे टकराव बढ़ेगा। इसलिए अच्छा यही होगा कि लोकतंत्र का हर स्तंभ, चाहे वह विधायिका हो या कार्यपालिका या फिर न्यायपालिका, अपनी सीमाओं में रह कर संविधान प्रदत्त अधिकारों के दायरे में काम करें।

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