लोकसभा चुनाव से पहले ही झारखंड की राजनीति करवट लेने लगी थी। दलों में भागमभाग मची थी। तमाम विपक्षी दलों ने मिल कर झारखंड में महगठबंधन बनाया। इसमें राजद के लालू प्रसाद की विशेष भूमिका रही। रिम्स में इलाजरत सजायाफ्ता लालू प्रसाद के यहां दरबार सजता रहा। इसमें झामुमो, झाविमो, कांग्रेस के दिग्गजों का जुटान होता रहा। और देखते ही देखते महागठबंधन आकार पा गया। सीट शेयरिंग का फार्मूला भी तय हो गया। ऐन इसी वक्त पटना के बालू कारोबारी सुभाष यादव की चतरा के माध्यम से झारखंड राजद में इंट्री हुई और देखते ही देखते उन्होंने झारखंड राजद पर एक तरह से कब्जा कर लिया। पार्टी टूटी, अन्नपूर्णा देवी से लेकर गिरिनाथ सिंह तक ने राजद को बॉय-बॉय कर दिया। लेकिन सुभाष यादव का लालू परिवार में दबदबा बढ़ता गया। उन्होंने उस परिवार पर ऐसा जादू किया कि राबड़ी ने सुभाष यादव को पटना बुलाया और राजद का सिंबल थमा दिया। सिंबल खुद राबड़ी ने थमाया, जबकि चतरा सीट महागठबंधन के तहत कांग्रेस के खाते में गयी थी। इसका विरोध झारखंड प्रदेश राजद ने भी किया। दरअसल प्रदेश राजद की भी यही इच्छा थी कि पार्टी का टिकट किसी बाहरी को नहीं मिले। फिर तो ऐसी रार शुरू हुई कि लोकसभा के चुनावी जंग से पहले ही झारखंड में राजद पस्त हो गया। कुनबा बिखर गया। राजद के दो बड़े नेता प्रदेश अध्यक्ष रहीं अन्नपूर्णा देवी और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष गिरिनाथ सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया। झारखंड में दोनों ही राजद के कद्दावर नेता थे। इन दोनों के जाने से पार्टी को बड़ा झटका लगा। कई जिलों में इनके जाने से पार्टी की सांगठनिक स्थिति ध्वस्त हो गयी। राजद के चतरा से विधायक रहे जनार्दन पासवान भी भाजपा में चले गये। असर यह हुआ कि झारखंड से राजद का खूंटा हिल गया।
चतरा सीट पर सुभाष की दावेदारी से बदला गणित : चतरा सीट पर पार्टी सुप्रीमो लालू प्रसाद ने सुभाष यादव को आगे बढ़ाया, लेकिन यह निर्णय उलटा पड़ा। पार्टी के अंदर इसको लेकर विरोध हुआ। अन्नपूर्णा देवी और गिरिनाथ सिंह संगठन से दूर हो गये। प्रदेश कमेटी पहले पलामू सीट पर दावेदारी कर रही थी। लालू प्रसाद ने इसको हल्के में लिया। नतीजा सबके सामने रहा और देखते ही देखते झारखंड में राजद समर्थकों का समूह बिखर गया। जिला का जिला साफ हो गया। महागठबंधन ने समझौते के तहत पलामू सीट राजद को तो दी, लेकिन चतरा की रार का कुप्रभाव यह पड़ा कि वहां महागठबंधन के दूसरे दल भी पूरी मुश्तैदी से राजद के साथ चुनाव मैदान में नहीं उतरे। कोरम पूरा किया गया। राजद प्रत्याशी घूरन राम एक तरह से महागठबंधन से अलग-थलग रहे।
अब विधानसभा चुनाव को लेकर भी परेशान हैं राजद के नेता
दरअसल लोकसभा के बहाने विधानसभा चुनाव के लिए राजद के कई नेता बैटिंग कर रहे थे। जनार्दन पासवान का भाजपा में जाना, यह संकेत भी दे रहा है। गिरिनाथ सिंह का भाजपा में जाना भी कुछ यही दर्शाता है। दरअसल राजद के ये नेता जानते थे कि राजद में रह कर वे कुछ भी हासिल नहीं कर पायेंगे। कार्यकर्ताओं में भी पार्टी को लेकर खास उत्साह नहीं था। इन सबकी मूल वजह रहा सुभाष यादव को चतरा से प्रत्याशी बनाया जाना।
सुभाष यादव को सीधे पटना से टिकट दिये जाने से वे भांप गये थे कि उनका भविष्य अब राजद में सुरक्षित नहीं है। यहां कभी भी किसी को ऊपर से लाकर बिठाया जा सकता है। जब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष तक को बैठक से दूर रखा जा सकता है, तो उनकी बिसात ही क्या है। यहां उनकी कोई सुननेवाला नहीं है। जब जिसको मर्जी होगी, ऊपर से लाकर बिठा दिया जायेगा।
सुभाष यादव की जिद और डूबने लगी राजद की लुटिया
अब बात करते हैं आखिर अकेले सुभाष यादव पूरे राजद की लुटिया झारखंड में कैसे डुबोने लगे। दरअसल, टिकट मिलने से पहले ही राजद के अंदर बयानबाजी शुरू हो गयी थी। रिम्स में अपने टिकट को लेकर लालू प्रसाद से मिलने पहुंचे सुभाष यादव ने प्रेस के समक्ष प्रदेश अध्यक्ष अन्नपूर्णा देवी और महागठबंधन को लेकर जो बयान दिया था, उससे उन्होंने जताने की कोशिश कर दी थी कि वह पार्टी और इसके निर्णयों से ऊपर की चीज हैं। कहा था: उनका टिकट तो पक्का है, बाकी का नहीं कह सकते।
शायद टिकट हासिल कर उन्होंने इसे साबित भी किया, जिसे पार्टी के बड़े नेता नहीं पचा पाये। महागठबंधन के नेताओं ने भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी। इतना ही नहीं टिकट पाने के बाद वह फिर लालू प्रसाद से मिलने रिम्स पहुंचे और फिर अपना मुंह खोला। इस बार कह दिया कि महागठबंधन के लोग मानें तो ठीक वर्ना राजद झारखंड की 81 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने को तैयार है। इस बात को भी पार्टी और गठबंधन के नेता पचा नहीं सके। उधर कांग्रेस और महागठबंधन भी चतरा सीट को लेकर अड़ गये। इन सबके बीच पहले जनार्दन पासवान, फिर अन्नपूर्णा देवी और अंतत: गिरिनाथ सिंह ने भी राजद को टाटा कर दिया। उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। देखते ही देखते राजद झारखंड में ध्वस्त हो गया। इधर, लालू प्रसाद भी अलग थलग पड़ गये। महागठबंधन के नेताओं ने उनकी दरबारी छोड़ दी। झामुमो, झाविमो और कांग्रेस के दिग्गज तो क्या, उनका आम कार्यकर्ता भी अब राजद अध्यक्ष को पानी के लिए भी नहीं पूछ रहा है। हालांकि अब तक किसी ने उनके खिलाफ कुछ नहीं कहा है। चुनाव को लेकर उनकी व्यस्तता अपनी जगह हो सकती है। पर सच तो यही है कि धीरे-धीरे राजद का कुनबा लालू प्रसाद यादव से दूर जाने लगा है। इधर सुभाष यादव ने यहीं तक अपने को विराम नहीं दिया। घर फोड़ने की उनकी कवायद बदस्तूर जारी है। पिछले दिनों राजद के नये प्रदेश अध्यक्ष गौतम सागर राणा से ही उन्होंने पंगा ले लिया। मंच पर ही उनसे भिड़ गये। साफ कह दिया कि कोडरमा में राजद महागठबंधन प्रत्याशी को नहीं, माले के राजकुमार यादव को सपोर्ट करेगा, मानो पार्टी उनकी जागीर हो। यह बात गौतम सागर राणा को नागवार गुजरी और उन्होंने विरोध कर दिया। बस फिर क्या था। दोनों के बीच ठन गयी। एक बार फिर अगले ही दिन सुभाष यादव अपने आका के पास रिम्स पहुंच गये। वहां भी मीडिया के सामने फिर मुंह फाड़ दिया कि लालू जी का आशीर्वाद मिल गया है, कोडरमा में राजद माले को ही सपोर्ट करेगा। जबकि कोडरमा में महागठबंधन प्रत्याशी के रूप में झाविमो के केंद्रीय अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी खड़े थे। कहीं न कहीं, उन्हें भी इस बयान से सुभाष यादव ने ठेस पहुंचायी। सुभाष यादव ने यह भी कहा कि राजद किसी का मोहताज नहीं है। विधानसभा चुनाव भी पार्टी अकेले 81 सीटों पर लड़ने को तैयार है। ये सभी आग उगनेवाली बातें, कहीं न कहीं राजद को महागठबंधन से दूर लेती गयीं।
बालू के धंधे में पैर जमाना ही सुभाष का मुख्य मकसद
सभी जानते हैं कि सुभाष यादव बालू का धंधा करते हैं। इस धंधे से ही वह करोड़पति बने हैं। अब उनकी नजरें झारखंड में खासकर चतरा की उर्वर भूमि पर गड़ी हैं। झारखंड की नदियां खास कर चतरा और पलामू की बालू नहीं सोना उगलती हैं। रोजाना दर्जनों नहीं, सैकड़ों ट्रक बालू का उठाव यहां से होता है, जो बिहार और यूपी जाता है।
चतरा इसका मुख्य सेंटर है। यही कारण है कि सुभाष यादव यहां पैर जमाना चाहते हैं। इसके लिए यहां वह राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं। वह जानते हैं कि राजनीतिक पकड़ जितनी मजबूत रहेगी, उनका बालू का धंधा यहां उतनी ही सुगमता से चलेगा। इसी के मद्देनजर उन्होंने यहां से चुनाव लड़ने का फैसला किया और इसके लिए सारी ताकत लगा दी। उन्हें पता है कि चतरा और पलामू में राजद की जमीन मजबूत है। इस पार्टी के जरिये राजनीतिक इंट्री पर ज्यादा मशक्कत उन्हें नहीं करनी पड़ेगी। चुनाव जीते तो ठीक, नहीं तो एक जमीन तो उनके लिए तैयार हो ही जायेगी। इसी सोची समझी रणनीति के तहत उन्होंने यह दांव आजमाया। देखा जाये, तो यह उनकी बिजनेस स्ट्रेटेजी के तहत एक इनवेस्टमेंट मात्र है, जिसे उन्होंने बखूबी आजमाया है। भले इसमें बलि का बकरा राजद और लालू परिवार बने हों। उनका धंधा तो चोखा ही रहेगा।