रहस्यमय है जल-जंगल-जमीन को उजड़ते हुए देखना
झारखंड के मूल निवासी लंबे समय से अपने अस्तित्व, पहचान, भाषा संस्कृति और संसाधनों पर हक के लिए संघर्ष कर रहे हैं। प्रकृति के साथ लंबे समय के सहचर्य से इन्होंने प्रकृति आधारित जीवन शैली विकसित की है, पर सभ्यताओं के साथ संपर्क में आने के बाद उनके जीवन में परिवर्तन आना शुरू हुआ। आज आदिवासी समुदाय अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, संसाधनों पर हक के लिए अन्य समस्याओं के साथ संघर्ष कर रहा है। आदिवासियों के संदर्भ में झारखंड का अलग ही स्थान है, क्योंकि 27 प्रतिशत जनजातीय आबादी वाले इस राज्य की धुरी आदिवासियों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। यह एक विडंबना ही कही जायेगी कि 23 साल पहले बिहार से अलग होकर बने झारखंड में यदि दो चीजें खूब फली-फूलीं, तो वे हैं भ्रष्टाचार और जमीन का धंधा। इन दो बड़ी बीमारियों ने खनिज संपदा से भरपूर इस खूबसूरत प्रदेश को ऐसा जकड़ा कि यहां के लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। झारखंड में जमीन का कारोबार इतना फैला कि राज्य के भ्रष्टाचार की नदी का सारा पानी इसमें समाता चला गया। इसलिए जमीन का आकर्षण भी बढ़ता गया और देखते-देखते पैसेवालों का यह सबसे प्यारा शगल बन गया। इस धंधे ने स्वाभाविक तौर पर दलाल और बिचौलिये पैदा किये, आपसी रंजिश बढ़ी, तो हिंसक वारदातें भी हुईं। लेकिन तकलीफ तब होती है, जब झारखंड में जल-जंगल-जमीन की राजनीति करने का दावा करनेवाले जमीन लूट के खिलाफ आवाज उठाने में हिचकने लगते हैं। आज झारखंड में जमीन लूट की जितनी कहानियां सामने आ रही हैं, ऐसा नहीं है कि उसकी जानकारी लोगों को नहीं होगी। लेकिन किसी ने कभी आवाज नहीं उठायी और यही बात आज एक आम झारखंडी को परेशान कर रही है। झारखंड में जमीन लूट पर इस चुप्पी का कारण टटोल रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
घटना 1995 के आसपास की है। तब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था। झारखंड मुक्ति मोर्चा के एक नेता हुआ करते थे भाई हालेन कुजूर। बिहार विधान परिषद के सदस्य रह चुके थे और जमीन से जुड़े नेता थे। अलग राज्य के आंदोलन के दौरान पूरे राज्य में कहीं भी आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री की जानकारी मिलते ही वह वहां पहुंच जाते थे और यदि वह सौदा गलत होता, तो आंदोलन खड़ा करते थे। केवल भाई हालेन कुजूर ही नहीं, कई ऐसे आदिवासी नेता थे, जो आदिवासियों की जमीन के सौदे की मुखालफत करते सड़कों पर नजर आते थे। दिशोम गुरु शिबू सोरेन, सुधीर महतो और चंपाई सोरेन भी आदिवासियों की जमीन को बचाने के लिए संघर्ष करने में कभी पीछे नहीं हटे। बल्कि सच तो यह है कि अगर आज भी गरीब-गुरबों की जमीन बची है, तो यह इन लोगों के लंबे संघर्ष का ही परिणाम है। झारखंड बनने के बाद ऐसे नेताओं में बंधु तिर्की का नाम सबसे ऊपर रहा। लेकिन पिछले एक साल में झारखंड में जमीन लूट की जितनी कहानियां सामने आयी हैं, ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी किसी को नहीं हो। लेकिन आश्चर्य कि किसी ने भी मुखर आवाज नहीं उठायी। यह बात आज एक आम झारखंडी को गहरे चुभ रही है।
सभी जानते हैं कि भारत के लोग जमीन को मान-मर्यादा और परिवार की प्रतिष्ठा से जुड़ा मानते हैं। इसलिए यहां जमीन के कारण अक्सर खून-खराबे की खबरें भी आती हैं। भारतीय समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग होगा, जिसमें जमीन हासिल करने की आकांक्षा नहीं होगी। झारखंड जैसे राज्य में जमीन का महत्व और बढ़ जाता है, जहां आदिवासी-गैर-आदिवासी का कानूनी पेंच सामने रहता है। 23 साल पहले जब बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बना, यहां जमीन का कारोबार बहुत तेजी से फैला। काली कमाई को जमीन में निवेश किया जाने लगा और इस कारण कीमत भी मनमाने ढंग से बढ़ी। रीयल इस्टेट का कारोबार बढ़ा, तो इसमें समाज का प्रभावशाली वर्ग भी रुचि लेने लगा। बड़े व्यवसायियों और उद्योगपतियों के साथ अधिकारियों में जमीन-मकान खरीदने की होड़ मच गयी। देखते ही देखते झारखंड के हर बड़े शहर में बड़े पैमाने पर जमीन की खरीद-बिक्री होने लगी। इस क्रम में सरकारी जमीन भी बेची गयी और वन भूमि भी। खास महाल और गैर-मजरुआ जमीन को दस्तावेज में हेराफेरी कर बिना किसी रोक-टोक के बेच दिया गया। रांची से लेकर देवघर, हजारीबाग, धनबाद, गिरिडीह, दुमका और गोड्डा तक में जमीन का कारोबार परवान चढ़ने लगा। जब किसी सौदे पर कोई कानूनी अड़चन आती, कारोबारी संबंधित अधिकारी से संपर्क करता और उसकी मदद से सौदे को पूरा कर लेता। हाल के दिनों में कम से कम दो आइएएस अधिकारियों की इडी द्वारा गिरफ्तारी और कई जमीन दलालों, बड़े कारोबारियों और सरकारी कर्मचारियों के साथ उनकी सांठ-गांठ की कहानियों ने जमीन के इस पूरे खेल को बेपर्दा किया है। लेकिन इस पूरे खेल का सबसे दुखद पहलू जमीन की लूट के इन मामलों में बरती गयी राजनीतिक चुप्पी है।
झारखंड के साथ यह विडंबना रही है कि यहां के हुक्मरान, कार्यपालिका और विधायिका से जुड़े लोग और आम जनता को पता है कि गड़बड़ी हुई है या हो रही है, लेकिन कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप खूब होते हैं। चुनावी सभाओं में और दूसरे सार्वजनिक मंचों पर आरोप तो खूब लगाये जाते हैं, लेकिन उसके आगे कोई नहीं बढ़ता। यह भी सच है कि विभिन्न बौद्धिक आयोजनों के दौरान यहां के मूल निवासियों की मौजूदा हालात, समस्याएं और उनकी उपलब्धियों पर चर्चा खूब होती है, लेकिन उनके अस्तित्व से जुड़े मुद्दे अक्सर गौण हो जाते हैं। प्रकृति के सबसे करीब रहनेवाले यहां के मूल निवासियों ने कई क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभायी है। संसाधनों के अभाव में भी इन लोगों ने अपनी एक खास पहचान बनायी है। गीत-संगीत-नृत्य से हमेशा ही इनका एक गहरा लगाव होता है। उनके गीतों-नृत्यों में प्रकृति से लगाव का पुट दिखता है। झारखंड के संदर्भ में कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में यहां के मूल निवासियों का एक बड़ा वर्ग अपनी भाषा-संस्कृति से विमुख हो रहा है। वे अपनी जमीन से उजड़ रहे हैं, लेकिन इसके खिलाफ आवाज उठानेवाला कोई नहीं है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि यहां के मूल निवासी झारखंड के प्रथम निवासी हैं। उन्होंने जंगल- झाड़ काट कर इसे खेती योग्य बनाया और यहां बसते गये। झारखंड का यह वर्ग जिस स्थिति में अपना जीवन यापन करता है, उस बारे में सोच कर भी हैरानी होती है। इस समुदाय के सामने जंगलों का कटना और उनकी पारंपरिक जमीन की चोरी सबसे बड़ी चुनौती है। यह हकीकत है कि आज इस समाज और अन्य वैश्विक समाज के बीच स्पष्ट दार्शनिक विभाजन दिख रहा है। जिसे हम वैश्विक समाज या ग्लोबल दुनिया कहते हैं, वह पूंजी के प्रसार के साथ जिस उपभोग की जीवन शैली को मानव समाज के बीच आरोपित कर रहा है, उसने देखते ही देखते प्रकृति को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है। आज हम स्पष्ट रूप से प्रकृति से विलग और प्रकृति से रागात्मक रूप से जुड़े दो अलग-अलग समाज को देखते हैं। यह विभाजन सिर्फ भारत में या झारखंड में नहीं है, जहां आदिवासी समाज कथित विकास के उद्घोषकों से जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहा है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस लड़ाई में वे लोग अकेले पड़ते जा रहे हैं। उनकी पीड़ा सिर्फ और सिर्फ नेताओं के बयानों तक में सिमट गयी है। झारखंड में पिछले एक साल के दौरान जमीन लूट की जो कहानियां सामने आयी हैं, उनमें से एक के भी खिलाफ राजनीतिक हलकों से आवाज नहीं उठायी गयी। आदिवासी हितों की रक्षा का दम भरनेवाले तमाम राजनेता या तो चुप्पी साध गये या फिर अनजान बने रहे। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। झारखंड के लोग अब महसूस करने लगे हैं कि उनके हित अब राजनीति की बलिवेदी पर कुर्बान होने लगे हैं। इसलिए अब वह दिन दूर नहीं, जब ऐसे लोगों को उस समाज के भीतर से ही चुनौती मिलने लगेगी, जिसकी अस्मिता की रक्षा का दम वे भरते रहे हैं। उनको यह समझना चाहिए कि महान विरासत को बड़ी जिम्मेदारी और विनम्रता के साथ संभाला जाना चाहिए। अगर इसी तरह से यहां के मूल निवासी छले जाते रहे, उनके साथ गलत व्यवहार होता रहा और इसी गति से प्राकृतिक संपदा और सामाजिक संस्कृति का दोहन किया जाता रहा, तो इस समाज को बचाया नहीं जा सकेगा और भारत कभी भी अपनी पूरी क्षमता से प्रगति नहीं कर पायेगा। इसलिए मूलनिवासियों को बचाने के लिए फिर से भगवान बिरसा मुंडा की जरूरत है। हालांकि, केवल एक बिरसा मुंडा इस जिम्मेदारी का भार उठाने के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। हमें सिर्फ भगवान बिरसा मुंडा की ही जरूरत नहीं है, बल्कि हमें बाबा तिलका मांझी, सिदो-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो भी चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि देर से ही सही, यह चुप्पी अब टूटेगी।