-आज दुनिया देखेगी भारत के सामर्थ्य और पीएम मोदी के संकल्प का परिणाम
-समृद्ध विरासत, विकसित वर्तमान और सुनहरे भविष्य के आइने को आज देश को समर्पित करेंगे मोदी

तरक्की की ओर भारत के बढ़ते कदमों के रूप में ही आजादी की 75वीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को नये संसद भवन की सौगात देने जा रहे हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत अब इस भवन में बैठेगी, जिसका शिलान्यास 10 दिसंबर, 2020 को पीएम मोदी ने ही किया था। इस तरह 28 मई, 2023 की तारीख भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में अमिट हो जायेगी, क्योंकि पीएम मोदी देश को स्वनिर्मित संसद भवन का तोहफा देंगे। अब तक भारत की संसद जिस इमारत में बैठती थी, उसका निर्माण ब्रिटिश राज के दौरान किया गया था। संसद भवन का निर्माण ब्रिटिश भारत में एडविन लैंडसियर लुटियंस और सर हर्बर्ट बेकर ने किया था। इसे 1921 में प्रारंभ कर 1927 में पूरा किया गया था। इस लिहाज से नया संसद भवन आजाद भारत की ताकत, इच्छाशक्ति और संसाधनों का जीता-जागता स्वरूप होगा। लोकतंत्र के इस महान मंदिर को भव्य, अद्भुत और अलौकिक रूप देने का सपना प्रधानमंत्री मोदी के हृदय में वर्षों से पलता रहा है। नि:संदेह नया संसद भवन समस्त देशवासियों के लिए भी गौरव का प्रतीक होगा। यह एक भारत, श्रेष्ठ भारत की संकल्पना को साकार करेगा। अतीत की समृद्ध परंपराओं, वर्तमान की ताकत और भविष्य की चुनौतियों को समेट कर बनायी गयी यह इमारत आनेवाले भारत की शौर्यगाथा का बखान करेगी। नये संसद भवन की छतों और दीवारों पर देश की कला और संस्कृति के विविध रंग उकेरे गये हैं, जो भारत की विविधता में एकता को सही मायनों में प्रतिबिंबित कर रहे हैं। दिल्ली भूकंप प्रभावित क्षेत्र में आता है, इसलिए इसमें भूकंपरोधी तकनीक के इस्तेमाल के साथ-साथ सुरक्षा के सभी सर्वोच्च मानकों का ध्यान रखा गया है। आजादी के बाद भारत द्वारा बनाया जाने वाला यह पहला संसद भवन है, जो उच्च तकनीक और वैश्विक मानकों के अनुरूप है। जगह की कमी से जूझ रहे एक सौ साल पुराने संसद भवन के स्थान पर नये संसद-भवन का निर्माण समय की मांग ही नहीं, जरूरत भी थी। इसकी महती आवश्यकता को इसी आधार पर समझा जा सकता है कि जब वर्तमान संसद भवन बन कर तैयार हुआ था, उस समय देश की आबादी 30 करोड़ थी। यह आज 140 करोड़ है। उल्लेखनीय है कि 2026 में परिसीमन के बाद लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों की संख्या बढ़ने वाली है। न केवल उस दृष्टि से, बल्कि अगले 150 वर्षों की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर नये संसद भवन का निर्माण किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रचे जानेवाले इस ऐतिहासिक मौके पर इस भव्य इमारत के बारे में बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

कहा जाता है कि वह पीढ़ी बहुत भाग्यशाली होती है, जिसके दौर में इतिहास बनता है या करवट लेता है। इस लिहाज से भारत की वर्तमान पीढ़ी 1947 में आजादी की हवा में सांस लेनेवाली पीढ़ी से अधिक भाग्यशाली है, क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को नया संसद भवन मिलने की गवाह यही पीढ़ी होने जा रही है। यह मौका बहुत खास है। आजादी के बाद भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक तरह से सबसे बड़ा मौका है, लेकिन इसके उद्घाटन को लेकर जिस तरह से राजनीति हो रही है, वह हमारी संसदीय प्रणाली के लिए सही नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 28 मई को संसद के नये भवन का उद्घाटन करेंगे और कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल इसी बात का विरोध कर रहे हैं कि इस भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री के हाथों नहीं, बल्कि राष्ट्रपति के द्वारा किया जाना चाहिए। कांग्रेस समेत 19 दलों ने उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने की घोषणा की है। इन दलों का कहना है कि मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को नये संसद भवन के उदघाटन करने के संवैधानिक विशेषाधिकार से वंचित कर रही है। प्रसंगवश यह उल्लेख करना जरूरी है कि विरोध करनेवालों में अधिकतर वही दल शामिल हैं, जिन्होंने राष्टÑपति के चुनाव में आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू का विरोध किया था और उन्हें हराने के लिए यशवंत सिन्हा को विपक्ष का उम्मीदवार बनाया था। उस समय उनका आदिवासी प्रेम नहीं उमड़ा था।

देश के लिए ऐतिहासिक पल
बहरहाल, इस सियासत की बात बाद में। पहले नये संसद भवन की बात। देश को नया संसद भवन मिलना कई लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। यह एक अलग मुद्दा है कि देश को नये संसद भवन की जरूरत थी या नहीं, लेकिन जब नया संसद भवन बन कर तैयार हो गया है, तो अब ये बहस बेमानी हो गयी है। नया संसद भवन इस लिहाज से भी बेहद खास हो जाता है कि अब तक संसदीय प्रणाली के तहत विधायिका का काम जिस इमारत से किया जा रहा था, वह इमारत आजादी के पहले की बनी हुई है। उसे हम पर शासन और जुल्म ढानेवाले अंग्रेजों ने बनवाया था। उसी इमारत से अंग्रेज भारतीयों को कुचलने का हर कुचक्र रच रहे थे। यह अलग बात है कि पुराने संसद भवन में भी पैसा और खून-पसीना पूरी तरह से भारत का ही लगा था। लेकिन नये संसद भवन के साथ अब हम उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गये हैं, जिनके पास किसी भी हुकूमत से मिली आजादी के बाद खुद का बनाया हुआ संसद भवन है। यह एक तरह से पूरे देश के लिए गर्व का विषय भी है।

भारतीयता का प्रतीक है यह भवन
नये संसद भवन का उद्घाटन कोई करे, मायने उसका नहीं है। अब ज्यादा मायने यह रखता है कि देश को अपना बनाया हुआ संसद भवन मिल रहा है। लोकतंत्र के प्रतीक के तौर पर यह न तो सरकार का है, न सत्ताधारी पार्टी या फिर विपक्षी दलों का है। ये देश का है, यहां के हर नागरिक का है, यह हम सबकी पहचान से जुड़ा है। हम कह सकते हैं कि आजादी के बाद एक नजरिये से देश के लिए यह सबसे बड़ा मौका है। इसका सीधा संबंध भारतीय लोकतंत्र, संसदीय प्रणाली और देश की पहचान से है। सच्चाई यही है कि 28 मई के बाद भविष्य में यह भवन हमेशा-हमेशा के लिए भारत और भारतीयता की पहचान के तौर पर देखा जायेगा। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार और विपक्ष दोनों को ही इस पर सकारात्मक रुख अपनाना चाहिए।

क्या खास है नये संसद भवन में
इस नये संसद भवन में लोकसभा सांसदों के लिए लगभग 888 और राज्यसभा सांसदों के लिए 384 से अधिक सीटें हैं। इसमें दोनों सदनों के साझा सत्र में 1272 सांसदों से भी अधिक के बैठने की व्यवस्था है। दर्शक दीर्घा और गणमान्य अतिथियों के बैठने के लिए भी सीटों की संख्या बढ़ायी गयी है। कई बार विदेशी प्रतिनिधिमंडल या राजनयिक भी संसद की कार्यवाही देखने के लिए आमंत्रित किये जाते हैं। स्वाभाविक है कि समुन्नत, सुव्यवस्थित और आधुनिकीकृत, तकनीक-सिद्ध संसद भवन उनके मन में भारत की बेहतर छवि बनायेगा। इस लिहाज से नया संसद भवन भारत के सामर्थ्य को प्रतिबिंबित कर रहा है।
नये संसद भवन को त्रिकोण के आकार में डिजाइन किया गया है। इसे मौजूदा परिसर के पास ही बनाया गया है। साढ़े 64 हजार वर्गमीटर में बने इस नये संसद भवन की लागत लगभग 971 करोड़ रुपये है। इसे चार मंजिला रखा गया है। इसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा सभापति, प्रधानमंत्री और सांसदों के आने-जाने के लिए सुगमता की दृष्टि से चार प्रवेश द्वार हैं। इसे पेपरमुक्त और प्रदूषणमुक्त रखे जाने का प्रयास किया जा रहा है। इसमें बिजली की 30 प्रतिशत कम खपत होगी। नये संसद भवन में हर सांसद के लिए उनका एक कार्यालय भी है। गौरतलब है कि मौजूदा संसद भवन में सभी सांसदों के लिए कार्यालय का अभाव है। फिलहाल सभी सांसदों की सीट के सम्मुख केवल एक माइक लगी होताी है, पर नयी व्यवस्था में उनकी सीट के सामने आंकड़ों और जानकारियों से लैस टेबलेट की सुविधा प्रदान की गयी है।
नये संसद भवन के निर्माण में भारत के वास्तुकार, भारत का धन और भारत का श्रम लगा है। इसके वास्तुकार बिमल पटेल हैं, जो इस समय के मशहूर और जाने-माने आर्किटेक्ट हैं। इसके निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से दो हजार इंजीनियर और कामगार तथा परोक्ष रूप से लगभग नौ हजार कामगार जुड़े। एक प्रकार से यह नये और आत्मनिर्भर भारत का गौरवशाली प्रतीक है। यह जन-मन की आशाओं और आकांक्षाओं का केंद्रबिंदु है। निर्माण चाहे भौतिक भवनों या वस्तुओं का ही क्यों न हो, वह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को प्रेरित और उत्साहित करता है, वह इरादों और हौसलों को परवान चढ़ाता है, उम्मीदों और सपनों को पंख देता है, वह राष्ट्र की सामूहिक चेतना और संकल्प शक्ति को मजबूत बनाता है। नया संसद भवन भारत की लोकतांत्रिक यात्रा का गौरवशाली कीर्तिस्तंभ है। यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा। यह राष्ट्र के मस्तक का जगमगाता रत्नजड़ित मान-मुकुट है। प्रधानमंत्री के शब्दों में ‘नया संसद भवन नूतन और पुरातन के सह-अस्तित्व का उदाहरण है। लोकतंत्र के इस मंदिर की वास्तविक प्राण प्रतिष्ठा इसमें चुन कर आये जन प्रतिनिधियों के आचार-विचार-व्यवहार से होगी। नये संसद-भवन का उद्घाटन निश्चित ही नये संकल्पों के उद्घाटन का अवसर बनेगा। इस अवसर पर हर नागरिक को ‘भारत प्रथम, राष्ट्र सर्वोपरि’ का संकल्प लेना चाहिए। संसद का नया भवन हम सबको नया आदर्श गढ़ने और जीने की प्रेरणा देगा। संवाद और सहमति का दूसरा नाम ही लोकतंत्र है। कहना और सुनना दोनों सतत चलते रहना चाहिए।’
इस इमारत में देश के अलग-अलग हिस्सों की मूर्तियां और आर्ट वर्क बनाये गये हैं। इसके अलावा इसमें देश में पूजे जानेवाले जानवरों की झलकियां भी दिखायी जायेंगी। इनमें गरुड़, गज, अश्व और मगर शामिल हैं। इसके अलावा भवन में तीन द्वार बनाये गये हैं, जिन्हें ज्ञान द्वार, शक्ति द्वार और कर्म द्वार नाम दिया गया है। इस इमारत में भारत के आधुनिक बनने तक के सफर की झलक भी देखने को मिलेगी।
इस इमारत में एक भव्य संविधान हॉल, एक लाउंज, एक लाइब्रेरी, डाइनिंग हॉल और पार्किंग की जगह भी होगी। लोकतंत्र के मंदिर के निर्माण के लिए देशभर से अनोखी सामग्रियों को जुटाया गया है, जो एक भारत श्रेष्ठ भारत की सच्ची भावना को दर्शाता है।
पूरे भारत की सामग्री का इस्तेमाल हुआ है नये संसद भवन में
नये संसद भवन में लगी सागौन की लकड़ी नागपुर से मंगायी गयी है।
राजस्थान के सरमथुरा का सैंडस्टोन (लाल और सफेद) का इस्तेमाल किया गया है।
यूपी के मिर्जापुर की कालीन इसके फ्लोर पर लगायी गयी है।
अगरतला से मंगवायी गयी बांस की लकड़ी इसके फर्श पर लगायी गयी है।
राजस्थान के राजनगर और नोएडा से स्टोन जाली वर्क्स लगाये गये हैं।
अशोक प्रतीक को महाराष्ट्र के औरंगाबाद और जयपुर से मंगवाया गया है।
संसद में लगा अशोक चक्र इंदौर से लाया गया है।
इसके अलावा कुछ फर्नीचर मुंबई से मंगाये गये हैं।
जैसलमेर से लाख लाल मंगवाया गया है।
राजस्थान के अंबाजी से अंबाजी सफेद संगमरमर खरीदा गया है।
केशरिया ग्रीन स्टोन उदयपुर से मंगवाया गया है।
पत्थर की नक्काशी का काम आबू रोड और उदयपुर से लिया गया है।
कुछ पत्थर राजस्थान के कोटपुतली से भी मंगवाये गये हैं।
एम-सैंड को हरियाणा के चरखी दादरी, फ्लाई ऐश ब्रिक्स को हरियाणा और यूपी से खरीदा गया है।
ब्रास वर्क और प्री-कास्ट ट्रेंच अहमदाबाद से लाया गया है, जबकि एलएस/आरएस फॉल्स सीलिंग स्टील संरचना दमन और दीव से ली गयी है।

उद्घाटन पर राजनीति परिपक्वता की निशानी नहीं
जहां तक रही बात राजनीति की, तो जब यह भवन बन ही गया है और यह किसी पार्टी या सरकार का भवन नहीं है, बल्कि देश का है, तो ऐसे में इसके उद्घाटन को लेकर राजनीति परिपक्व लोकतंत्र का परिचायक कतई नहीं हो सकती। चाहे सरकार हो या फिर सत्ताधारी दल भाजपा और दूसरी तरफ कांग्रेस, टीएमसी, समाजवादी पार्टी, जदयू, राजद, एनसीपी समेत कई विपक्षी दल। इन सभी को यह बेहतर तरीके से समझना चाहिए कि कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं, जिन पर राजनीति की बजाय एकजुटता होनी चाहिए, ताकि वैश्विक पटल पर यह संदेश जाये कि हम देश और देश से जुड़े गौरव के प्रतीक पर एकजुट होना भी जानते हैं।
यह बात सही है कि प्रधानमंत्री नये संसद भवन का उद्घाटन करने जा रहे हैं और इसके लिए उन्हें लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की ओर से आमंत्रित किया गया है। दरअसल, संसद परिसर की देखरेख की जिम्मेदारी लोकसभा सचिवालय के तहत आती है। इसी नजरिये से सैद्धांतिक तौर से लोकसभा स्पीकर ही इस भवन के उद्घाटन के लिए किसी को भी आमंत्रित कर सकते हैं।

लोकतंत्र में संसद सिर्फ एक इमारत नहीं
जहां तक बात है राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से नये संसद भवन का उद्घाटन नहीं कराया जाना, या फिर उन्हें इस समारोह में नहीं बुलाया जाना, तो यह समझना होगा कि भारत और यहां के लोगों को नया संसद भवन मिल रहा है, नयी संसद नहीं। लोकतंत्र के तहत संसदीय प्रणाली में संसद सिर्फ एक इमारत का नाम नहीं होता है। यह लोकतंत्र का प्रतीक होने के साथ देश के हर नागरिक की भावनाओं को समेटे हुए एक व्यवस्था का सर्वोच्च प्रतीक भी है।

राष्ट्रीय गौरव से जुड़ा है मुद्दा
ये सब संविधान, सिद्धांत और व्यवहार की बातें हैं, लेकिन जब देश को नया संसद भवन मिल रहा हो, तो फिर सरकार के साथ ही तमाम विपक्षी दलों को यह जरूर सोचना चाहिए कि मुद्दा राष्ट्रीय गौरव से जुड़ा है। इस दृष्टिकोण से दोनों को ही समझदारी दिखाने की जरूरत है।

विपक्षी पार्टियों को भी राजनीति से बचना होगा
इसके साथ ही कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को भी यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि नये संसद भवन का उद्घाटन कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है। अगर राष्ट्रपति की जगह प्रधानमंत्री ही उस इमारत का उद्घाटन कर रहे हैं, तो भी यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जिस पर राजनीतिक नजरिये से लाभ-हानि सोच कर रणनीति बनायी जाये। ऐसे भी इस देश में कई मौके आये हैं, जब किसी इमारत के उद्घाटन में बहुत तरह की ऊंच-नीच देखने को मिली है और यह भी सोचना होगा कि उद्घाटन का अधिकार कोई संवैधानिक अधिकार नहीं होता। सैद्धांतिक तौर से यह किसी संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन भी नहीं है। यह तो बस व्यवहार की बात है।
कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की ओर से जब यह कहा जाता है कि देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति को दरकिनार किया जा रहा है, तो यहीं पर ये सारे दल एक बड़ी गलती कर दे रहे हैं। अगर द्रौपदी मुर्मू की बजाय अभी कोई और राष्ट्रपति होता या होती, जिनका संबंध आदिवासी समुदाय से नहीं होता, तो क्या यह उनके लिए मुद्दा नहीं रहता। अगर उनको इसे मुद्दा बनाना ही था, तो राष्ट्रपति पद को लेकर बनाते, उसमें आदिवासी और महिला शब्दों का घालमेल तो यही दिखाता है कि मकसद सिर्फ राजनीतिक नफा-नुकसान है। कांग्रेस समेत जिन 19 दलों ने नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने का फैसला किया है, उनमें वे सारे दल ही शामिल हैं, जो एक तरह से 2024 के चुनाव में भाजपा के खिलाफ देशव्यापी स्तर पर विपक्षी गठबंधन बनाने की चाह रखते हैं। इस बहिष्कार से बीजद के नवीन पटनायक, वाइआरएस कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू और शिरोमणि अकाली दल ने अपने आप को दूर रखा है, यानी ये दल समारोह में शामिल होंगे। मायावती भी समारोह में शामिल होंगी।

संसद सिर्फ सरकार से नहीं बनती है
अब जरा सोचिये कि संसद सिर्फ सरकार या सत्ताधारी दल से नहीं बनती है। इसके संगठन और सार्थकता में विपक्षी दलों की भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अब यह कैसा लगेगा कि देश को नया संसद भवन मिल रहा है, देश को नये संसद भवन के तौर पर लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रतीक मिल रहा है और उस मौके से ज्यादातर विपक्षी दल गायब हैं या बहिष्कार मुहिम में शामिल हैं। देश के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय जगत में भी यह सही संदेश नहीं होगा।

विपक्ष को फायदा से ज्यादा नुकसान ही होगा
विपक्षी दलों को एक बात समझनी चाहिए कि नया संसद भवन सिर्फ सरकार का नहीं है। यह देश के हर नागरिक की तरह उनका भी है, देश के तमाम दलों का है। अगर कांग्रेस और उनके साथ बाकी कई दल सिर्फ चुनावी नजरिये से संसद भवन जैसे मसले को मुद्दा बना रहे हैं, तो ये सारे दल भूल कर रहे हैं। भारत में लोगों के लिए भावनात्मक मुद्दे ज्यादा अहमियत रखते हैं और ज्यादातर लोग यही मान कर चलेंगे कि देश को नया संसद भवन मिल रहा है, यह राष्ट्रीय अस्मिता का विषय है। ऐसे में कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल एक तरह से अपना ही नुकसान कर रहे हैं और भाजपा का इससे कोई नुकसान नहीं, बल्कि बहुत ज्यादा फायदा ही होनेवाला है.

राष्ट्र के गौरव का प्रतीक है नया संसद भवन
लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले सभी भारतीयों की आंखों में आज भी वह चित्र जीवंत और सजीव होगा, जब 26 मई, 2014 को पहली बार संसद भवन में प्रवेश करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसकी ड्योढ़ी (प्रवेश द्वार) पर शीश नवा कर लोकतंत्र के इस महान मंदिर के प्रति गहरी श्रद्धा व्यक्त की थी। वह श्रद्धा स्वाभाविक थी। अभाव और संघर्षों में पला-बढ़ा, समाज के अत्यंत निर्धन-वंचित-साधारण पृष्ठभूमि से आनेवाला व्यक्ति भी यदि देश के सर्वोच्च पद तक का सफर तय कर पाता है, तो निश्चित रूप से यह भारत की महान संसदीय परंपरा और सुदृढ़ लोकतंत्र का प्रत्यक्ष प्रमाण है और संसद भवन उसका साक्षात-मूर्तिमान स्वरूप है। हमारी संसद न जाने कितने गुदड़ी के लालों के असाधारण कृतित्व और व्यक्तित्व की साक्षी रही है। इसीलिए लोकतंत्र में विश्वास रखनेवाले सभी नागरिकों के लिए वह किसी पवित्र तीर्थस्थल से कम नहीं। इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि सात दशक से अधिक की यात्रा में छिटपुट बाधाओं और आपातकाल जैसे झंझावातों को सफलतापूर्वक पार कर भारत का लोकतंत्र और भी मजबूत और परिपक्व हुआ है। 1947 से लेकर अब तक ऐसे अनेकानेक क्षेत्र हैं, जिनमें भारत ने तरक्की की नयी-नयी इबारतें लिखी हैं। समय के साथ-साथ देश की तस्वीर और तकदीर, दोनों बदली है। भारतीय लोकतंत्र न केवल विश्व का सबसे प्राचीन और विशाल लोकतंत्र है, अपितु यह सबसे क्रियाशील और जीवंत लोकतंत्र भी है। लिच्छवी गणराज्य के वैशाली जनपद से प्रारंभ हुई हमारी लोकतांत्रिक यात्रा निर्बाध जारी है।

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