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वोट का अपमान कर खुद अपमानित हुए हैं जयंत सिन्हा
10 वर्ष के छोटे से राजनीतिक करियर में अक्सर विवादों में घिरते रहे जयंत

हजारीबाग के निवर्तमान सांसद और भाजपा के सबसे शिक्षित नेताओं में से एक जयंत सिन्हा एक बार फिर विवादों में घिर गये हैं। उन्होंने 20 मई को संपन्न चुनाव में अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं किया और इस तरह लोकतांत्रिक देश एक वोट से वंचित रह गया। जयंत सिन्हा का वोट नहीं देना वास्तव में उनके द्वारा भारतीय लोकतंत्र की पीठ में छुरा घोंपने के समान है। इतना ही नहीं, उन्होंने उस भाजपा का भी अपमान किया, जिसने उन्हें फर्श से उठा कर अर्श पर बैठाया, 10 साल तक लोकसभा में हजारीबाग के 20 लाख मतदाताओं की नुमाइंदगी का मौका दिया और दो मंत्रालयों में काम करने की प्रतिष्ठा दी। उन्होंने हजारीबाग में रहते हुए वोट नहीं डाला और इसका कारण पार्टी के प्रति उनकी नाराजगी बतायी जा रही है, क्योंकि इस बार उन्हें पार्टी ने टिकट नहीं दिया। जयंत सिन्हा को पार्टी ने कारण बताओ नोटिस जारी कर दो दिन के भीतर जवाब मांगा है, लेकिन वोट नहीं देने का उनका फैसला राजनीति से अधिक नैतिक है। जयंत सिन्हा ने उस वोट के महत्व को नकारा है, जिसकी ताकत से वह 10 साल तक देश की सबसे बड़ी पंचायत के सदस्य बने रहे और अब जीवन भर पेंशन लेंगे। जयंत सिन्हा ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने अपने छोटे से राजनीतिक करियर में कई मुकाम भी हासिल किये और कई विवादों में घिरे। अपने पिता और दिग्गज राजनीतिज्ञ यशवंत सिन्हा से अलग हट कर उन्होंने अपने किस्म की राजनीति की, लेकिन उन पर ‘खास’ होने का ठप्पा हमेशा लगा रहा। इस बार वोट नहीं देने के कारण विवाद में फंसे जयंत सिन्हा के इस फैसले के कारण और पड़नेवाले संभावित असर का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

हजारीबाग के निवर्तमान सांसद और भाजपा के सबसे पढ़े-लिखे नेताओं में शुमार जयंत सिन्हा एक बार फिर चर्चा में हैं। इस लोकसभा चुनाव में पहले ही भारतीय जनता पार्टी उनका टिकट काट चुकी है, अब उन्हें कारण बताओ नोटिस भी जारी किया गया है। जयंत सिन्हा को संगठनात्मक कार्यों और प्रचार में रुचि नहीं लेने के लिए कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। जब से पार्टी ने मनीष जयसवाल को हजारीबाग से अपना लोकसभा उम्मीदवार घोषित किया , तभी से वह पार्टी कार्यों से दूर हो गये। पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा ने पांचवें चरण के मतदान के दौरान सोमवार को हजारीबाग में अपना वोट भी नहीं डाला। उनके इस आचरण से न केवल पार्टी की छवि खराब हुई, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति उनका अविश्वास और निरादर भी सामने आया। मार्च में जयंत सिन्हा ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा व्यक्त की थी और भाजपा नेतृत्व से उन्हें चुनावी राजनीति से मुक्त करने का अनुरोध किया था। जयंत सिन्हा और उनके पिता यशवंत सिन्हा ने 1998 से 26 वर्षों से अधिक समय तक हजारीबाग संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया है।

पार्टी से नाराज हैं जयंत सिन्हा
जयंत सिन्हा ने वोट नहीं देने का फैसला क्यों किया, यह तो वही बता सकते हैं, लेकिन राजनीतिक हलकों में यह चर्चा आम है कि टिकट नहीं मिलने के कारण वह नाराज हैं। इसलिए उन्होंने प्रत्याशी घोषित होने से लेकर अब तक पार्टी की किसी भी गतिविधि में हिस्सा नहीं लिया। यही नहीं, जब उनका बेटा इंडी गठबंधन की रैली में शामिल होकर कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में उतर गया, तब भी उन्होंने अपनी जुबान नहीं खोली। इससे भाजपा को गहरा धक्का लगा। झारखंड में लोकसभा चुनाव में जयंत सिन्हा प्रचार से भी दूर रहे। इससे कई तरह की अटकलें लगायी जाने लगीं, जबकि जयंत सिन्हा के पिता और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने खुल कर भाजपा प्रत्याशी मनीष जायसवाल का विरोध किया। यशवंत सिन्हा वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रह चुके हैं।

जयंत सिन्हा ने लोकतंत्र को धोखा दिया है
जयंत सिन्हा की इस निष्क्रियता और पार्टी के प्रति उपेक्षात्मक दृष्टिकोण की लोग निंदा कर रहे हैं। उनके वोट नहीं देने को लोकतंत्र का धोखा बता रहे हैं। हजारीबाग ही नहीं, पूरे झारखंड में लोग कह रहे हैं कि जिस पार्टी ने जयंत सिन्हा को बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि और पहचान के हजारीबाग से दो-दो बार टिकट देकर सांसद बनाया, उसके साथ ऐसा व्यवहार अनैतिक की श्रेणी में ही आता है। जयंत सिन्हा का पार्टी के प्रति यह व्यवहार यह भी साबित करता है कि वह बहुत बड़े अवसरवादी हैं और पार्टी की नीतियों-सिद्धांतों के प्रति उनके मन में कोई सम्मान नहीं है। जयंत सिन्हा की निंदा के क्रम में लोग बाबूलाल मरांडी का उदाहरण दे रहे हैं, जिन्होंने पार्टी के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया है। लोगों ने कहा कि जयंत सिन्हा का मतदान नहीं करना पार्टी की छवि को खराब कर रहा है। वह सांसद रह चुके हैं। उन्हें कम से कम मतदान में सक्रिय होना चाहिए था। इस तरह का कदम उचित नहीं है। इसका नकारात्मक संदेश जाता है।

इसलिए जयंत सिन्हा को नहीं मिला टिकट
यहां एक सवाल उठना स्वाभाविक है कि जयंत सिन्हा को टिकट नहीं दिये जाने का फैसला भाजपा ने क्यों लिया। दरअसल, जयंत सिन्हा के बारे में भाजपा की आंतरिक रिपोर्ट बहुत अनुकूल नहीं थी। पिछले 10 साल में जयंत सिन्हा द्वारा किये गये काम से स्थानीय नेता और कार्यकर्ता संतुष्ट नहीं थे। उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि जयंत सिन्हा कभी आम लोगों से नहीं मिलते हैं। यहां तक कि पार्टी के छोटे कार्यकर्ता भी उन तक पहुंच नहीं पाते हैं। भाजपाइयों के अलावा आम लोगों की भी शिकायत थी कि जयंत सिन्हा ‘खास’ हो गये हैं और कुछ लोगों से घिरे होते हैं।

विवादों में भी रहे जयंत सिन्हा
नवंबर 2017 में पैराडाइज पेपर्स में जयंत सिन्हा का नाम आया था। पैराडाइज पेपर्स ने उन फर्मों का खुलासा किया, जो अमीर लोगों को कर चोरी करने में मदद करती है। हालांकि जयंत इन आरोपों से इनकार करते रहे। इंफोसिस ने 2016 में उनकी पत्नी पुनीता कुमार सिन्हा को बोर्ड में स्वतंत्र निदेशक नियुक्त किया था, जिस पर काफी विवाद हुआ था। कोरोना के दौरान आम लोगों से दूर रहने और उन्हें छूने तक से परहेज करने का आरोप भी जयंत सिन्हा पर लगा। इसके अलावा हजारीबाग के भाजपा कार्यालय अटल भवन को अपने नाम करा लेने का आरोप भी जयंत सिन्हा के समर्थकों पर लगा था। भाजपा के भीतर भी जयंत सिन्हा कभी खुद को फिट नहीं कर सके। पार्टी के कार्यक्रमों से अलग रहने और केवल खास अवसरों पर ही मौजूद रहने के कारण उनकी लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा था।

जयंत सिन्हा का राजनीतिक करियर
जयंत सिन्हा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली सरकार में मंत्री रह चुके हैं। उनके परिवार का भाजपा से पुराना रिश्ता है। उनके पिता यशवंत सिन्हा भी भाजपा के दिग्गज नेता रहे हैं। यशवंत सिन्हा 1999 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विदेश मंत्री और वित्त मंत्री रहे थे। हालांकि साल 2013 में नरेंद्र मोदी को पीएम चेहरा घोषित करने पर वह भाजपा के बागी हो गये थे। पिता के बागी होने के बावजूद जयंत सिन्हा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साथ नहीं छोड़ा। मोदी सरकार में उन्हें केंद्र में वित्त और नागरिक उड्डयन मंत्रालयों में राज्यमंत्री के तौर पर काम करने का मौका मिला था। वित्त राज्यमंत्री रहते जयंत सिन्हा ने कई सुधारों पर काम किया। पीएम मुद्रा योजना, सामाजिक सुरक्षा प्लेटफॉर्म जैसे सार्वजनिक उपक्रमों को चलाने में मदद की।

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