विशेष
सत्तारूढ़ झामुमो ने इस मुद्दे को लेकर आर-पार की लड़ाई लड़ने का मन बनाया
कांग्रेस सड़क पर उतरी, पर भूल गयी कि 1961 में उसने ही इसे खत्म किया था
भाजपा-आजसू के पास अब इस मुद्दे की खिलाफत का कोई बहाना नहीं बचा
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड की सियासत एक बार फिर गरमा गयी है। इस बार मुद्दा आदिवासियों के लिए अलग सरना धर्म कोड बना है। राज्य में सत्तारूढ़ झामुमो ने इस मुद्दे पर अपना स्टैंड साफ करते हुए इस मांग का समर्थन किया है। उधर सत्ता में लगभग बराबर की साझीदार कांग्रेस तो सड़क पर उतर गयी है, लेकिन वह यह भूल गयी है कि 1961 में सरना धर्म कोड को उसकी सरकार ने ही खत्म किया था। झारखंड की पांचवीं विधानसभा में अलग सरना धर्म कोड को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया जा चुका है और फिलहाल यह मुद्दा केंद्र के पास लंबित है। ऐसे में झारखंड भाजपा और उसकी सहयोगी आजसू के पास इसका विरोध करने का कोई बहाना नहीं बचा है। हालांकि भाजपा घोषित तौर पर इस मुद्दे पर अपना स्टैंड साफ नहीं कर रही है। इस तरह यह मुद्दा बड़ी अजीब स्थिति में फंसा हुआ लग रहा है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, जिन्हें हाल ही में झामुमो के महाधिवेशन में पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया, सरना धर्म कोड को लेकर इतने गंभीर इसलिए हैं, क्योंकि यह एक मुद्दा उन्हें राजनीतिक तौर पर उस ऊंचाई पर स्थापित कर देगा, जहां कोई दूसरा नेता अब तक नहीं पहुंचा है। जानकार कहते हैं कि यदि यह मुद्दा सुलझ गया, तो हेमंत आदिवासियों के सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित हो जायेंगे। झारखंड में सरना धर्म कोड को लेकर छिड़ी सियासत की पृष्ठभूमि में क्या है यह पूरा मुद्दा और क्या है दलों की राय, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

झारखंड की राजनीति के केंद्र में इन दिनों सरना धर्म कोड का मुद्दा छाया हुआ है। राज्य में सरना धर्म कोड की मांग लंबे समय से चली आ रही है, जो अब राज्य की राजनीति की धुरी बनती जा रही है। यह मुद्दा न केवल आदिवासी समुदाय की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान से जुड़ा है, बल्कि यह एक बड़े वोट बैंक को प्रभावित करने वाला राजनीतिक हथियार भी बन गया है। झारखंड की लगभग 27 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है, जो मुख्य रूप से खुद को सरना धर्म के तहत मानती है। यह प्रकृति पूजा पर आधारित है और इसे मानने वाले संताली, मुंडा, हो, और कुड़ुख समेत अन्य समुदाय पेड़, पहाड़, नदियों और जंगलों की पूजा करते हैं। वर्ष 2020 में झारखंड विधानसभा ने सर्वसम्मति से सरना आदिवासी धर्म कोड को जनगणना में शामिल करने का प्रस्ताव पारित किया था, जिसे केंद्र सरकार को मंजूरी के लिए भेजा गया। केंद्र द्वारा इस पर कोई ठोस निर्णय न लेने से यह मुद्दा और गर्म हो गया है और राज्य में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व वाला गठबंधन इसे लेकर राजनीतिक तौर पर हावी है।

राजनीतिक रणनीति और दलों की भूमिका
झारखंड मुक्ति मोर्चा ने सरना धर्म कोड को लागू करने की मांग को अपने राजनीतिक एजेंडे का केंद्र बनाया है। झामुमो ने केंद्र सरकार को अल्टीमेटम दिया है कि जब तक सरना आदिवासी धर्म कोड लागू नहीं होता, तब तक राज्य में जनगणना नहीं होने दी जायेगी। पार्टी ने इसे लेकर राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन भी किया है। इसमें सभी जिला मुख्यालयों पर धरना दिया गया। यह रणनीति आदिवासी समुदाय में अपनी पैठ मजबूत करने और सत्तारूढ़ गठबंधन की छवि को आदिवासी हितों के रक्षक के रूप में स्थापित करने की कोशिश है।

कांग्रेस भी इस मुद्दे पर सक्रिय है और इसे अपने चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा बना चुकी है। यह कदम आदिवासी वोट बैंक को लुभाने के साथ-साथ गठबंधन सहयोगी झामुमो के साथ तालमेल बनाये रखने का प्रयास है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दिल्ली में पार्टी प्रवक्ताओं और प्रमुख नेताओं की हालिया बैठक में राज्य में सरना धर्म कोड पर फोकस बढ़ाने का निर्देश दिया है। कांग्रेस ने इसे लेकर सड़क पर उतर कर आंदोलन किया है। राजभवन का घेराव भी हो चुका है।

भाजपा भी इस मुद्दे को लेकर झेल रही आरोप
दूसरी ओर भाजपा इस मुद्दे पर दोहरे रवैये का आरोप झेल रही है। भाजपा ने 2014 में यूपीए सरकार के दौरान सरना धर्म कोड की मांग को अव्यावहारिक बताकर खारिज करने का हवाला देते हुए झामुमो और कांग्रेस पर पलटवार किया है। हालांकि 2024 में संपन्न विधानसभा चुनाव में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने वादा किया था कि यदि भाजपा सत्ता में आयी, तो सरना धर्म कोड लागू करेगी। यह बयान आदिवासी वोटों को आकर्षित करने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है, लेकिन पार्टी का अतीत में इस मुद्दे पर अस्पष्ट रुख ने विवाद को जन्म दिया है। पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के मुताबिक सरना धर्म कोड के नाम पर राजनीति करने का ड्रामा कर रही कांग्रेस को कोई याद दिलाये कि अंग्रेजों के जमाने (1871) से चले आ रहे आदिवासी धर्म कोड को 1961 में कांग्रेस की सरकार ने ही हटाया था।

क्या है सरना धर्म कोड
सरना धर्म कोड का उद्देश्य आदिवासियों के सरना धर्म को भारत में एक अलग पहचान दिलाना है। वर्तमान में भारत में छह धर्मों, हिंदू, इस्लाम, इसाइ, सिख, बौद्ध और जैन को धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता देने वाले कानून हैं। नवंबर 2020 में झारखंड सरकार ने विधानसभा के विशेष सत्र में आगामी जनगणना में सरना को एक अलग धर्म के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव पारित कराया। यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ और विपक्षी भाजपा ने भी इसका समर्थन किया, हालांकि उसने सरकार की मंशा पर सवाल उठाया।

झारखंड में हैं सबसे ज्यादा आदिवासी
झारखंड में आदिवासी आबादी बहुत अधिक है और वर्षों से आदिवासी समुदाय खुद को एक अलग समूह के रूप में देखता आया है, जो एक अलग सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक पहचान की मांग करता रहा है। एक अलग संहिता की मांग करने वाले आदिवासी समूहों ने तर्क दिया कि 1951 तक जनगणना में आदिवासियों के लिए एक अलग कॉलम था। इसे 1961 की जनगणना में हटा दिया गया था। 2011 की जनगणना में जो लोग छह मान्यता प्राप्त धर्मों का हिस्सा नहीं थे, उनके पास ‘अन्य’ चुनने का विकल्प था और लगभग 50 लाख लोगों ने ‘अन्य’ कॉलम में खुद को ‘सरना’ के रूप में दर्ज कराया था। इनमें से 41.31 लाख झारखंड से थे, जबकि शेष ओड़िशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से थे।

कांग्रेस ने हटाया था सरना धर्म कोड
अलग सरना धर्म कोड की मांग को लेकर राजभवन का घेराव करनेवाली कांग्रेस यह भूल गयी है कि उसने एक साजिश के तहत खत्म करने की कोशिश 1961 में की। ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि 1951 की जनगणना के समय सरना धर्म को लेकर अलग कोड था, लेकिन 1961 में इसे हटा दिया गया। दरअसल जनगणना के समय जो प्रपत्र भरा जाता है, उसमें एक कॉलम धर्म का होता है। 1951 तक इस प्रपत्र में अन्य धर्मों के साथ सरना का भी उल्लेख था। 1961 में इस कॉलम में केवल सात धर्म रखे गये। सरना धर्मावलंबियों को हिंदू बताया गया और इस तरह प्रकृति पर आधारित इस धर्म के अस्तित्व को सरकारी दस्तावेज में खत्म कर दिया गया।

मुद्दा क्यों बन रहा हॉट केक
झारखंड में आदिवासी समुदाय एक बड़ा वोट बैंक है और सरना धर्म कोड का मुद्दा सभी प्रमुख दलों के लिए इसे अपने पक्ष में करने का अवसर प्रदान करता है। झामुमो और कांग्रेस की आक्रामक रणनीति से आदिवासी मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो सकता है। इसके अलावा केंद्र सरकार द्वारा प्रस्ताव पर निर्णय में देरी से झारखंड में असंतोष बढ़ सकता है। यह झामुमो और कांग्रेस को केंद्र की नीतियों पर हमला करने का मौका देगा। भाजपा के लिए यह मुद्दा एक चुनौती है, क्योंकि सरना को अलग धर्म की मान्यता देना उसके हिंदुत्व की विचारधारा से टकरा सकता है। इससे भाजपा को आदिवासी समुदाय और हिंदू मतदाताओं के बीच संतुलन बनाने में कठिनाई हो सकती है।

राज्य की राजनीति में ला सकता है महत्वपूर्ण मोड़
सरना धर्म कोड का मुद्दा झारखंड की राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ ला सकता है। यह आदिवासी समुदाय की पहचान और अधिकारों की लड़ाई के साथ-साथ राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक की रणनीति का हिस्सा बन गया है। झामुमो और कांग्रेस इस मुद्दे को आदिवासी अस्मिता से जोड़कर अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि भाजपा इसे लेकर सतर्क रुख अपनाये हुए है। आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन और राजनीतिक बयानबाजी से झारखंड की सियासत और गर्म हो सकती है। केंद्र सरकार के रुख और जनगणना में सरना कोड शामिल करने के निर्णय पर सभी की निगाहें टिकी हुई हैं।

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