रांची: अन्नदाता कलेश्वर महतो चला गया। चुपचाप। इतना चुपचाप कि उसके पदचाप भी किसी को नहीं सुनाई पड़े। मां, पत्नी और बेटियों को भी आभास नहीं हुआ कि वह जा रहा है। रोज की तरह शनिवार की सुबह वह उठा। हाथ-मुंह धोया। सुबह सात बजे घर से निकल गया। जब बहुत देर तक नहीं लौटा, तो मां-बेटियों को चिंता सताने लगी। इसके बाद भाई उसे खोजने निकला। पत्नी बेटियों संग मायके गयी हुई थी। दिन के ग्यारह बजे के आसपास गांव के बगल में महुआ के पेड़ पर उसे लटकते पाया गया। घर में कोहराम मच गया। मां रमनी देवी की सांसें थम गयीं। पत्नी मनोरमा देवी आनन-फानन में ससुराल से लौटी और पछाड़ खाकर गिर पड़ी। असमय पिता की साया सर से उठने के कारण बेटियां प्रीति और प्रिया सुबकने लगीं। गांव के कुछ लोगों ने मिल कर शव को उतारा। घर लाये। सीने में दर्द को छिपा उसके दाह संस्कार की फिक्र की। कलेश्वर नहीं रहा, यह सूचना पाकर भाई बालेश्वर आये। पचास-पचास रुपये आपस में एकत्र किया। कफन खरीदा। लकड़ी एकत्र की। अर्थी सजायी। उसे कंधे पर उठाया और राम नाम शत है बोलते हुए गांव के बाहर ले गये और नदी किनारे दाह संस्कार कर दिया।
कलेश्वर लालची नहीं था। वह स्वार्थी भी नहीं था। वह विषम परिस्थितियों में समय के थपेड़ों से लड़ना जानता था। उसे सामाजिक दायित्व के बारे में भी पता था। पिठोरिया में उसकी गिनती प्रगतिशील किसान के रूप में होती थी। कृषि कार्य का वह ज्ञाता था। पढ़ा-लिखा भी। ग्रेजुएशन किया था उसने। वह किसानों को कृषि की जानकारी देता था। वह खुद भी उन्नत खेती करना चाहता था। उसके पास चालीस-पचास डिसमिल खेती लायक जमीन थी। जमीन तो और थी, लेकिन बंजर। लिहाजा वह पचास डिसमिल जमीन में ही उन्नत खेती करके समाज की मुख्यधारा से जुड़ा रहना चाहता था। वह उसी के सहारे घर-गृहस्थी की गाड़ी खींचना चाहता था। इसी बीच उसके मन में आया कि क्यों नहीं बैंक से लोन लेकर उन्नत खेती की जाये और घर परिवार की गाड़ी को रफ्तार दी जा जाये। वह पिठोरिया के बैंक आॅफ इंडिया शाखा में गया। यह 2010-11 की बात है। उसने बैंक से लोन लिया। उसे लौटा दिया। फिर पत्नी के नाम पर लोन लिये। 40 हजार। राशि 62 हजार हो गयी। कर्ज लौटाने की चिंता उसे सता रही थी। परिजन कह रहे हैं कि वही लोन उसकी इहलीला खत्म करने का कारण बना।
कलेश्वर के घर से आत्महत्या के बारे में एक नोट मिला। हालांकि उस पर जो समय लिखा गया है, वह कई सवाल छोड़ता है। नोट में लिखा है: बैंक का लोन और खराब फसल का दर्द अब सहा नहीं जाता। वह जा रहा है। पुलिस प्रशासन घरवालों को परेशान न करे। उसने परिजनों को यह ढांढ़स भी बंधाया कि उसकी आत्मा शरीर त्याग रही है। वह फिर जन्म लेगा। कुछ शब्दों में लिखा गया यह पत्र बहुत कुछ कहता है। कलेश्वर ने एक गाय पाली थी। वह पांच किलो दूध देती थी। रविवार को उस गाय को भी पता चल गया कि उसका मालिक नहीं रहा। उसकी आंखों से पानी गिरने लगा। पत्नी उसे दुहने गयी। मालिक के बिछुड़ने की पीड़ा के कारण गाय ने सिर्फ एक किलो दूध दिया। गाय के दूध से कलेश्वर अपनी आर्थिक तंगी कम करने की कोशिश करता था। पत्नी कहीं-कहीं काम करके अन्न जुटाती थी। चूंकि कलेश्वर अन्नदाता था, इसलिए वह स्वाभिमानी था। उसने अपनी गरीबी को सहा। तंगी से लड़ता रहा। कई बार परिवार भूखे पेट सो गया, लेकिन अपना दर्द किसी से नहीं बांटा। वह जज्बाती था, इसीलिए शायद यह मानता था कि सुख-दुख तो इंसान की जिंदगी के हिस्से हैं। दुख के बारे में किसी को क्या कहना। उसी के बाद तो सुख आयेगा। इसीलिए वह घरवालों को भी कहे बिना चला गया।
परिजनों के अनुसार अन्नदाता कलेश्वर को यह भान था कि जिस किसान पर देश गुमान करता है। जो किसान दूसरों का पेट भरता है, वह भला कैसे किसी के आगे हाथ फैलाये। उसने अपनी पीड़ा किसी से नहीं बतायी। गांववालों से नहीं, दोस्त किसानों से नहीं, नेताओं से नहीं, अधिकारियों से नहीं। चाहता तो वह प्रशासनिक तंत्र या किसी दाता के पास जाकर हाथ फैला सकता था और अपनी फांकाकशी को दूर कर सकता था, लेकिन जय किसान का अर्थ उसे मालूम था। इसलिए उसने किसी के सामने हाथ नहीं फैलाये।
जो कलेश्वर दूसरे किसानों को उन्नत खेती का गुर बताता था। अन्न उपजाने के तरीके बताता था। यह कहता था कि धरती मां किसी को भूखे नहीं रहने देती, वही कलेश्वर अपनी जिंदगी की जंग हार गया। बैंक से अपनी पत्नी के नाम उसने पैसे तो ले लिये, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण पैसों को वह कैसे चुकाये, यह तरीका उसे नहीं सूझा मौसम ने साथ नहीं दिया। प्रकृति के सहारे खेती पर आश्रित कलेश्वर को किस्मत ने धोखा दे दिया। आशानुरूप फसल नहीं हुई। घर में दो-दो बेटियां, मां, पत्नी और वह यानी कुल पांच। पेट की भूख मिटाने के लिए सुबह-शाम मिला कर तीन किलो चावल या आटा, एक पाव दाल और एक किलो आलू का खर्च। ऊपर से तेल, मिर्च और नून। यह बोझ कलेश्वर उठा नहीं सका।
अन्नदाता कितना स्वाभिमानी होता है, यह कलेश्वर और उसके परिजनों से कोई सीखे। घर के मुखिया के जाने के बाद भी मां, पत्नी और बेटियों ने लोगों को मना किया कि उनके दुख के बारे में किसी को नहीं बताया जाये। शनिवार को किसी को नहीं बताया। रविवार को कुछ पत्रकारों को यह पता चला। वे उसके घर पहुंचे। घरवालों ने मना किया कि अब किसी को बताने से क्या फायदा। हमारा दुख है हम ही सहेंगे। लेकिन पत्रकारों ने अपना फर्ज समझा और बात समाज के सामने आ गयी।
सोमवार को कलेश्वर के घर पर लोगों का तांता लगा था। कम से कम मीडिया के पचास साथी वहां पहुंचे थे। नेता भी वहां पहुंच रहे थे। उसके घर खुद के एक दर्जन से ज्यादा मेहमान आये थे। जब यह संवाददाता उसके घर के अंदर गया, तो दंग रह गया। घर के कोने में पड़ी हांडियों में किसी में न तो गेहूं का एक दाना था और न चावल। चूल्हे पर एक बड़ा तसला में भात पक रहा था और एक में दाल। कद्दू की सब्जी बनाने की तैयारी हो रही थी। कलेश्वर की बहनों ने बताया कि बाबू हम लोगों ने आपस में सौ-सौ रुपये जमा कर बच्चों को पिठोरिया भेजा और चावल दाल मंगाया। दाह-संस्कार के बाद की रश्म तो निभानी पड़ेगी। मैं अवाक रह गया। इतनी गरीबी और कोई शिकायत नहीं। कलेश्वर के जाने का दर्द तो परिवार में है, लेकिन उससे बड़ी चिंता यह कि समाज की रश्म कैसे निभायी जाये। हित-कुटुंब को कैसे न्योता दिया जाये। उसकी आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध तो करना ही पड़ेगा। किसी ने मदद नहीं की, तो श्राद्ध के लिए उसकी मां और पत्नी कर्ज के बोझ में दब जायेंगी। सोमवार को कलेश्वर की पत्नी की बड़ी चिंता यह भी थी कि बैंक का लोन कैसे चुकेगा। वह अपना पास बुक दिखा रही थी, जिसमें यह उद्धृत था कि 2010 में उसने लोन लिया था।
कलेश्वर अगर अन्नदाता नहीं रहता, इमानदार नहीं रहता और परिवार के लोग सीधे-साधे और निष्कपट नहीं होते, तो अब तक यह मुद्दा आसमान छू गया होता। लेकिन धन्य हैं कलेश्वर की मां जो नहीं चाहतीं कि लोग हंगामा करें। इसमें वह किसी का दोष नहीं मानतीं। यह इस बात का उदाहरण है कि किसान बड़ा से बड़ा दुख सह लेता है, मार झेल लेता है, लेकिन उफ तक नहीं करता। सरकार को इस परिवार की मदद तो करनी ही चाहिए। यह सोचना चाहिए कि कर्ज का क्या किया जाये। उसकी बेटियों के बारे में भी विचार होना चाहिए। सोमवार की सुबह बीडीओ वहां गये थे, लेकिन परिवार को किसी तरह की मदद नहीं मिली थी। हमें झारखंड में बिना मांगे मदद की परंपरा कायम करनी चाहिए। इसमें प्रशासन के साथ-साथ समाज के हाथ भी मदद को उठने चाहिए, यही कलेश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। देर शाम उसकी आत्महत्या पर जांच टीम ने संदेह जताया है। संदेह के कारण भी हैं, फिर भी परिवार गरीब है, मदद तो मिलनी ही चाहिए।