क्या आपने किसी ऐसे राज्य के बारे में सुना है, जहां की सरकारी मशीनरी केवल सलाहकारों और बाहरी एजेंसियों की नियुक्ति करती हो और उस राज्य की सफाई व्यवस्था से लेकर उद्योग और व्यापार तक की नीतियां कंसल्टेंट तय करते हों। यकीनन आपने ऐसा नहीं सुना होगा, लेकिन झारखंड में पिछले 20 साल में यही होता रहा। तमाम संसाधन और अधिकारियों-कर्मचारियों की फौज उपलब्ध रहने के बावजूद पिछले 20 साल में झारखंड सरकार ने अपना सारा काम बाहरी एजेंसियों और कंसल्टेंट कंपनियों को दे दिया। झारखंड पर यह शिकंजा इतना मजबूत हो गया कि इन कंपनियों के खिलाफ न विधायिका ने आवाज उठायी और न कार्यपालिका ने। एकाध विधायक ने आवाज उठायी भी, तो उसे दबा दिया गया। अब, जब हेमंत सरकार ने ऐसी कंसल्टेंट कंपनियों को बाहर निकालना शुरू किया है, तब पता चल रहा है कि इन कंपनियों ने इतने सालों में झारखंड के खजाने को जी भर कर चूसा है। किसी ने डीपीआर बनाने के नाम पर, तो किसी ने निवेशकों को आमंत्रित करने के नाम पर। इतना ही नहीं, झारखंड में वैसे काम भी बाहरी एजेंसियों को दे दिये गये, जो स्थानीय स्तर पर आसानी से किये जा सकते थे। पार्किंग शुल्क वसूलने से लेकर सफाई व्यवस्था तक और बिजली बिल तैयार करने से लेकर कर निर्धारण का काम निजी हाथों में सौंप दिया गया। आखिर झारखंड में ऐसा क्यों हुआ और कैसे निजी कंपनियों ने यहां अपनी समानांतर व्यवस्था कायम कर ली, इसका विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

दो दिन पहले जब हेमंत सोरेन सरकार ने उद्योग विभाग में सलाहकार के रूप में काम कर रही एजेंसी अर्नस्ट एंड यंग को निकाल बाहर किया, तब यह जानकारी सामने आयी कि यह कंपनी पिछले पांच साल से हर महीने 30 लाख रुपये सरकार से ले रही थी। इस भारी-भरकम रकम के एवज में कंपनी ने झारखंड को क्या दिया, यह तो अब तक पता नहीं है, लेकिन इसने राज्य के खजाने का 18 करोड़ रुपया ले लिया। कंपनी ने अपने चार-पांच कर्मियों को राज्य सरकार के उद्योग विभाग में बैठा दिया, जहां ये लोग औद्योगिक सुधार के लिए कानूनों में बदलाव के लिए संबंधित विभागों से समन्वय स्थापित करते रहे। समन्वय कितना बना और इसके एवज में दी गयी 18 करोड़ रुपये की रकम का क्या लाभ हुआ, इसका पता तो जांच के बाद ही लग सकता है। अर्नस्ट एंड यंग तो महज एक बानगी है। ऐसी दर्जनों कंसल्टेंट कंपनियां आज भी झारखंड सरकार के हर महीने नियमित रूप से भारी-भरकम वसूल रही हैं। सबसे हैरत की बात यह है कि किस विभाग में कितनी कंसल्टेंट कंपनियां नियुक्त हैं और इन्हें कितनी रकम का भुगतान किया जा रहा है, इसका हिसाब-किताब कहीं नहीं है। यह एक ऐसा जाल है, जिससे झारखंड को मुक्त कराना बड़ी जिम्मेदारी है।
यह तो हुई कंसल्टेंट कंपनियों की कहानी। झारखंड में डीपीआर बनाने के नाम पर भी बड़ा खेल हुआ है। आज से 15 साल पहले 2005 में सिंगापुर की एक कंपनी मैनहर्ट को 24 करोड़ रुपये देकर राज्य की सीवरेज-ड्रेनेज प्रणाली का डीपीआर बनाने के लिए नियुक्त किया गया। इस कंपनी ने क्या डीपीआर बनाया और इस पर कितना काम हुआ, यह तो जांच का विषय है, लेकिन यह तथ्य सार्वजनिक है कि कंपनी अपना पैसा लेकर वापस सिंगापुर चली गयी। कंपनी ने इतना जरूर किया कि झारखंड के कुछ राजनेताओं और अधिकारियों को इसने सिंगापुर की सैर करा दी। सूबे में ऐसे दर्जनों वाकये हैं, जिनमें विकास योजनाओं का हवाला देकर डीपीआर तो बनवाये गये, लेकिन ये सभी तकनीकी या दूसरी वजहों से या तो रद्द हो गये या इन्हें ठंडे बस्तों में डाल दिया गया। आरोप लगा कि इनमें कमीशन का खेल हुआ है। इस खेल में मंत्री से लेकर शीर्ष स्तर के बड़े अधिकारी तक के शामिल होने का आरोप भी लगा। यह खेल शीशे की तरह साफ है। सरकारी विभाग विकास योजनाओं का डीपीआर बनाने के लिए पहले भारी-भरकम पैसा देकर कंसल्टेंट कंपनियों को नियुक्त करते हैं। शर्त के मुताबिक इन कंपनियों को कुल योजना राशि की दो से तीन प्रतिशत फीस कंसल्टेंसी में दी जाती है। शर्त के मुताबिक कंपनियां डीपीआर विभाग को सौंप देती हैं और अपनी फीस लेकर चली जाती हैं। बाद में ये डीपीआर कई कारणों से बेकार घोषित हो जाते हैं और कंसल्टेंसी फीस के रूप में दी गयी राशि बेकार चली जाती है। राज्य में कई बार ऐसा भी हुआ है कि विभागों ने ऐसी योजनाओं का डीपीआर बनाने में जरूरत से ज्यादा तेजी दिखायी, जिनमें आगे चलकर विवाद की संभावना थी। तीन साल पहले रांची के ब्रांबे इलाके में बनने वाले कैंसर अस्पताल का डीपीआर रद्द हो गया। सरकार ने इस अस्पताल के निर्माण के लिए दिल्ली की हॉस्पिटेक प्राइवेट लिमिटेड को 34 लाख रुपये का भुगतान कर दिया। कंपनी ने डीपीआर सरकार को सौंप दिया। बाद में तकनीकी कारणों से इस अस्पताल की स्थापना का प्रस्ताव ही खारिज हो गया। इस तरह सरकार के 34 लाख रुपये बेकार हो गये। इसी तरह का खेल ग्रेटर रांची और दूसरी परियोजनाओं के लिए भी हुआ है। झारखंड की हालत यह है कि सूचना प्रौद्योगिकी, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा, नगर विकास एवं आवास, पथ निर्माण, ऊर्जा, भवन निर्माण जैसे विभाग पूरी तरह कंसल्टेंट कंपनियों की मदद से चल रहे हैं। वर्ष 2017 में सरकार ने विधानसभा में एक सवाल के जवाब में कहा था कि उस वित्तीय वर्ष में भी विभिन्न कंसल्टेंट कंपनियों को एक सौ करोड़ रुपये से ज्यादा का भुगतान किया गया। सरकार की ओर से यह भी बताया गया था कि नगर विकास और आवास विभाग ने साल 2016-17 में शहरी योजनाओं के परामर्श पर करीब 31 करोड़ रुपये खर्च किये हैं। यहां तक कि विभाग को तालाब के सौंदर्यीकरण के लिए भी कंसल्टेंट कंपनी का सहारा लेना पड़ा था। विभाग ने भवन निर्माण, तालाब सौंदर्यीकरण, ड्रेनेज और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन जैसी समेकित परियोजनाओं के लिए डीपीआर बनाने का काम भी निजी कंपनियों को सौंपा, जिस पर 14.50 करोड़ रुपये खर्च हुए। राजधानी रांची में बनने वाले हज हाउस के लिए 1.09 करोड़, अर्बन टावर के लिए 5.31 करोड़, रविंद्र भवन के लिए 2.04 करोड़, सम्मेलन केंद्र के लिए 7.39 करोड़ रुपये परामर्शी को भुगतान किये गये।
इसके अलावा सरकारी निकायों के छोटे-छोटे काम भी निजी हाथों को सौंप दिये गये। शहरों में पार्किंग स्थलों से वसूली से लेकर सफाई व्यवस्था और बिजली बिल बनाने से लेकर कर निर्धारण का काम तक बाहरी कंपनियों को दिया गया। इसमें दिलचस्प यह है कि ये कंपनियां संसाधन भी सरकार का ही इस्तेमाल करती हैं और लाभ खुद कमाती हैं। यदि स्थानीय कंपनियों को ये काम दिये जायें, तो रोजगार की समस्या का काफी हद तक समाधान हो सकता है। कंसल्टेंट कंपनियों का यह खेल झारखंड को बर्बाद कर रहा है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस जाल को तोड़ने की दिशा में कदम बढ़ाया है, तो अब उम्मीद बंधी है कि यह खेल बंद होगा।

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