वैश्विक महामारी कोरोना के कारण देश भर के धर्म स्थल 25 मार्च से ही बंद हैं। इतना ही नहीं, तमाम धार्मिक आयोजनों पर केंद्र सरकार ने रोक लगा रखी है। झारखंड सरकार ने केंद्र द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुरूप राज्य के धार्मिक स्थलों को बंद कर रखा है। पिछले तीन महीने से राज्य में कोई बड़ा धार्मिक आयोजन भी नहीं हुआ है। सरहुल, चैत्र नवरात्र, रामनवमी, ईद और रथयात्रा जैसे बड़े धार्मिक आयोजन इस साल नहीं हुए और लाखों लोगों की आमदनी का बड़ा स्रोत सूख गया। इसके बावजूद लोगों ने कहीं कोई विरोध नहीं किया। लेकिन गोड्डा के सांसद को सबसे बड़ी तकलीफ देवघर के बाबा मंदिर के बंद रहने के कारण है। उन्होंने इस विश्वप्रसिद्ध मंदिर को खोलने के लिए हाइकोर्ट में याचिका दायर की है। वैसे भी भारत में किसी भी नागरिक को अपनी समस्या को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाने का अधिकार है, लेकिन वर्तमान दौर में, जब कोरोना का संक्रमण लगभग बेकाबू तरीके से फैल रहा है, एक सांसद द्वारा किसी मंदिर को खोलने के लिए अदालत जाना यथार्थ कम और राजनीतिक कदम अधिक प्रतीत होता है। सांसद ने यह याचिका इसलिए दायर की है, क्योंकि वह बाबा मंदिर के पंडों-पुजारियों के सामने व्याप्त रोजी-रोटी के संकट से व्याकुल हैं। सांसद ने अपनी याचिका में राज्य सरकार को प्रतिवादी बनाया है, जबकि मंदिरों को बंद रखने का फैसला केंद्र सरकार का है। आखिर मंदिर खोल कर सांसद क्या करना चाहते हैं। मंदिर खुल भी गये, तो वहां श्रद्धालु जायेंगे नहीं। उस स्थिति में भी पंडों-पुजारियों की रोजी-रोटी पर संकट बना रहेगा। और यदि मंदिर खोलना ही संकट का समाधान है, तो फिर राज्य के तमाम धार्मिक स्थलों को खोलने की इजाजत उन्होंने क्यों नहीं मांगी। इन्हीं सवालों का जवाब तलाशती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
गोड्डा के सांसद डॉ निशिकांत दुबे ने झारखंड हाइकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है, जिसमें उन्होंने राज्य सरकार को देवघर स्थित बाबा मंदिर को खोलने का आदेश देने का आग्रह किया है। सांसद का कहना है कि बाबा मंदिर के बंद रहने से वहां के पंडों-पुजारियों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। इसके साथ ही बाबा वैद्यनाथ के करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था पर भी चोट पहुंच रही है।
सांसद ने अपनी याचिका में जो सवाल उठाया है, वह सर्वथा उचित है, लेकिन एक सवाल पैदा होता है कि आखिर सांसद को केवल बाबा मंदिर की ही चिंता क्यों है। देवघर में ही बाबा मंदिर के अलावा सैकड़ों दूसरे मंदिर भी हैं। उनके संसदीय क्षेत्र में ही कई अन्य मंदिर हैं। दूसरे धर्मस्थल, मसलन मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजाघर हैं। उन पर सीधे आश्रित लोगों के सामने भी तो यह संकट आया है। फिर उन्हें खोलने की बात सांसद क्यों नहीं कर रहे।
वैश्विक महामारी कोरोना के कारण केंद्र सरकार ने 25 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन घोषित किया था। आठ जून से सरकार ने इसे चरणबद्ध ढंग से अनलॉक करने का फैसला किया और अब धीरे-धीरे सामान्य जनजीवन पटरी पर लौटने लगा है। लेकिन स्कूल-कॉलेज, शिक्षण संस्थान, सैलून, जिम और सिनेमा हॉल अब भी बंद हैं। इनके साथ धार्मिक स्थलों पर भी ताला लटका हुआ है। सामाजिक-धार्मिक और राजनीतिक आयोजन पर भी रोक है।
झारखंड सरकार ने शुरुआत से ही लॉकडाउन के बारे में केंद्र सरकार द्वारा जारी गाइडलाइन का पालन किया है। ऐसे में यदि झारखंड में धार्मिक स्थान बंद हैं, तो यह राज्य सरकार का नहीं, बल्कि केंद्र का फैसला है। यह फैसला कोरोना संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए किया गया है, जिसका खतरा अभी कम नहीं हुआ है। केंद्र सरकार की इसी पाबंदी के कारण इस साल न चैत्र नवरात्र का आयोजन हुआ और न रामनवमी की शोभायात्रा ही निकली। सरहुल की शोभायात्रा भी नहीं निकाली गयी और ईद की सामूहिक नमाज भी नहीं अदा की गयी। गुड फ्राइडे और इस्टर की प्रार्थना भी घरों में ही की गयी और भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा भी झारखंड में नहीं निकाली गयी। वर्ष में एक बार होनेवाले इन आयोजनों का अर्थशास्त्र बहुत व्यापक है। हजारों लोगों की आमदनी का यह बड़ा स्रोत इस साल सूखा रहा, लेकिन कहीं कोई विरोध नहीं हुआ। ऐसे में सांसद द्वारा एक मंदिर को खोलने के लिए हाइकोर्ट की शरण में जाना कुछ अटपटा लगता है।
सांसद डॉ निशिकांत दुबे द्वारा बाबा मंदिर का पट खोलने की मांग को राजनीतिक स्टंट ही कहा जा रहा है। जानकारों का मानना है कि पंडा समाज के बीच अपनी लोकप्रियता स्थापित करने के लिए ही उन्होंने इसे मुद्दा बनाया है। यदि उन्हें धार्मिक स्थलों पर आश्रित परिवारों की चिंता होती, तो वह झारखंड के दूसरे मंदिरों को खोलने की भी मांग करते। झारखंड में करीब 30 हजार छोटे-बड़े मंदिर हैं और यदि हर मंदिर पर एक परिवार को ही आश्रित मान लिया जाये, तो भी यह 30 हजार परिवारों का सवाल है। इसके अलावा मस्जिदों, गिरजाघरों और गुरुद्वारे भी हैं, जिनसे बहुत से परिवारों की रोजी-रोटी चलती है, जो फिलहाल बंद है। सांसद को इन लोगों की शायद कोई चिंता नहीं है।
इन सबके बीच एक बड़ा सवाल यह भी है कि देश में कोरोना संकट के लिए जिस तबलीगी जमात को जिम्मेदार ठहराया गया है, उसने भी तो यही किया था। धार्मिक आयोजनों पर पाबंदी के बावजूद उसने देश-विदेश से लोगों को निजामुद्दीन मरकज में इकट्ठा किया और बाद में उसके लोग जब लौटे, तो अपने साथ संक्रमण ले गये। तो क्या सांसद बाबा मंदिर के साथ भी यही कलंक जोड़ना चाहते हैं। क्या वह झारखंड में कोरोना संक्रमण को फैलने का इतना आसान अवसर पैदा करना चाहते हैं या फिर महज राजनीतिक लाभ के लिए बाबा मंदिर को सीढ़ी बनाना चाहते हैं। यदि सचमुच उन्हें लोगों की आजीविका की चिंता होती, तो वह उन हजारों उद्योगों को खोलने की बात भी करते, जिनके बंद होने से लाखों लोग बेरोजगार हो गये हैं। डॉ दुबे की यह बात भी समझ से परे है कि उन्होंने अपनी याचिका में राज्य सरकार को प्रतिवादी क्यों बनाया है, जबकि धर्मस्थलों को बंद करने का फैसला केंद्र सरकार का है। इसलिए बेहतर यह होता कि सांसद पहले केंद्र सरकार से इस मुद्दे पर बात करते या उसे भी प्रतिवादी बनाते।
अब मामला हाइकोर्ट में है और फैसला अदालत को करना है। लेकिन इतना तय है कि गोड्डा सांसद के इस कदम का संक्रमण के भय के बीच जी रहे लोगों में सकारात्मक संदेश नहीं गया है।