विशेष
-सभापतियों की शिकायतों पर तत्काल ध्यान देना बेहद आवश्यक
-अधिकारियों को ध्यान रखना होगा कि विधानसभा राज्य की सर्वोच्च पंचायत है
-विधायक भी गरिमा बनाये रखने के प्रति सजग रहें, तभी राज्य आगे बढ़ेगा

झारखंड में पिछले 22 साल के दरम्यान ऐसे कई अवसर आये, जब झारखंड के नेताओं और अधिकारियों के बीच आपसी समन्वय की कमी दिखी। इसे पाटने के भी प्रयास हुए। लगा, कार्यपालिका और विधायिका के बीच यह दूरी पट जायेगी। लेकिन अभी हाल ही में राज्य विधानसभा में सदन की विभिन्न समितियों के सभापतियों और सदस्यों की बैठक में कहा गया कि राज्य के अधिकारी विधानसभा की समितियों को तवज्जो नहीं देते, तो इसकी गंभीरता एक बार फिर उजागर हुई। विकास की डगर पर आगे बढ़ रहे झारखंड में यह बात कल्पना से भी परे है कि राज्य की सबसे बड़ी पंचायत, यानी विधानसभा की समितियों को राज्य के अधिकारी महत्व नहीं देते और उसके बुलावे पर उपस्थित होने की जहमत तक नहीं उठाते। सभापतियों की विधानसभा अध्यक्ष से यह शिकायत सचमुच गंभीर है। अपने स्थापना काल से ही इस राज्य में कई राजनीतिक प्रयोग हुए हैं। हालांकि पांचवीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव के बाद झारखंड इस परिपाटी को खत्म करने की दिशा में एक ठोस कदम बढ़ा चुका है। राज्य में पहली बार हेमंत सोरेन के नेतृत्व में गैर-भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है और यदि अब भी यहां विधायिका और कार्यपालिका के बीच टकराव की बातें सामने आ रही हैं, तो इसे तत्काल खत्म किया जाना आवश्यक है। झारखंड ने पिछले 23 साल में कई झंझावात देखे हैं और झेले हैं। अब इन झंझावातों से आगे निकलने का समय है, ताकि इस राज्य की सवा तीन करोड़ आबादी की विकास की आकांक्षा को नया क्षितिज मिल सके। इस आबादी की नुमाइंदगी करनेवाली विधानसभा की समितियों के विशेषाधिकारों का संरक्षण जरूरी है। दूसरी तरफ इन समितियों में शामिल विधायकों को भी इसकी महत्ता समझनी होगी और तब वे अपने अधिकारों का सदुपयोग कर सकेंगे। इस गंभीर मुद्दे का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
देश की आजादी के बाद जब डॉ बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को देश का संविधान तैयार करने की जिम्मेवारी मिली, तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती एक ऐसा विधान स्थापित करने की थी, जो देश को एकजुट रख कर उसे आगे का रास्ता बता सके और इस क्रम में देश-समाज को एकजुट भी रखे। दो साल 11 महीने और 17 दिन तक गहन शोध और अध्ययन के बाद जब उन्होंने 448 अनुच्छेद, 12 अनुसूची और पांच परिशिष्ट वाला संविधान देश के सामने रखा, तो उसकी मौलिकता से पूरी दुनिया प्रभावित हुई। इस संविधान में एक ऐसे भारतीय संघ की परिकल्पना की गयी है, जो मजबूत प्रदेशों के बल पर दुनिया में अपना सिर ऊंचा रख सके। इसके तहत राज्यों के लिए विधानमंडलों का गठन किया गया। उन्हें कुछ शक्तियां दी गयीं, विशेषाधिकार दिये गये। संविधान के अनुच्छेद 208 के तहत विधानमंडलों को समितियां गठित करने का अधिकार दिया गया, ताकि विधानमंडल के प्रति मंत्रिपरिषद के सामूहिक उत्तरदायित्व और कार्यपालिका के कृत्यों पर प्रभावी नियंत्रण रखा जा सके।
संविधान के इसी प्रावधान के तहत झारखंड में भी इन समितियों का गठन किया जाता है और उनके कामकाज पूरी तरह परिभाषित किये जाते हैं। लेकिन हाल के दिनों में देखा गया है कि विधानसभा की इन समितियों को कार्यपालिका से उतनी मदद नहीं मिल रही है, जितनी मिलनी चाहिए। इससे समितियों के गठन का उद्देश्य ही विफल होने लगा है। एक दिन पहले जब झारखंड की पांचवीं विधानसभा के अध्यक्ष प्रो रविंद्र नाथ महतो ने विधानसभा की नवगठित समितियों के सभापतियों और सदस्यों की बैठक बुलायी, तो उसमें इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि कार्यपालिका द्वारा समितियों को तवज्जो नहीं दिया जाता है। यह वाकई चिंताजनक स्थिति है। यदि राज्य की सबसे बड़ी पंचायत की समितियों को ही उसका वाजिब महत्व नहीं मिलेगा, तो फिर संसदीय लोकतंत्र की पूरी अवधारणा ही छिन्न-भिन्न हो जायेगी।
झारखंड के परिप्रेक्ष्य में यह स्थिति अधिक चिंताजनक है, क्योंकि छोटा राज्य होने के कारण यहां का विधायी कामकाज अलग ढंग का होता है। बड़े राज्यों के मुकाबले झारखंड की विधानसभा को अधिक सक्रिय रहना पड़ता है, ताकि लोक कल्याण की अवधारणा को मजबूत किया जा सके। ऐसे में विधानसभा समितियों की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। तब यदि उन्हें कार्यपालिका से अपेक्षित सहयोग नहीं मिलेगा, तो राज्य के आगे बढ़ने के रास्ते में अवरोध पैदा होंगे।
इस संकट का दूसरा पहलू भी है। विधानसभा समितियों के सभापतियों और सदस्यों को, जो स्वाभाविक तौर पर सदन के सदस्य ही होते हैं, अपनी समितियों की गरिमा समझनी होगी। अब तक का अनुभव बताता है कि विधानसभा की समितियों के अधिकांश दौरे किसी पिकनिक या मनोरंजक आयोजन के समान होते हैं, उनकी सिफारिशों के बारे में आम लोगों को पता भी नहीं चलता। इसका ही परिणाम होता है कि अधिकारी ऐसी समितियों को समुचित सम्मान नहीं देते।
अब इन सब बातों के लिए कम से कम झारखंड में समय नहीं रह गया है। झारखंड जैसा गरीब राज्य इस विलासिता को नहीं झेल सकता है, यह बात कार्यपालिका को भी समझनी होगी और विधायिका को भी। लोगों की आकांक्षाएं हिलोरें मार रही हैं, यह सभी को पता है। यदि विधायिका और कार्यपालिका में तलवारें खिंची रहेंगी या खिंचने की आशंका रहेगी, तो फिर सरकार की सारी ऊर्जा उस स्थिति को सामान्य बनाने में ही खर्च हो जायेगी और लोक कल्याण की जिस अवधारणा को लेकर उसे सत्ता हासिल हुई है, वही पराजित हो जायेगा।
इसलिए विधानसभा समितियों के विशेषाधिकारों का संरक्षण जरूरी है। ये समितियां सरकार को उसके कामकाज का आइना दिखाती हैं, इसलिए कार्यपालिका को इनका समुचित सम्मान करना ही चाहिए। विधानसभा अध्यक्ष ने समितियों के लिए नोडल अधिकारियों को प्रतिनियुक्त करने की जो पहल की है, उससे इस समस्या का बहुत हद तक निदान हो सकता है। राज्य के संसदीय कार्य मंत्री आलमगीर आलम ने भी नोडल अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति को जरूरी बताया है, इसलिए अब उम्मीद की जानी चाहिए कि विधानसभा की समितियां अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन अधिक प्रभावी ढंग से करेंगी और राज्य सरकार को लोकोपयोगी सिफारिशें करेंगी। लोकतंत्र में विचारों की भिन्नता हमेशा श्रेयस्कर होती है, लेकिन टकराव और अलगाव का इसमें कोई स्थान नहीं होता। झारखंड को आगे ले जाने के लिए जितनी जरूरत एक प्रभावी विधायिका की है, उससे कम कार्यपालिका भी नहीं है। इसलिए दो दशक बाद झारखंड में जिसे नये राजनीतिक युग का सूत्रपात हुआ है, उसमें पहले की स्थिति को बिसरा कर नये रास्ते पर चलने की जमीन तैयार करनी होगी। इसमें समाज के सभी वर्गों का सहयोग जरूरी और अनिवार्य है। यह बात झारखंड के विधायक, अधिकारी और दूसरे लोग जितनी जल्दी समझ लेंगे, उतना ही अच्छा होगा। ऐसा करने से ही झारखंड में विकास का असली सूरज उदय होगा और इसके प्रकाश से राज्य के विकास का पथ आलोकित होगा।

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