विशेष
-नये-नये नेता उभरे, तो राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जोर मारने लगीं
-इसका परिणाम यह हुआ कि झारखंड का समाज बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक से आगे बढ़ कर
-कुरमी-आदिवासी, अगड़ा-पिछड़ा और आदिवासी-गैर आदिवासी में विभाजित होने लगा
-कुरमी-आदिवासी विवाद से सामने आयी इस दरार की हकीकत
-लेकिन इन दोनों की लड़ाई का फायदा कोई तीसरा उठा रहा
-झारखंड की ताकत ही उसकी सामाजिक एकता है, जिसे खंडित करना सही नहीं
झारखंड को समकालीन भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक माना जाता है। यह अपने समृद्ध खनिज संसाधनों और अतीत की वाणिज्यिक और सांस्कृतिक संपदा की ऐतिहासिक विरासतों के कारण है। औद्योगिक राज्य होने के बावजूद झारखंड सामाजिक-आर्थिक अभाव की चुनौतियों का सामना करना जारी रखता है, जैसे कि गरीबी, अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य सेवाएं और भेदभावपूर्ण राजनीति। क्षेत्रीय विकास को लेकर झारखंड को बिहार से 25 साल पहले अलग कर दिया गया था। यह एक सपने के पूरा होने जैसा था, लेकिन विकास की अवधारणा को कभी जमीन पर उतारने की कोशिश नहीं हुई। कोशिश हुई, तो झारखंड के समाज को धर्म, जाति या जातीय समूहों में बांटने की, ताकि राजनीतिक हितों को साधा जा सके। हाल के दिनों में झारखंड में यह सामाजिक बिखराव थोड़ा अधिक दिखने लगा है। यहां की राजनीति में अब अगड़े-पिछड़े, कुरमी-आदिवासी, हिंदू-मुस्लिम और दूसरे सामाजिक आधार पर विभाजन का जहर पसरता दिखाई देने लगा है, जो झारखंड के भविष्य के लिए बेहद खतरनाक है। हाल ही में झारखंड के सबसे ताकतवर राजनीतिक-सामाजिक समुदाय, यानी कुरमियों और आदिवासियों के बीच जो विवाद पैदा हुआ है, उसने झारखंड के सामाजिक ताने-बाने को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। यह विष बेल धीरे-धीरे समाज के उन समूहों तक पहुंचने लगी है, जो अब तक केवल झारखंड की सामूहिक संस्कृति में विश्वास करता था। यह सब उस सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के मजबूत होने के कारण हुआ है, जो राजनीति के दरवाजे तक पहुंचने से पहले निजी या जातीय स्वार्थ में भीग जाती है। लेकिन इन दोनों की लड़ाई का फायदा कोई तीसरा उठा रहा है। जो झारखंड के सामजिक ताने-बाने को तबाह करने की कोशिश कर रहा है। वह है बांग्लादेशी घुसपैठ और धर्मांतरण। डेमोग्राफी चेंज होने के कारण झारखंड में आदिवासियों की संख्या घट रही है। यह भी दावा किया जाता है कि संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठिए आदिवासी महिलाओं से शादी कर उनका धर्म परिवर्तन कर रहे हैं, और उनकी जमीनों को गिफ्ट डीड के जरिये हथिया रहे हैं। इससे आदिवासियों के अस्तित्व पर संकट गहराता जा रहा है। लेकिन इस मुद्दे पर भाजपा के अलावा सभी राजनीतिक दलों में खामोशी है। यह खामोशी कब नासूर बन जायेगी और इसका सबसे ज्यादा असर किस समुदाय पर पड़ेगा यह किसी से छिपा नहीं है। इसलिए झारखंड की ताकत ही उसकी सामजिक एकता है। जिसे खंडित करना सही नहीं है। कई ऐसी शक्तियां हैं, जो आदिवासियों और कुर्मियों के बीच जहर घोल रही हैं और निकट भविष्य में आने वाली समस्याओं पर से ध्यान भटकाना चाहती हैं। हर जाती और धर्म को स्वतंत्रता है कि वह अपने समाज के हक और अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करे। संविधान ने इसका हक दिया है। लेकिन तरीका भी संवैधानिक ही हो, इसका खयाल रखना जरूरी है। झारखंड में कुरमी-आदिवासी विवाद की पृष्ठभूमि में सामाजिक दीवार के दरकने का क्या हो सकता है असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।
भारत के राजनीतिक मानचित्र पर 28वें राज्य के रूप में 15 नवंबर, 2000 को उभरा झारखंड इस समय अलग किस्म की समस्या का सामना कर रहा है। इस राज्य को पिछले 25 वर्ष में चाहे कुछ हासिल हुआ हो या नहीं, एक मुकाम इसने जरूर हासिल किया और वह था इसका मजबूत सामाजिक ताना-बाना। झारखंड की सामाजिक दीवार इतनी मजबूत थी कि यहां जाति-धर्म-भाषा और संप्रदाय के आधार पर कोई विभाजन नहीं था। आदिवासी हितों के लिए दिकुओं को खतरनाक जरूर बताया जाता था, लेकिन कभी सामाजिक स्तर पर उनके खिलाफ कोई माहौल नहीं बना था। झारखंड के जनक दिशोम गुरु शिबू सोरेन कहते भी थे कि झारखंड में रहनेवाला हर व्यक्ति पहले झारखंडी है, बाद में कुछ और। लेकिन अफसोस कि आज झारखंड की यही मजबूत दीवार में दरार दिखने लगी है। यह दरार राजनीति के उस दुष्प्रभाव का नतीजा है, जिसे विकास की डोर से बांध कर आसमान में उड़ा दिया गया है और विकास की इस अवधारणा को राजनीतिक रूप से पूरा करने के समय कदम पीछे खींच लिये गये। इसलिए 25 वर्षों के बाद झारखंड अब भी अपनी पहचान और अस्तित्व के सवाल को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। इसके गठन के बाद से सभी दलों ने वादों को पूरा नहीं किया है।
-कुरमी-आदिवासी मतभेद
झारखंड में सामाजिक बिखराव की यह आहट 2019 के विधानसभा चुनाव के पहले सुनाई पड़ी। उस चुनाव में झामुमो के नेतृत्व वाले महागठबंधन को बहुमत हासिल होने और एनडीए सरकार के मुख्यमंत्री रहे रघुवर दास की करारी हार के बाद हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री बने। 2024 आते-आते हेमंत सोरेन का मजबूत राजनीतिक नेतृत्व और उनके खिलाफ की गयी साजिशों ने उन्हें जबरदस्त वापसी करायी। लेकिन 2022 की शुरूआत में सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषा के रूप में भोजपुरी, मगही, मैथिली को शामिल करने का विरोध शुरू हुआ। इस भाषा विवाद को लेकर झारखंड के कई क्षेत्र आंदोलित रहे। आंदोलन काफी लंबा चला, तो इसकी इबारत सामाजिक दीवार पर साफ दिखने लगी। 1932 का खतियान और झारखंड का मूल निवासी होने के मुद्दे पर समाज बिखरने लगा। 1932 को लेकर कई विसंगतियों पर जमकर चर्चा हो ही रही थी कि कुरमी समुदाय ने अपने को आदिवासी बताते हुए अनुसूचित जनजाति में शामिल करने को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। आदिवासी का दर्जा देने की मांग को लेकर कुरमी समाज के संगठनों ने झारखंड समेत बंगाल और ओड़िशा में रेल रोको आंदोलन चलाया। 20 सितंबर 2022 से इन तीन राज्यों में यह आंदोलन पांच दिनों तक चला। इसकी जोरदार प्रतिक्रिया आदिवासी संगठनों में देखने को मिली और वे कुरमी संगठनों द्वारा आदिवासी का दर्जा देने की मांग का हर स्तर पर विरोध करने लगे। दोनों समुदाय अपने-अपने तर्क और इतिहास की पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए विरोध और समर्थन कर रहे हैं। अगर यह विरोध आगे बढ़ता है, तो आदिवासी और कुरमी संगठनों में टकराव की संभावना से इंकार नहीं किया सकता है। इसी बीच 2024 से ठीक पहले राजनीतिक रूप से मजबूत कुरमी जाति को अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास हुआ। नये-नये नेता उभरे, तो राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जोर मारने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि झारखंड का समाज बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक से आगे बढ़ कर कुरमी-आदिवासी, अगड़ा-पिछड़ा और आदिवासी-गैर आदिवासी में विभाजित होने लगा। इससे राजनीतिक उथल-पुथल तो हुई, समाज को नेता भी मिले, लेकिन झारखंड के हाथ खाली रह गये।
-नये राजनीतिक ध्रुवीकरण का जन्म
राजनीतिक गलियारे में चर्चा होती रहती है कि झारखंड में सत्ता की चाबी आदिवासी और कुड़मी मतदाताओं के पास है। इन्हें साधने के लिए राजनीतिक पार्टियों में खींचतान चलती रहती है। फिलहाल कुरमियों द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन से आगे अब संगठनों में भी इसे लेकर मतभेद पैदा होने लगे हैं। इसने नये राजनीतिक ध्रुवीकरण को जन्म दिया है। इस मुद्दे पर चुनाव लड़े जा रहे हैं और राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने का यह एक बड़ा जरिया बन गया है। यह झारखंड के लिए बेहद खतरनाक है, क्योंकि जिस दौर में यह राज्य है, वहां अब सामाजिक एकता ही इस विकास की पटरी पर दौड़ा सकती है।
-झारखंड का सामाजिक-आर्थिक ढांचा
झारखंड में 3.3 करोड़ की आबादी है, जिसमें 26.21% आदिवासी, 12.08% अनुसूचित जाति और 61.71% अन्य शामिल हैं। लगभग 10% आबादी बंगाली भाषी है और 70% लोग हिंदी की विभिन्न बोलियां बोलते हैं। हिंदू धर्म 67.8% के साथ बहुसंख्यक धर्म है, जिसके बाद इस्लाम में 14.5% और जनसंख्या का 12.8% एनिमिस्टिक सरना धर्म है, जबकि इसाइ धर्म 4.3% और 1% से कम जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म (जनगणना 2011) से हैं। झारखंड का इतिहास सामूहिक विरासत, हमारा इतिहास, शाही ताकतों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन, संस्कृति के संरक्षण, क्षेत्रीय पहचान, भाषा, जीवन शैली, सामाजिक-आर्थिक स्थिति के लिए संघर्ष से भरा है। यह राज्य अपने समृद्ध खनिज संसाधनों के लिए प्रसिद्ध है और झारखंड की विकास दर अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर है।
-विकास के पैमाने पर झारखंड
झारखंडियों को कोई संदेह नहीं है कि वे अत्यधिक अवसाद में रह रहे हैं। उनकी चिंताएं, हताशा उनकी सामूहिक विफलताओं से निकल रही है। राज्य में झारखंडी लोगों की दुर्दशा का समग्र परिदृश्य सामाजिक-आर्थिक अभावों के ऐतिहासिक विकास का उपोत्पाद है। डिग्री के मामले में जगह-जगह से थोड़ा अंतर है, लेकिन हाशिये का स्वरूप वही रहता है। इसका नतीजा यह हुआ है कि सभी क्षेत्रीय पहचानों को पार करते हुए समुदाय के मुद्दे यहां नेपथ्य में चले गये हैं। झारखंड का समाज वर्ग, जाति, संस्कृति और क्षेत्रवाद से लेकर सामाजिक आधार पर विभाजित होने लगा है।
-रेल टेका डहर छेका आंदोलन
आदिवासी कुड़मी समाज ने 20 सितंबर से अनिश्चितकालीन रेल टेका डहर छेका आंदोलन की घोषणा की है। यह आंदोलन झारखंड, बंगाल और ओड़िशा तीनों राज्यों में एक साथ चलाया जायेगा। आंदोलन के तहत झारखंड में 40 रेलवे स्टेशनों को चिह्नित किया गया है। इनमें प्रमुख स्टेशन हैं मूरी, टाटीसिलवे, मेसरा, राय, खलारी, बड़काकाना, गोला, जगेश्वर बिहार, चरही, चंद्रपुरा, प्रधानखंटा, पारसनाथ, हेसालौंग, चक्रधरपुर, सोनुवा, चाकुलिया, गोड्डा और जामताड़ा। कुड़मी समाज को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग को लेकर को लेकर कुड़मी समाज ने आंदोलन की घोषणा की है। कुड़मी समाज के वरीय केंद्रीय उपाध्यक्ष छोटेलाल महतो ने दावा किया कि 1931 की जनगणना में कुड़मी समाज को एसटी सूची में शामिल किया गया था, लेकिन 1950 में जो नयी सूची तैयार की गयी उसमें बाकी जनजातियों के नाम बने रहे, सिर्फ कुड़मी समाज का नाम हटा दिया गया। हमारा नाम क्यों हटाया गया, इसका कोई आधार नहीं है। यह एक भूल थी और अब इसे सुधारना चाहिए।
-आदिवासी क्यों कर रहे विरोध
आदिवासी नेताओं का कहना है कि कुड़मी समाज अपने निजी फायदे के लिए एसटी समुदाय में शामिल होना चाहता है। केंद्रीय सरना समिति, महिला मोर्चा की अध्यक्ष निशा भगत यह दावा करती हैं कि कुड़मी आदिवासी नहीं है। इनकी संस्कृति और व्यवहार कहीं से भी आदिवासियों से मेल नहीं खाते हैं। यह एक ऐसी जाति है, जो खुद को आदिवासियों से ऊपर समझती है, लेकिन आज यह आदिवासियों के साथ आना चाहते हैं, इसके पीछे वजह सिर्फ यह है कि वे सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाना चाह रहे हैं। वहीं गुंजल इकिर मुंडा का कहना है कि कुड़मी समाज को पहले यह तय कर लेना चाहिए कि वे चाहते क्या हैं? कई बार उनके बयान में विरोधाभास नजर आता है। कुड़मी समाज कई बार अपनी पहचान से ही संघर्ष करता नजर आता है, यह स्थिति बदलनी चाहिए। जहां तक बात आदिवासियों द्वारा उनके विरोध की है, तो संभवत: उन्हें यह प्रतीत होता है कि अगर कुड़मी एसटी सूची में शामिल हो गये, तो उनकी जमीन पर खतरा हो सकता है, जो आदिवासियों की सबसे बड़ी पूंजी है।