-भतीजे अजित पवार को किनारे लगा कर विरोधियों को दिया संदेश
-महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा खेल कर सकता है यह ‘पवार गेम’
शरद पवार, एक ऐसा नाम, जो महाराष्ट्र के किसान आंदोलन से निकल कर राष्ट्रीय क्षितिज पर छा गया और आज वह किसी परिचय का मोहताज नहीं है। ‘मराठा स्ट्रांगमैन’ के नाम से चर्चित इस राजनेता ने शनिवार को अपनी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, यानी एनसीपी में उत्तराधिकारी का फैसला कर साबित कर दिया कि वह आज भी सियासी हलकों में लगभग अपराजेय हैं। यह शरद पवार ही हैं, जिनका साथ हासिल करने के लिए जितनी बेताब भाजपा और कांग्रेस है, उतनी ही शिवसेना और महाराष्ट्र से लेकर दूसरे राज्यों के क्षेत्रीय दल। शरद पवार ने अपनी पार्टी के 25वें स्थापना दिवस के मौके पर अपनी बेटी सुप्रिया सुले और पार्टी उपाध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल को एनसीपी का कार्यकारी अध्यक्ष घोषित कर दिया। उनकी यह घोषणा इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि उत्तराधिकार की इस लड़ाई में उन्होंने अपने भतीजे अजित पवार को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। और उनका यही फैसला उन्हें शरद पवार बनाता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि शरद पवार के बाद एनसीपी में नंबर दो कहे जानेवाले अजित पवार का नाम शीर्ष नेतृत्व में शामिल क्यों नहीं किया गया और क्यों एनसीपी में दो कार्यकारी अध्यक्ष बनाने की जरूरत पड़ी। लेकिन इन सवालों के जवाब यदि इतने सीधे-सपाट होते, तो फिर शरद पवार होने का मतलब नहीं रह जाता। एनसीपी के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में शरद पवार अपने किस्म की राजनीति के लिए प्रसिद्ध हैं और अक्सर अपने फैसलों से दुनिया को चौंकाते रहे हैं। एनसीपी के बारे में किये गये फैसलों के क्रम में उन्होंने भतीजे की उपेक्षा क्यों की और इसका सियासत में क्या असर हो सकता है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
करीब 25 साल पहले सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से अलग रास्ता अख्तियार करनेवाले महाराष्ट्र के दिग्गज नेता शरद पवार एक बार फिर चर्चा में हैं। कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, यानी एनसीपी की स्थापना करनेवाले और अकेले दम पर पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलानेवाले इस ‘मराठा स्ट्रांगमैन’ ने अपनी पार्टी के 25वें स्थापना दिवस पर बड़ा ऐÑलान करते हुए दो कार्यकारी अध्यक्ष घोषित कर दिये। उन्होंने अपनी बेटी सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया है, लेकिन अपने भतीजे अजित पवार को कोई नयी जिम्मेदारी नहीं दी। ऐसा कर उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति में ही सक्रिय रहने का संदेश दे दिया गया। अब शरद पवार की जैसी सियासत रही है, उससे सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनका कोई भी फैसला सिर्फ फैसला नहीं होता है, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति होती है।
अजित ने कैसे खोया पवार का भरोसा?
अब इस एक फैसले की भी अपनी एक कहानी है। अजित की झोली खाली रहना कोई आकस्मिक नहीं है, बल्कि 2019 के ट्रेलर ने इस बात के संकेत दे दिये थे। असल में 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन बहुमत से दूर रह गयी। शिवसेना का उसके साथ जाना पक्का लग रहा था, लेकिन सीएम कुर्सी ने समीकरण बदल दिये और उद्धव ठाकरे एनसीपी-कांग्रेस के साथ चल दिये। उस समय एक दूसरी पटकथा यह चल रही थी कि अजित पवार ने भाजपा से संपर्क साधा। उन्होंने दावा किया कि उनके साथ एनसीपी के कई विधायक हैं और इसी दम पर देवेंद्र फडणवीस ने सीएम पद की शपथ ली। डिप्टी सीएम का पद अजित के पास गया, लेकिन 72 घंटों में सब बदल गया। शरद पवार असली बॉस साबित हुए, कांग्रेस-शिवसेना के साथ मिल कर स्पष्ट बहुमत साबित किया और उद्धव ठाकरे की ताजपोशी हो गयी।
यह किस्सा पुराना जरूर है, लेकिन शरद पवार के मन में अजित को लेकर असमंजस की स्थिति पैदा करनेवाला है। शरद पवार ने कभी उम्मीद नहीं की थी कि उनके फैसले के खिलाफ जाकर अजित ऐसे भाजपा से हाथ मिला लेंगे। उनकी घर वापसी जरूर हो गयी, लेकिन अविश्वास की एक खाई पैदा हो चुकी थी। इस घटना के चार साल बाद अब फिर ऐसा माहौल बना था, जब कहा गया कि अजित फिर भाजपा से हाथ मिला सकते हैं। दावा तो यह भी हो गया था कि 25 से ज्यादा विधायकों का समर्थन अजित के साथ है। ये दावे अगर सच साबित होते, तो उद्धव ठाकरे के बाद शरद पवार के साथ महाराष्ट्र में बड़ा ‘सियासी खेला’ हो जाता। खैर, ये सिर्फ अटकलें ही रहीं और शरद पवार ने सही समय पर एक बड़ा सियासी फैसला लिया।
पवार का इस्तीफा और अजित की प्रतिक्रिया
शरद पवार की सियासी चाल के सामने अजित हमेशा बौने साबित हुए। इसका एक उदाहरण करीब एक महीने पहले उस समय मिला, जब शरद पवार की तरफ से एलान किया गया कि वह एनसीपी के अध्यक्ष पद को छोड़ रहे हैं। कार्यकर्ता हैरान रह गये। पार्टी के अंदर खलबली मच गयी, लेकिन तब तक शरद पवार अपने फैसले पर कायम रहे। उनके फैसले का हर तरफ विरोध हो रहा था। कार्यकर्ता तो स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे, लेकिन अजित पवार का अलग ही बयान सामने आया। उन्होंने कह दिया कि कि शरद पवार के फैसले का सम्मान होना चाहिए और नये नेतृत्व को मौका मिले। उनका यह बयान राजनीतिक गलियारों में अलग ही संदेश लेकर गया। माना गया कि अजित एनसीपी के अगले अध्यक्ष बन जायेंगे। लेकिन ऐसा संदेश सिर्फ अजित के खेमे की तरफ से जा रहा था, ज्यादा विश्वसनीय अटकलें ये थीं कि सुप्रिया सुले अगली अध्यक्ष बन सकती हैं। उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा पद देने की तैयारी है। शरद पवार ने अपनी अगली चाल चली और अध्यक्ष पद छोड़ने के फैसले को वापस ले लिया। इससे अजित पवार पूरी तरह मात खा गये।
शरद पवार ने भतीजे को दे दिया स्पष्ट संदेश
उस समय कार्यकर्ताओं की नाराजगी को देखते हुए शरद पवार ने अपना इस्तीफा तो वापस ले लिया, लेकिन माना गया कि जब मौका आयेगा, तो सुप्रिया सुले की ही ताजपोशी होगी और अजित महाराष्ट्र तक सीमित रह जायेंगे। अब उन अटकलों के बाद शनिवार को जब एनसीपी प्रमुख ने सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष घोषित किया, तो माना जा रहा है कि आने वाले समय में अध्यक्ष पद को लेकर भी कोई बड़ा फैसला हो सकता है। जानकार तो यह भी मानते हैं कि अब अजित को पार्टी की कमान मिलनी मुश्किल है। उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति में दिलचस्पी है। ऐसे में उसी क्षेत्र तक उन्हें सीमित रखने की भी तैयारी है।
इसे अजित के लिए बड़ा सियासी झटका माना जा रहा है, तो सुप्रिया सुले का एक तरह से राष्ट्रीय राजनीति में यह बड़ा पदार्पण है। वह पदार्पण, जिसके सपने शायद शरद पवार भी लंबे समय से देख रहे थे। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अजित के बगावती तेवर शरद पवार को रास नहीं आते हैं। इसी वजह से उन्होंने कुछ हद तक एनसीपी प्रमुख का भरोसा खोया है। वहीं दूसरी तरफ सुप्रिया सुले लगातार पवार के साथ मजबूती से खड़ी रही हैं, उनके फैसलों के साथ रही हैं और पार्टी हित में काम किया है।
सुप्रिया सुले को क्यों मिल रही इतनी तवज्जो
सुप्रिया सुले ने 2006 में राजनीति में कदम रखा था। 2009 में बारामती से लोकसभा सांसद बनीं और फिर लगातार तीन बार वहीं से बड़ी जीत दर्ज करती रहीं। बेखौफ होकर अपनी बात रखने वालीं सुप्रिया सुले संसद में भी काफी सक्रिय रहीं और इसी वजह से कई अहम समितियों का उन्हें सदस्य बनने का मौका मिला। इसके अलावा 2011 में भ्रूण हत्या के खिलाफ उनका राज्यव्यापी आंदोलन सुर्खियों में आ गया था। पिछले साल एनसीपी का दिल्ली में आठवां अधिवेशन हुआ था। शरद पवार, अजित पवार, जयंत पाटिल, सुप्रिया सुले सब मौजूद थे। लेकिन बीच कार्यक्रम से अजित पवार उठ कर चले गये, शरद देखते रह गये। सुप्रिया सुले को मनाने भी जाना पड़ा, लेकिन सभी प्रयास फेल हो गये और कार्यकर्ताओं के सामने एक बड़ा सियासी ड्रामा हो गया। तभी से कयास लग रहे थे कि चाचा-भतीजे के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
बड़ा खेला करनेवाले पवार ने सोनिया से भी लिया पंगा
वैसे इस फैसले से इतर शरद पवार ने पहले भी कई ऐसे कदम उठाये हैं, जिन्होंने ना सिर्फ महाराष्ट्र, बल्कि देश की राजनीति पर गहरी छाप छोड़ी है। शरद पवार ने अपने करियर में इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी जैसे कद्दावर नेताओं से सीधी टक्कर ली है। उनके फैसलों ने ही कांग्रेस में दो फाड़ करवायी, सोनिया को पीएम बनने से रोका और फिर 2019 में फडणवीस-अजित के सियासी खेल की भी हवा निकाली। सोनिया की राह में जिस तरह से वह रोड़ा बने थे, उसने ना सिर्फ कांग्रेस के समीकरण बदले, बल्कि एक नयी पार्टी को भी जन्म दे दिया था।
जब कांग्रेस को दो फाड़ कर दिया था
यह बात 1999 की है, जब मात्र एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गयी थी। 13वें लोकसभा चुनाव होने को थे। सीताराम केसरी ने सोनिया को कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। चर्चा तेज थी कि कांग्रेस सोनिया को पीएम के रूप में प्रोजेक्ट करेगी। लेकिन भाजपा इस मुद्दे को लपकती, उससे पहले शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा ने बगावत कर दी। विदेशी मूल का मुद्दा उठा कर सोनिया को पीएम बनने से रोक दिया गया और शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर एनसीपी का गठन कर दिया। यह किस्सा इसलिए, क्योंकि शरद पवार अपने एक फैसले से कई समीकरण एक साथ साधने में माहिर हैं।
इसे आसानी से समझा जा सकता है कि जो नेता एक झटके में नयी पार्टी बना सकता है, जो नेता विपरीत विचारधाराओं वाली पार्टियों को 2019 में एकजुट कर सकता है, उसके किसी भी फैसले को सिर्फ एक फैसले की नजर से देखना बेमानी रहेगा, क्योंकि उनके राजनीतिक परिणाम दूर तक जायेंगे भी और कई धुरंधरों का खेल भी बिगाड़ेंगे। और यही सब गुण मिल कर शरद पवार को ‘शरद पवार’ बनाते हैं।