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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»अर्जुन मुंडा के सामने सियासी मैदान में वापसी का चैलेंज
    स्पेशल रिपोर्ट

    अर्जुन मुंडा के सामने सियासी मैदान में वापसी का चैलेंज

    shivam kumarBy shivam kumarJune 26, 2024No Comments9 Mins Read
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    विशेष
    जमीन से कट जाने की कीमत चुका रहा है भाजपा का यह कद्दावर आदिवासी नेता
    ‘जाइंट किलर’ आज खुद के बुने जाल में फंस कर बुरी तरह छटपटाने को मजबूर है

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    राजनीति बेहद अनिश्चितता का पर्याय है। यहां कब किसका सितारा बुलंद होगा और कब कौन हाशिये पर चला जायेगा, कहा नहीं जा सकता। तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे अर्जुन मुंडा इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। वह झारखंड की सियासत में एक धूम्रकेतु की तरह उभरे और देखते-देखते सत्ता शीर्ष तक जा पहुंचे, लेकिन 2024 में खूंटी संसदीय सीट से चुनाव हारने के बाद अब उनका सियासी भविष्य पूरी तरह अनिश्चितता के भंवर में फंसा हुआ दिखाई देने लगा है। इससे पहले 2014 के विधानसभा चुनाव में खरसावां से पराजित होने के बाद वह न केवल झारखंड की राजनीति से, बल्कि भाजपा के भीतर भी हाशिये पर धकेल दिये गये थे, लेकिन 2019 में भाजपा ने एक बार उन पर फिर भरोसा जताया और उन्हें खूंटी से प्रत्याशी बनाया। मुंडा जीते भी और फिर नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री बने। झारखंड भाजपा में बड़ा आदिवासी चेहरा होने के कारण पार्टी में उनका कद बढ़ता रहा, लेकिन कभी सियासी जोड़-तोड़ में माहिर माने जानेवाले अर्जुन मुंडा अपने ही घर में बेगाने होते गये। जमीन से पूरी तरह कट जाने और अपनों को नजरअंदाज करने की कीमत उन्हें 2024 में चुकानी पड़ी। अर्जुन मुंडा आज जिस दोराहे पर खड़े हैं, उसके लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं है। झामुमो के रास्ते भाजपा में आने और सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड अपने नाम करनेवाले अर्जुन मुंडा कभी कांग्रेस के विजय सिंह सोय को पराजित कर ‘जाइंट किलर’ बने थे, लेकिन आज यह कद्दावर नेता अपने ही बुने जाल में फंस कर बुरी तरह छटपटाने को मजबूर है। अर्जुन मुंडा के उत्थान और फिसलन की कहानी बेहद रोमांचक है और इस पर गहन शोध हो सकता है कि कैसे एक लोकप्रिय राजनीतिक शख्सियत देखते-देखते अनिश्चितता के अंधकार में खोने लगा है। अर्जुन मुंडा के इसी उत्थान और फिसलन की कहानी के साथ उनकी सियासी वापसी के रास्ते में क्या है चुनौती, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में झारखंड में जिस एक सीट के परिणाम ने किसी को चौंकने के लिए मजबूर नहीं किया, वह था खूंटी। 2019 के संसदीय चुनाव में खूंटी सीट से अर्जुन मुंडा की जीत महज 1445 वोटों से हुई थी, लेकिन इस बार चुनाव से पहले ही उनकी संभावनाएं सवालिया घेरे में थीं। हुआ भी ऐसा ही, जब अर्जुन मुंडा करीब डेढ़ लाख वोटों के अंतर से कांग्रेस के कालीचरण मुंडा से पराजित हो गये। इसके साथ ही कभी भाजपा के इस सबसे बड़े आदिवासी चेहरे के राजनीतिक भविष्य के बारे में चर्चाएं शुरू हो गयी हैं। अर्जुन मुंडा अब क्या करेंगे, कैसे अपनी वापसी करेंगे और भाजपा उनका कैसे इस्तेमाल करेगी, ये तमाम सवाल झारखंड की फिजाओं में तैर रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि तीन बार मुख्यमंत्री और दो बार सांसद और केंद्र में मंत्री का पद संभाल चुका चुका कोई नेता इतनी जल्दी राजनीतिक बियाबान में खो जायेगा, यह सहज स्वाभाविक नहीं है।

    अर्जुन मुंडा की पृष्ठभूमि
    देश भर में सबसे कम उम्र में किसी राज्य का मुख्यमंत्री बननेवाले और कभी झारखंड में भाजपा के सबसे दमदार नेता के रूप में ख्याति हासिल करनेवाले अर्जुन मुंडा राज्य की राजनीति में आज कहीं गुम से हो गये हैं। अपने राजनीतिक कौशल और समझ की बदौलत तीन बार मुख्यमंत्री का पद संभालनेवाले अर्जुन मुंडा खूंटी से चुनाव हारने के बाद से ही सीन से गायब हैं। वह न तो भाजपा में नजर आ रहे हैं और न ही झारखंड की राजनीति में उनकी कोई भूमिका दिख रही है।

    इस तरह फलक पर चमक उठे अर्जुन मुंडा
    2019 में नरेंद्र मोदी सरकार में पहली बार शामिल होनेवाले अर्जुन मुंडा वर्ष 2003, 2005 और 2010 में झारखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। वर्ष 2014 में वह खरसावां विधानसभा सीट से चुनाव हार गये थे। झामुमो के प्रत्याशी दशरथ गगराई ने उन्हें हराया था। पांच वर्ष के वनवास के बाद उन्हें भाजपा ने वरिष्ठ सांसद कड़िया मुंडा की जगह खूंटी संसदीय क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतारा। अर्जुन मुंडा के मैदान में उतरते ही यह हॉट सीट बन गयी। सबकी निगाहें इस सीट पर टिक गयी। महज 1445 वोटों से अर्जुन मुंडा कांग्रेस के कालीचरण मुंडा को हरा कर सांसद बने। झारखंड में सबसे कम अंतर से जीतने वाले सांसद अर्जुन मुंडा ही रहे।

    27 साल में विधायक और 35 साल में बने मुख्यमंत्री
    अर्जुन मुंडा 27 साल की उम्र में पहली बार विधायक बने। वर्ष 1995 में उन्होंने खरसावां विधानसभा सीट से झारखंड मुक्ति मोर्चा से चुनाव लड़ा और कांग्रेस के दबंग नेताओं में शुमार रहे विजय सिंह सोय को हरा कर पहली बार विधायक बने। वर्ष 2000 में अर्जुन मुंडा भाजपा में शामिल हो गये। 35 साल की उम्र में 2003 में झारखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बने। बतौर भाजपा प्रत्याशी, 2000 और 2005 के चुनावों में भी उन्होंने खरसावां से जीत हासिल की। वर्ष 2000 में अलग झारखंड राज्य का गठन होने के बाद अर्जुन मुंडा बाबूलाल मरांडी की कैबिनेट में समाज कल्याण मंत्री बनाये गये। वर्ष 2003 में समरेश सिंह, लालचंद महतो, मधु सिंह सरीखे नेताओं के विरोध के कारण बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा और राज्य की कमान 18 मार्च 2003 को अर्जुन मुंडा को पहली बार सौंपी गयी। इसके बाद 12 मार्च 2005 को दोबारा उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन निर्दलीयों से समर्थन नहीं जुटा पाने के कारण उन्हें 14 मार्च 2006 को त्यागपत्र देना पड़ा। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें जमशेदपुर लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया। उन्होंने लगभग दो लाख मतों के अंतर से जीत हासिल की। 11 सितंबर 2010 को वह तीसरी बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने। उस समय तक अर्जुन मुंडा झारखंड में ही नहीं, पूरे देश में बड़े आदिवासी नेता के रूप में चर्चित हो गये थे। सियासी मैदान में उन्हें जोड़-तोड़ का माहिर खिलाड़ी कहा जाता था और झारखंड में भाजपा के विस्तार में उन्होंने अहम भूमिका निभायी।

    ऐसे गिरने लगा अर्जुन मुंडा का ग्राफ
    इसके बाद आया 2014, जब अर्जुन मुंडा खरसावां विधानसभा सीट से चुनाव हार गये और इसके साथ ही वह राजनीति के हाशिये पर धकेल दिये गये। यह अर्जुन मुंडा ही थे, जिनकी बदौलत भाजपा ने 2014 में 37 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि उसकी सहयोगी आजसू को पांच सीटें मिली थीं। भाजपा ने सरकार बनायी और भाजपा ने बड़ा सियासी प्रयोग रघुवर दास को सीएम बना कर किया। उस अवधि में अर्जुन मुंडा किसी अछूत की तरह अलग-थलग रहे। तब कहा जाने लगा था कि अर्जुन मुंडा की पारी खत्म हो गयी है। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें खूंटी संसदीय सीट से मैदान में उतारा। अर्जुन मुंडा ने पार्टी आलाकमान के भरोसे को कायम रखा और पार्टी के एक खेमे के असहयोग के बावजूद चुनाव जीतने में सफल रहे। यह तथ्य सार्वजनिक है कि अर्जुन मुंडा के रास्ते में भाजपा के कई बड़े नेता लगातार रोड़े अटकाते रहे। यहां तक कि चुनाव में पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को खूंटी जाने से भी मना कर दिया गया था। इसके बावजूद अर्जुन मुंडा ने जीत हासिल की और बाद में केंद्रीय कैबिनेट में शामिल हुए।

    सलाहकारों ने दूर कर दिया अपनों से
    अर्जुन मुंडा के सियासी करियर का ग्राफ उनके तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के साथ ही गिरने लगा था। कभी बेहद लोकप्रिय और आम लोगों से रिश्ता बनाने में माहिर अर्जुन मुंडा को ऐसे लोगों ने घेर लिया, जो न तो आम लोगों की भावनाएं समझते थे और न ही उस वर्ग से आते थे, जिसका प्रतिनिधित्व अर्जुन मुंडा करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अर्जुन मुंडा धीरे-धीरे लोगों से कटने लगे। जो अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री रहते किसी भी परिचित के घर अचानक पहुंच जाया करते थे, जब कभी भी फोन घुमा कर हाल चाल लेते थे, धीरे-धीरे लोगों से दूर होते गये। सफेद लक-दक कपड़ों, सोने के मोटे-मोटे चेन और लग्जरी गाड़ियों वाले सहयोगियों ने सहज-सरल अर्जुन मुंडा को गोल्फ कल्चर में फंसा दिया। पद से हटने के बाद भी अर्जुन मुंडा ने उस दौर को वापस लाने की कोशिश की, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
    फिर 2019 में पहले सांसद और फिर मंत्री बनने के बाद अर्जुन मुंडा का वह दौर वापस नहीं आ सका। उनके साथ वैसे लोग थे, जिन्हें न तो आम लोगों से कोई मतलब था और न ही पार्टी कार्यकर्ताओं से। इन लोगों से घिर कर अर्जुन मुंडा भी जमीन से कटते गये और नतीजा आज सामने है।

    भाजपा के लिए बड़ा चेहरा रहे
    अर्जुन मुंडा कभी एक समुदाय या जातीय समूह के नेता नहीं रहे। उनकी लोकप्रियता और जनाधार के पीछे उनकी यही समझदारी है। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने झारखंड में हमेशा भाजपा के किले को न केवल सुरक्षित रखा, बल्कि झारखंड को विकास के रास्ते पर आगे ले जाने में अपनी कुशलता का परिचय भी दिया। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि उसी अर्जुन मुंडा धीरे-धीरे अपनी जमीन से कटते गये।

    अर्जुन मुंडा के बारे में कहा जाता है कि वह हमेशा दूर की राजनीति करते हैं। वह मानते हैं कि एक दिन उनका भी समय आयेगा और तब वह एक बार फिर झारखंड की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभायेंगे। वह उस समय के इंतजार में हैं, क्योंकि जल्दबाजी में वह कोई कदम नहीं उठाते। दूसरी बार चुनावी पराजय के बाद उनके सामने खुद को झारखंड की राजनीति में वापस लाने का चैलेंज है। अर्जुन मुंडा को सबसे पहले अपनी राजनीतिक जमीन तलाशनी होगी। कोई भी नेता तभी किसी ऊंचाई को छू सकता है, जब उसके पास अपनी राजनीतिक जमीन हो। उस जमीन को उर्वर बनाने के लिए उसे लोेगों के बीच रहना होगा। कार्यकर्ताओं के सुख दुख में साथ निभाना होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि अर्जुन मुंडा इतनी जल्दी हार नहीं मानेंगे और अपनी खोयी जमीन को वापस पाने के लिए अथक परिश्रम करेंगे।

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