विशेष
इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने भारत के संविधान का गला घोंट दिया था
तानाशाही के उस भयानक दौर में महान भारत की आत्मा तक सिहर उठी थी
विरोध में उठनेवाले हर स्वर को सत्ता की ताकत के सहारे कुचल दिया गया था
आधी रात को छीन लिये गये थे आम भारतीय को दिये गये मौलिक अधिकार
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
किसी भी देश-समाज के लिए तारीखों का बड़ा महत्व होता है। जहां तक भारत की बात है, तो इसके लिए कई तारीखें महत्वपूर्ण हैं, लेकिन 26 जून, 1975 एक ऐसी तारीख है, जिसे भारत के 140 करोड़ लोग भूल जाना चाहते हैं, पर इसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस तारीख को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के संविधान की हत्या करने के दिन के रूप में याद किया जाता है। आज से 50 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश कीलोकतांत्रिक संरचना को सत्ता के मद में इतनी बुरी तरह निचोड़ दिया था कि उसका दर्द आज तक रह-रह कर उभर आता है। जिस भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का अभिमान था, उसकी आत्मा को सत्ताधारी दल कांग्रेस ने पिंजरे में कैद ही नहीं कर दिया था, बल्कि अपने विरोध में उठनेवाली हर आवाज को जबरन बंद कर दिया था। नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को सत्ता के बूटों तले रौंद दिया गया था। अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को जब्त कर लिया गया था। वह ऐसा दौर था, जिसमें एकबारगी ऐसा लगने लगा था कि भारत अब दोबारा कभी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकेगा और न खुली हवा में सांस ले सकेगा। भारतीय लोकतंत्र पर यह सबसे बड़ा आघात था और 26 जून की तारीख को इसीलिए हमेशा याद रखने की जरूरत है। इमरजेंसी के उस काले दिन के 50 साल पूरा होने के मौके पर इसके तमाम पहलुओं के बारे में बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

50 वर्ष पहले 25 जून 1975 की आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। पूरा देश इस फैसले से भौंचक रह गया। 26 जून, 1975 को सुबह रेडियो पर इमरजेंसी का एलान हुआ था। इस एलान से कुछ घंटे पहले आधी रात के आसपास तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में अपने खिलाफ बढ़ती नाराजगी को दबाने के लिए देश को इमरजेंंसी की आग में झोंक दिया था। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में इस दिन को देश के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन की संज्ञा दी जाती है। 50 साल पहले आज के ही दिन देश के लोगों ने रेडियो पर वह एलान सुना और देश में जंगल की आग की तरह खबर फैल गयी कि सारे भारत में अब आपातकाल की घोषणा कर दी गयी है। 50 साल के बाद भले ही देश के लोकतंत्र की एक गरिमामयी तस्वीर सारी दुनिया में प्रशस्त हो रही हो, लेकिन आज भी अतीत में 26 जून का दिन लोकतंत्र के एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। भारतीय इतिहास में लोकतंत्र के लिए वह काला दिन था। आपातकाल मार्च 1977 तक चला। इस दौरान भारत में लोकतंत्र लगभग खत्म कर दिया गया और एक तानाशाही शासन की शुरूआत इस दौरान नागरिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन हुआ था। इंदिरा गांधी की सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया, मीडिया की आजादी छीन ली, लोगों के मौलिक अधिकारों को रौंदा, मानवाधिकारों का उल्लंघन किया और आम नागरिकों को बेरहमी से प्रताड़ित किया गया और हत्या तक की गयी। इस दौर में संविधान को भी कमजोर किया गया। हालांकि, आपातकाल का हर पहलू चौंकाने वाला था, लेकिन खासकर छात्रों पर किये गये अत्याचार बेहद निंदनीय थे। सब कुछ सिर्फ एक परिवार की तानाशाही को बरकरार रखने के लिए। पहली बार ऐसा मौका था जब देश में अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की गयी थी। लोगों को आपातकाल के मतलब भी नहीं पता था। आपातकाल की घोषणा के साथ ही आम जनता के सभी मौलिक अधिकार छीन लिये गये थे। किसी तरह की अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था। आम जनता, मीडिया समूह, रेडियो, और अन्य प्रचार के माध्यमों पर पूरी पाबंदी लगा दी गयी थी। आपातकाल की घोषणा के कुछ घंटे के भीतर की प्रमुख समाचार पत्रों के कार्यालयों में बिजली की आपूर्ति काट दी गयी थी।

आपातकाल की सूचना के बाद से ही देश में ढूंढ़-ढूंढ़ कर विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था। तत्कालीन समय के बड़े नेता जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडिस को जेल में डाल दिया गया। विपक्षी नेताओं के साथ साथ समाज में प्रभाव रखने वाले कांग्रेस के विपरीत विचारधारा वाले सभी लोगों और आम जनता में बेगुनाहों को भी जेल में भर दिया गया था, जेलों में जगह नहीं बची थी। करीब 1.40 लाख लोगों आपातकाल में बिना किसी सुनवाई के राजनीतिक बंदी बनाया गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आपातकाल के दौरान पूरे देश का नियंत्रण गांधी-नेहरू परिवार के हाथ में था। कांग्रेस ने आपातकाल की आड़ में वो सभी काम किये, जो ना सिर्फ राजनीतिक लिहाज से अशोभनीय थे, बल्कि अमानवीय भी थे। प्रेस में सरकार या आपातकाल की आलोचना करना अपराध की श्रेणी में आ चुका था। प्रेस-मीडिया पर भी सेंसरशिप लगा दी गयी थी। हर अखबार में सेंसर अधिकारी तैनात किया गया था। हालात यह थे कि कांग्रेस समर्थित उस अधिकारी के अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर बिना किसी सुनवाई के गिरफ्तारी हो रही थी।

यही नहीं, कांग्रेस का विरोध करने वाले 26 संगठनों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय विचार और भारतीयता के लिए काम करने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। आपातकाल के मुखर आलोचक रहे फिल्मी कलाकारों को भी इसका दंश झेलना पड़ा। किशोर कुमार के गानों को रेडियो और दूरदर्शन पर बजाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। देव आनंद को भी अनौपचारिक प्रतिबंध का सामना करना पड़ा था। देश में आपातकाल लागू होने के बाद कई त्रासद घटनाएं हुईं। दिल्ली का तुर्कमान गेट कांड भी इनमें एक था। मुस्लिम बहुल उस इलाके को संजय गांधी ने दिल्ली के सौंदर्यीकरण के नाम पर खाली करा दिया। यह काम लोगों की सहमति से नहीं, बल्कि जबरन किया गया गया। बुल्डोजर से लोगों के घर ढहाये गये। जिन्होंने विरोध किया, उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया। विरोध के दौरान पुलिस ने लाठियां बरसायीं और आंसू गैस के गोले छोड़े। पुलिस ने गोलियां भी चलायीं। चार लोगों की जान चली गयी। संजय गांधी की सनक के चलते सड़क से भिखारियों, झोपड़पट्टी के लोगों और राहगीरों को पकड़ कर जबरन नसबंदी के टारगेट पूरे किये जाने लगे। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 18 अक्टूबर 1976 को नसबंदी अभियान का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने सीधी फायरिंग कर दी थी, जिसमें 42 बेगुनाहों की मौत हो गयी थी। मृतकों की स्मृति में यहां शहीद चौक बना हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इमरजेंसी के दौरान देशभर में 1.10 करोड़ से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गयी थी। 21 महीने के बाद जयप्रकाश का आंदोलन निर्णायक मुकाम तक जा पहुंचा। इंदिरा गांधी को सिंहासन छोड़ना पड़ा। मोरारजी देसाई की सरकार ने 28 मई 1977 में आपातकाल के दौरान हुए ज्यादतियों को जानने के लिए जस्टिस जे सी शाह की अध्यक्षता में शाह कमीशन गठित किया। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया था कि जिस वक्त आपातकाल की घोषणा की गयी, उस वक्त ना देश में आर्थिक हालात खराब थे और ना ही कानून व्यवस्था में किसी तरह की कोई अड़चन थी। इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल अपनी इच्छा के अनुसार लगाया था और इस संबंध में उन्होंने अपने पार्टी के कुछ लोगों को छोड़कर किसी भी सहयोगी से कोई विमर्श नहीं किया था।

आपातकाल में गिरफ्तार किये गये अधिकतर सम्मानित और बुजुर्ग नेताओं को चिकित्सा सुविधा की आवश्यकता थी, जो उन्हें अस्पताल में उपलब्ध नहीं करायी गयी। इंदिरा गांधी की तानाशाही का एक नमूना इस बात से भी पता चलता है कि शाह आयोग ने नसबंदी कार्यक्रम पर सरकार के रवैये की बेहद आलोचना की थी। आयोग ने कहा था कि पटरी पर रहने वाले और भिखारियों की जबरदस्ती नसबंदी की गयी। इसके साथ-आॅटो रिक्शा चालकों के ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए नसबंदी सर्टिफिकेट दिखाना अनिवार्य कर दिया गया था। आयोग ने यह स्पष्ट रूप से माना था कि सरकारी तंत्र का उपयोग कर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए इस पूरे आपातकाल का इस्तेमाल किया गया।

जनवरी 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह स्वीकार किया कि वर्ष 1975 में आपातकाल के समय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था। तत्कालीन अटॉर्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में यह कबूल किया था कि जीने का अधिकार स्थगित है। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्थिति को लेकर एक श्वेत पत्र एक अगस्त 1977 में संसद में पेश किया गया। 87 पेज के श्वेत पत्र से यह स्पष्ट हुआ कि तानाशाही की इच्छा रखने वाली इंदिरा गांधी ने अपनी अध्यक्षता में तय किया था कि प्रेस काउंसिल को भंग कर दिया जाये और तत्कालीन चारों समाचार एजेंसियों को मिलाकर एक कर दिया जाये, जिससे उन्हें सेंसर करने और संभालने में आसानी होगी।

राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के जो नेता पिछले कुछ समय अक्सर लोकतंत्र बचाने की बात कर रहे हैं। संसद से सड़क तक वे संविधान की किताब लेकर घूमते हैं, उन्हें याद दिलाना जरूरी है कि उनकी पार्टी के नेता ने दादागिरी करके इस देश पर 21 महीने आपातकाल लगाकर लोगों को जेल में ठूंस दिया था। असल में, 1975 में लगाया हुआ आपातकाल इंदिरा गांधी की गलती नहीं थी, बल्कि इंदिरा गांधी का अहंकार था। दिसंबर 2024 को सदन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपातकाल का उल्लेख किया और कहा, दुनिया में जब भी लोकतंत्र की चर्चा होगी तो कांग्रेस के माथे से कभी यह कलंक मिट नहीं सकेगा क्योंकि लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। भारतीय संविधान निर्माताओं की तपस्या को मिट्टी में मिलाने की कोशिश की गयी थी।

इमरजेंसी के एलान से 13 दिन पहले इलाहाबाद में पड़ी इसकी नींव
तारीख 12 जून 1975। जगह, इलाहाबाद हाइकोर्ट परिसर। पूरे देश की नजरें यहां के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा पर टिकी थीं। जस्टिस सिन्हा इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण मामले में अपना फैसला सुनाने वाले थे। यह मामला साल 1971 के चुनावों से जुड़ा था। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने रायबरेली से राजनारायण को हराया था। हारने के बाद राजनारायण ने चुनावी नतीजों को कोर्ट में चुनौती दी थी। उन्होंने इंदिरा गांधी पर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग, चुनाव में घोटाले और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था और मांग की थी कि यह चुनाव रद्द किया जाये। 12 जून की सुबह करीब 10 बजे जस्टिस सिन्हा अपने चैंबर से कोर्ट रूम में आये और अपना फैसला सुनाने लगे। फैसले में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली का दोषी करार दिया और चुनाव रद्द कर दिया। साथ ही जस्टिस सिन्हा ने यह भी कहा कि आने वाले छह सालों तक इंदिरा चुनाव नहीं लड़ सकेंगी। ऐसा पहली बार हुआ था कि भारत के प्रधानमंत्री का चुनाव ही रद्द कर दिया गया। इंदिरा गांधी किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थी। उन्होंने हाइकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया। 23 जून को इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को रोकने के लिए याचिका दायर की। अगले ही दिन जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने याचिका पर सुनवाई करते हुए फैसला सुनाया। उन्होंने कहा कि वह हाइकोर्ट के फैसले पर पूरी तरह रोक नहीं लगायेंगे, लेकिन इंदिरा प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती हैं। साथ ही यह भी कहा कि इस दौरान वह संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं, लेकिन वोट नहीं कर सकेंगी। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा को थोड़ी राहत जरूर दी, लेकिन इंदिरा के लिए यह काफी नहीं था। इंदिरा गांधी के पास यह विकल्प था कि वह किसी और को प्रधानमंत्री बना सकती थीं, लेकिन कहा जाता है कि संजय गांधी इस बात के लिए राजी नहीं थे।

एक तरफ इंदिरा गांधी को कोर्ट से राहत नहीं मिली थी, दूसरी तरफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पूरा विपक्ष सड़कों पर उतर कर इंदिरा के इस्तीफे की मांग कर रहा था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद तो विपक्ष और आक्रामक हो गया था। 24 जून को फैसला आया और 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली का आयोजन किया। इस रैली में लाखों की तादाद में भीड़ जुटी, जिसे संबोधित करते हुए जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने रामधारी सिंह दिनकर की कविता का अंश पढ़ते हुए कहा, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की।

इंदिरा गांधी अब चौतरफा घिर चुकी थीं। इधर जेपी की रैली खत्म हुई और उधर इंदिरा गांधी राष्ट्रपति भवन पहुंचीं। 25-26 जून की दरम्यानी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के आदेश पर दस्तखत करा लिये। 26 जून सुबह छह बजे कैबिनेट की आपातकालीन बैठक बुलायी गयी। अभी तक देश को इस फैसले की भनक तक नहीं थी। इंदिरा गांधी ने यह फैसला लेने से पहले अपने मंत्रिमंडल से सलाह तक नहीं ली थी। करीब आधे घंटे चली कैबिनेट बैठक के बाद इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी पर देश में इमरजेंसी लगाने की घोषणा की। इसके साथ ही आजाद भारत के इतिहास के सबसे बुरे दौर की शुरूआत हो गयी। विपक्षी नेताओं समेत कांग्रेस के नेताओं को भी जेल में डाल दिया गया, प्रेस पर पाबंदी लगा दी गयी, नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिये गये और देश में लोकतंत्र खत्म हो गया। अगले दिन देश में अखबार नहीं छप पाये, क्योंकि सरकार ने अखबार के दफ्तरों की बिजली काट दी थी। जो अखबार छप रहे थे, उन पर सख्त पाबंदिया लगायी गयीं। अखबारों में क्या छपेगा क्या नहीं, इसके लिए सरकार ने अखबारों के दफ्तर में अफसरों को तैनात कर दिया। इमरजेंसी के दौरान इंदिरा के छोटे बेटे संजय गांधी ने नसबंदी प्रोग्राम चलाया, जिसमें पकड़-पकड़ कर लोगों की नसबंदी की गयी। लाखों लोगों को जेल में डाल दिया गया। पूरा देश एक बड़ी जेल बन गया। इस दौरान इंदिरा गांधी ने नये-नये कानून लाकर संविधान को कमजोर करने की कोशिश भी की।

इस भयंकर त्रासदी को पूरा देश 21 महीनों तक झेलता रहा। जनवरी 1977 में घोषणा की गयी कि 16 मार्च को देश में चुनाव होंगे। देश में चुनाव हुए और इंदिरा गांधी को जनता ने इमरजेंसी का सबक सिखा दिया। इंदिरा और संजय गांधी दोनों चुनाव हार गये। इसके बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म हो गया, लेकिन यह देश का सबसे काला वक्त साबित हुआ, जिसका दर्द लोगों के दिलों में आज भी जिंदा है।

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