विशेष
दोनों अपनी बेहतरीन चाल चलने की जुगत में
किंग के पास गिनाने को बहुत कुछ, मेकर के पास वही घिसे-पिटे मुद्दे और फार्मूला
जातिवाद के लिए चर्चित राज्य में इस बार क्या विकास रहेगा पैमाना या गणना के फॉर्मूले में उलझेगी जनता
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
बिहार, यानी दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ानेवाला प्रदेश एक बार फिर लोकतंत्र के सबसे बड़े अनुष्ठान, यानी चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। 243 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव के लिए तैयारियां चरम पर हैं और इस साल के अंत में चुनाव होना तय है। इस बार बिहार की चुनावी लड़ाई किसी अन्य राज्य की तुलना में बिल्कुल अलग है। वहां गठबंधन भी नये तरह का है और प्रमुख चेहरे केंद्र की राजनीति से अलग हैं। एनडीए जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चेहरे पर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ेगा, वहीं महागठबंधन का चेहरा तेजस्वी यादव होंगे। बिहार की राजनीति पर पिछले तीन दशक से दो नेताओं का प्रभाव रहा है। ये नेता हैं नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव। कभी सियासत के ‘किंगमेकर’ कहे जानेवाले लालू यादव अब राजनीतिक रूप से भले ही उतने सक्रिय न हों, लेकिन बिहार में उनका प्रभाव कम नहीं हुआ है। लालू की राजनीतिक विरासत को अब उनके बेटे तेजस्वी यादव बखूबी आगे बढ़ा रहे हैं। बात नीतीश कुमार की करें, तो वह दो दशक से बिहार के मुख्यमंत्री, यानी ‘किंग’ हैं। उन्होंने 2015 में कुछ महीनों के लिए पद छोड़ा था और जीतन राम मांझी को सीएम बनाया था। नीतीश ने इस दौरान गठबंधन के साथी जरूर बदले हैं, लेकिन सीएम की कुर्सी उनके पास ही रही है। इस तरह बिहार में ‘किंग’ भी हैं, ‘किंगमेकर’ भी और गठबंधनों का जादू भी। अगर कहें कि भारत के अन्य सभी राज्यों की तुलना में बिहार की राजनीति बहुत ज्यादा टेढ़ी है, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। कैसी है बिहार के चुनावी मुकाबले की तस्वीर और क्या हैं संभावनाएं, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की तैयारियां जोरों पर हैं। हर तरफ चर्चा यही है कि बिहार में इस बार मुद्दे क्या होंगे, क्योंकि आम तौर पर जातीय आधार पर सियासत के लिए चर्चित बिहार के मतदाता अब इससे ऊबते दिखायी दे रहे हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि इस बार कुछ ‘नया’ हो सकता है। लेकिन इस ‘नये’ में भी एक पुरानी बात होगी और वह है ‘किंग’ बनाम ‘किंगमेकर’ का मुकाबला।
नीतीश हैं ‘किंग’ तो लालू ‘किंगमेकर’
बिहार में चुनावी चेहरा कोई भी हो, मुकाबला तो इन दो पुराने सहयोगियों, यानी नीतीश और लालू के बीच ही होगा। नीतीश अब उम्र की ढलान पर है, तो लालू भी चुनावी राजनीति से दूर हैं। लेकिन बिहार की राजनीति में दोनों का असर अब भी यथावत है। इसलिए इन दोनों की राजनीति को करीब से जाननेवाले कहते हैं कि बिहार का चुनाव इस बार मुद्दों के साथ-साथ इन दोनों की आखिरी लड़ाई का गवाह बनेगा। यानी मुकाबला ‘किंग’ बनाम ‘किंगमेकर’ का होगा।
बिहार के चुनावी मुद्दे
बिहार में मतदाता जाति के आधार पर वोट करते हैं और राज्य को राजनीतिक वैज्ञानिक एडवर्ड बैनफील्ड द्वारा परिभाषित ‘अनैतिक परिवारवाद के पर्याय’ के रूप में देखा जाता है। राज्य में सत्ता और विशेषाधिकार के लिए होड़ एक शून्य-सम खेल है, जिसमें कुछ लोगों का सशक्तिकरण दूसरों के दुख पर निर्भर करता है। बिहार में जाति-आधारित सामाजिक न्याय की राजनीति भी इसी स्वार्थ से प्रेरित है, जिससे ग्रामीण समाज के मध्य और निचले वर्गों के बीच रणनीतिक गठबंधन बने हैं। इस लिहाज से इस बार का चुनावी मुकाबला बेहद कांटे का और नजदीकी होता दिखाई दे रहा है।
बिहारी सिर्फ वोट नहीं देते, बल्कि अपनी जाति को वोट देते हैं
हालांकि, सामाजिक-आर्थिक प्रगति मुख्य रूप से ओबीसी और एससी रैंकों के भीतर विशिष्ट जातियों और परिवारों तक ही सीमित रही है। राज्य से बाहर प्रवास का मतलब है कि अधिकांश परिवारों में एक या अधिक सदस्य हैं, जो कहीं और अपनी आजीविका कमा रहे हैं, जिससे रिश्तेदारी के बंधन मजबूत हो रहे हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी बढ़ रही है। अनैतिक परिवारवाद अभी भी जारी है, लेकिन अंतर-क्षेत्रीय गतिशीलता से उत्पन्न व्यक्तिगत आकांक्षाओं के साथ।
बिहार में खूब है परिवारवाद
विकास की कथित राजनीति से असंतोष पूरे बिहारी समाज में व्याप्त है। जहां नेता हमेशा दलितों और पिछड़ों की बात करते हैं। लेकिन लोग मंडल-प्रेरित सामाजिक न्याय की सीमाओं को तेजी से पहचान रहे हैं। पिछले डेढ़ दशक में दो प्रतिद्वंद्वी जाति गठबंधन उभरे हैं: पूर्व प्रमुख जातियों को ओबीसी और एससी जातियों के वर्गीकरण के साथ जोड़ता है और बाद वाला सत्ता के लिए बोली लगाने के लिए पिछड़ा, दलित और मुसलमानों पर निर्भर करता है।
2023 की जाति गणना का असर
2023 में बिहार की जाति जनगणना बिना किसी विरोध के हुई। नीतीश कुमार इन गठबंधनों के बीच एक अजीब ओवरलैप बने रहे, मुख्यमंत्री पद को बनाये रखने के लिए जरूरत पड़ने पर पक्ष बदलते रहे। पटना उच्च न्यायालय द्वारा जाति आरक्षण पर अदालत द्वारा अनिवार्य सीमा को बढ़ाने के नीतीश के प्रयास को खारिज करने के तुरंत बाद उन्होंने भाजपा का रुख किया।
जदयू और भाजपा की नजर इबीसी पर
जदयू और भाजपा की गैर-यादव ओबीसी वोट में एक समान रुचि है, जिसे राज्य की राजनीतिक भाषा में इबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) कहा जाता है। 36.01 फीसदी के साथ यह बिहार का सबसे बड़ा जातिगत वोट बैंक है, भले ही इसमें विभिन्न जातियां शामिल हैं। अधिकांश बिहारी मुसलमान भी इबीसी के रूप में वगीर्कृत हैं, जो पड़ोसी यूपी और पश्चिम बंगाल में दिखाई देने वाले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को रोकता है।
लोकसभा चुनाव का उदाहरण काफी है
पिछले साल एनडीए ने 40 लोकसभा सीटों में से 31 पर 47.23% वोटों के साथ जीत हासिल की, जो इंडिया गठबंधन की पार्टियों से लगभग 8% अधिक है। फिर भी जदयू और भाजपा ने क्रमश: 18.52% और 20.52% वोट हासिल किये, जो मिलाकर इंडिया पार्टियों के लगभग बराबर है। हालांकि, चिराग पासवान की लोजपा द्वारा दलित वोटों (6.47%) के जुटाव ने अंतिम मिलान में महत्वपूर्ण अंतर किया। लगभग पांच में से एक बिहारी एससी है।
लालू-नीतीश दोनों में ही श्रेय लेने की होड़
दोनों गठबंधन अब जाति जनगणना का श्रेय लेते हैं, हालांकि इंडिया पार्टियों ने नीतीश पर जाति गणना के आधार पर नीतियां नहीं बनाने का आरोप लगाया और एनडीए भागीदारों ने एक राष्ट्रव्यापी जनगणना की ओर देखा, जिसे वे एक अधूरा सर्वेक्षण कहते हैं। इंडिया गठबंधन के लिए जाति जनगणना राज्य के 85% लोगों के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व का आधार बनने का वादा करती है, जिसे अगड़ी जाति के रूप में वगीर्कृत नहीं किया गया है। एनडीए के लिए जाति जनगणना सामाजिक न्याय के पुराने मॉडल में खामियों को उजागर करती है और पिछड़े वर्गों के भीतर भारी असमानताओं को उजागर करती है।
अगड़ी जातियों की गणना सही नहीं
फिर भी सार्वजनिक नीति को ठीक करने के लिए गणना अभ्यासों से अधिक की आवश्यकता होती है। अदालतों को धता बताने के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति अभी तक नहीं देखी गयी है। इडब्ल्यूएस श्रेणी ने किसी भी मामले में, अगड़ी जातियों की गणना को उचित नहीं ठहराया। न ही अदालतों ने इसे खारिज किया। अब एक राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना इस तरह के नीतिगत हस्तक्षेपों को रेखांकित करने वाली एक नयी दो दलों की सहमति का आधार बन सकती है।
जीते कोई भी, इस बार फायदा वोटरों को
जो भी गठबंधन जीते, बिहार के मतदाताओं को इस चुनावी चक्र में लाभ होने की संभावना है। नौकरियों और सीटों के मामले में अल्पकालिक लाभ सबसे बढ़कर मायने रख सकते हैं, लेकिन जाति-आधारित आरक्षण के भविष्य के लिए मध्यम से दीर्घकालिक निहितार्थों को भी छूट नहीं दी जा सकती है। किसी भी गठबंधन के पास अभी तक कोई जीतने का फार्मूला नहीं है। दोनों को बदलाव के लिए बेचैन मतदाताओं के बदलती मिजाज से जूझना होगा।
दो बजट पैकेज से कितना फायदा
बिहार के लिए 2024-25 के दो बजट पैकेज राज्य में बेहतर बुनियादी ढांचे और आजीविका विकल्पों के लिए मतदाताओं की मांगों के केवल सिरे पर ही केंद्रित हैं। यह देखा जाना बाकी है कि क्या मैदान में प्रमुख दल इन मांगों को पूरा कर सकते हैं। यदि यथास्थिति बनी रहती है, तो लोजपा या आरएलएम जैसी छोटी पार्टियां, जैसा कि अक्सर बिहार में होता है, किंगमेकर के रूप में उभर सकती हैं और प्रमुख दलों में अपनी हिस्सेदारी भी मांग सकती हैं। प्रशांत किशोर की जन सुराज और असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम भी अहम भूमिका निभा सकती है।
नीतीश को बखूबी पता है जमीनी हकीकत
जैसा कि नीतीश अच्छी तरह से जानते हैं, जीतने के साथ अपनी परेशानियां आती हैं। फिर भी सत्ता तक पहुंच के बिना अपने समर्थकों को फायदे देना मुश्किल है। इतिहासकार लुई नामियर के शब्दों में, कोई भी बच्चा अपना केक बांटने के लिए अपने जन्मदिन की पार्टी में नहीं आता है। बिहार के राजनेता इसे अच्छी तरह से जानते हैं। चुनाव के दौरान ऐसे भी वादे किये जाते हैं, जिसके अलग साइड इफेक्ट हैं। सवाल यही है कि इस बार ‘किंग’ और ‘किंगमेकर’ में भारी कौन पड़ेगा?