एकता कानूनगो बक्षी: सूखे पत्तों, कागजों और धूल से बंद पड़ी वह नाली, पहली बारिश में ही फिर से खुलकर बहने लगी। कचरे और मिट्टी की कई परतों में दबी नाली क्या बही, जैसे स्मृतियां बह निकलीं, बारिश के पानी के साथ-साथ। थोड़ी मटमैली, थोड़ी पारदर्शी, बूंदों के जलतरंग की गूंज लिये मानो कोई धारा बह निकली मेरे अंत:करण में! जो छोटी-छोटी बस्तियां हुआ करती थीं कभी कस्बों के आसपास, धीरे-धीरे विकास के साथ-साथ शहरों में विलीन होती गर्इं। महानगरों के विकास में न सिर्फ कई छोटी आबादियां विलुप्त और रूपांतरित हो गयीं, बल्कि बहुत-सी वे चीजें भी कहीं बहुत नीचे दफ्न हो गयीं, जिनसे हमारे बचपन की प्रफुल्लता जुड़ी हुई थीं।
सच तो यह है कि विकास की दौड़ में शहर के शहर तब्दील हो गए हैं कंक्रीट के पहाड़ों में। ऐसे में उस संकरी-सी नाली का मिल जाना शहर में बचपन के किसी दोस्त से मुलाकात होने जैसा महसूस हुआ। उन दिनों तेज गरमी के कारण हम बच्चे जैसे घरों में कैद ही कर दिए जाते थे। स्कूलों में ग्रीष्मावकाश होता था दो माह का। लूडो, सांप-सीढ़ी और कैरम से भी आखिर कब तक काम चलाया जा सकता था। घर से बाहर निकलने के लिए मन तड़पता रहता था। थोड़े-से बादल घिरते तो बारिश में भीगने की कल्पना से ही रोमांच होने लगता। बारिश तो अपने वक्त पर ही आती थी, मगर जब वह आती तो खूब आती। जब भी मूसलाधार बारिश होती थी, पानी कई दिन तक झमाझम बरसता रहता। कुछ समय के लिए घरों के सामने पानी भी जमा हो जाता था और सड़क नजरों से ओझल हो जाती।
आने-जाने वाले थोड़ी देर के लिए बरामदों और बरसाती में रुकने के लिए विवश हो जाते थे। हमारे घर की बरसाती में आश्रय लेने वाले से अगर थोड़ा परिचय निकल आता तो चाय-पकौड़ों से मेजबानी के योग भी बन जाते थे। पानी से भरी सड़क जैसे तालाब की शक्ल ले लेती थी। हमारा मन करता तो बड़ों की नजरें बचा कर उसमें कूद भी जाते थे।बरसात में भीगे राहगीर कुछ देर इंतजार करते रास्ता साफ होने का, और फिर एक छोटी-सी नाली बड़ी ही मुस्तैदी के साथ अपने काम को अंजाम देती। पूरी सड़क का पानी धीरे-धीरे संकरी नाली से होकर बह जाता। थोड़ी देर में राहगीरों को रास्ता दिखने लगता, बिना तकलीफ का सामना किये उनके वाहन सरपट और कदमताल कर रहे लोग बारिश का मजा लेते हुए भीगते-भागते नाली के बहते पानी को निहारते आगे बढ़ जाते। इस नाली का आखिरी हिस्सा पास के खुले मैदान पर खुलता था। इस जगह की कई यादें क्लोरोफिल की तरह मेरे मन को हरा बनाये हुए हैं। मुझे याद है बारिश के बाद वहां दूब उग आती थी। यह हरा चारा बहुत दिनों तक पशुओं के आहार में उपयोग होता था।
मौसम खुला होने पर एक बूढ़ी औरत अपनी बकरियों को लेकर वहां सुबह से ही डेरा जमा लेती थी। दिन भर बकरियां घास का लुत्फ उठाती रहतीं और वह माताजी दरांती से घास काट कर उसके कुछ छोटे गट्ठर बना लेतीं। वे बकरियों से बातें किया करती थीं। बकरियां भी बड़े अनुशासन से उनके कहे पर ध्यान देती थीं। शाम को एक आवाज पर बकरियां उनके पास आकर इकट्ठी हो जातीं और फिर वे सब अपने घर की ओर लौट जाते थे।मैदान में हरी घास और उसके बीच बरसाती पानी के कई पोखर बन जाते थे, जहां अक्सर सफेद बगुले आया करते थे। बच्चे वहां खूब फुटबॉल खेलते थे। बड़ा ही मनभावन नजारा होता था।
कुछ लोगों ने उसका नाम ही ह्यतोहफा गार्डनह्ण रख दिया था। हर बरसात में बिना खर्च किए तोहफे के रूप में जो मिल जाता था, वह प्यारा-सा मखमली लॉन। संकरी-सी उस नाली का भी अपना जादू और आकर्षण था सबके लिए। छोटे बच्चों की नदी बन कर वह जैसे खूब इतराती थी। कभी कागज से बनी नावों, जहाजों को पार लगा देती थी, तो कभी तेज बहाव में अपने गर्त में ले लेती थी। कीड़े-मकोड़ों को हम कागज की बनी कश्ती में बैठा कर नदी के इस सिरे से अगले सिरे यानी ह्यतोहफा गार्डनह्ण तक पहुंचाने की मानो प्रतियोगिता करते थे। बड़ा मजा थाङ्घ खूब मस्ती थी। इस मौसम में जब फिर से मूसलाधार बारिश हुई है तो हाथ में पकड़े कागज से अचानक ही स्मृतियों की एक नाव-सी बन गई है। उस नाव में बैठ कर मैं जैसे ह्यतोहफा गार्डनह्ण की सैर को निकल पड़ी।इन दिनों शहर के अंदर खुली नालियां मुश्किल से ही दिखती हैं। पूरी सड़क ही नदी बन जाती है। मेरी छोटी-सी कागज की नाव इतनी बड़ी नदी से होकर गुजरने में अक्षम हो गई है। इस नाली में अगर अपनी कश्ती छोड़ भी दूं तो शायद ही वह तोहफा गार्डन तक का सफर पूरा कर पाए। फिर भी कोशिश करने में क्या हर्ज है!