मरांडी ने कहा- 81 प्रत्याशी उतारेंगे, कहीं यह प्रेशर पॉलिटिक्स तो नहींझारखंड के पहले मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी के बयान ने राज्य के विपक्षी खेमे में हलचल पैदा कर दी है। मरांडी ने चौंकाऊ बयान दिया है कि विधानसभा चुनाव में गठबंधन हो या नहीं, उनकी पार्टी सभी 81 सीटों पर लड़ेगी। मरांडी का यह बयान जहां विपक्षी महागठबंधन की नींव पर हथौड़ा सा प्रहार है, वहीं लोग यह सवाल भी कर रहे हैं कि आखिर बाबूलाल के पास 81 उम्मीदवार कहां से आयेंगे और चुनाव लड़ने के लिए जरूरी संसाधन कैसे जुट सकेगा। लोग यह सवाल भी कर रहे हैं कि झाविमो प्रमुख का यह दावा कहीं प्रेशर पॉलिटिक्स का हिस्सा तो नहीं है। इतना ही नहीं, 13 साल में 13 टूट झेल चुकी यह पार्टी चुनावी दबाव का सामना कैसे कर सकेगी, यह भी बड़ा सवाल है। झारखंड की राजनीति में बाबूलाल मरांडी को सर्वाधिक सुलझा हुआ और सम्मानित नेता माना जाता है, हालांकि चुनावी राजनीति में वह सफल नहीं हो पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में उनके बयान से असमंजस पैदा होना स्वाभाविक है। बाबूलाल मरांडी के बयान के राजनीतिक मायने और आसन्न विधानसभा चुनाव में विपक्ष के महागठबंधन के प्रयासों पर इसके संभावित असर का आकलन करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी ने राज्य विधानसभा के लिए इसी साल के अंत में होनेवाले चुनाव में विपक्षी महागठबंधन की संभावना पर विराम लगा दिया है। उन्होंने साफ कर दिया है कि चाहे गठबंधन हो या नहीं, उनकी पार्टी राज्य की सभी 81 विधानसभा सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारेगी। बाबूलाल मरांडी को झारखंड का सर्वाधिक सुलझा हुआ नेता माना जाता है और उनकी हर बात बेहद गंभीरता से सुनी जाती है। स्वाभाविक तौर पर उनकी यह बात भी गंभीरता से ली गयी है, खास कर विपक्षी दलों में इसे लेकर खलबली मच गयी है। लेकिन इस बयान ने कई सवाल भी पैदा कर दिये हैं। बाबूलाल मरांडी ने जरूर यह बयान काफी सोच-समझ कर दिया होगा। उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनके बयान का झारखंड की राजनीति पर क्या असर होगा। इसके बावजूद 81 सीटों पर लड़ने की उन्होंने घोषणा की है, तो इसके अलग-अलग मायने भी निकाले जायेंगे।
13 साल में 13 टूट
बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा को अस्तित्व में आये अभी 13 साल हुए हैं, लेकिन इतने कम समय में ही उसमें कम से कम 13 बार टूट हो चुकी है। पार्टी बनने के साथ ही इसके दो फाड़ हुए, जब स्टीफन मरांडी गुट इससे अलग हो गया। उसके बाद तो एक-एक कर लोग मरांडी का साथ छोड़ते गये। रविंद्र राय से लेकर संजय सेठ और अब केके पोद्दार तथा योगेंद्र प्रताप सिंह सरीखे लोग बाबूलाल को बाय-बाय कर गये। अभी पार्टी के जो दो विधायक हैं, वे भी गैर-राजनीतिक कारणों से ही झाविमो में बने हुए हैं।
क्यों बिखर रहा है झाविमो का कुनबा
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर बाबूलाल मरांडी की पार्टी क्यों एक-एक कर बिखर रही है। इसका बड़ा कारण यह है कि जब झाविमो का गठन हुआ था, तो उसे भाजपा के सशक्त विकल्प के रूप में देखा गया था। बाबूलाल मरांडी भी सभी को साथ लेकर राजनीति करने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे। लेकिन बहुत जल्दी यह बात सामने आ गयी कि झाविमो समाज के सभी वर्गों की राजनीति नहीं करती है, बल्कि उसे आदिवासी, इसाई और मुस्लिम मतदाता से ही मतलब है। इसके कारण उसका जनाधार सिकुड़ता गया। धीरे-धीरे बाबूलाल मरांडी की साफ-सुथरी छवि पर भी छींटे पड़ने लगे। उनके विश्वस्त सहयोगियों को लगा कि झाविमो कुछ लोगों की जेब में रहने लगा है। इसलिए बाबूलाल मरांडी और उनके विजन से मोहभंग होता गया।
चुनावी राजनीति में हाशिये पर
वर्ष 2006 में भाजपा से अलग होने और भाजपा की ताबूत में अंतिम कील ठोकने का दावा करनेवाले बाबूलाल मरांडी राजनीतिक रूप से भले ही कितने भी सुलझे क्यों न हों, चुनावी राजनीति में वह फिलहाल हाशिये पर ही हैं। कोडरमा से दो बार सांसद चुने जाने के अलावा उनके खुद के खाते में कोई बड़ी चुनावी सफलता दर्ज नहीं है। विधानसभा के पिछले चुनाव में झाविमो के आठ प्रत्याशी जरूर जीते थे, लेकिन उनमें से छह बाद में भाजपा में शामिल हो गये। वर्तमान विधानसभा में झाविमो के केवल दो विधायक हैं। लोकसभा के पिछले चुनाव में बाबूलाल मरांडी की पार्टी ने विपक्षी महागठबंधन के तहत दो सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन उसे कोई सफलता हासिल नहीं हुई। खुद मरांडी कोडरमा से बुरी तरह हार गये, जबकि गोड्डा से प्रदीप यादव को भी करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। प्रदीप यादव गोड्डा संसदीय क्षेत्र के अधीन आनेवाले पोड़ैयाहाट से विधायक भी हैं, लेकिन वहां भी वह भाजपा प्रत्याशी से करीब 22 हजार वोटों से पिछड़ गये। कोडरमा संसदीय क्षेत्र के अधीन आनेवाले छह विधानसभा क्षेत्रों में किसी में भी बाबूलाल मरांडी को बढ़त नहीं मिली। विधानसभा में झाविमो की दूसरी सीट लातेहार है, जहां से प्रकाश राम विधायक हैं। संसदीय चुनाव में अपने विधानसभा क्षेत्र में भी वह विपक्षी महागठबंधन के प्रत्याशी को बढ़त नहीं दिला सके। झाविमो के तीसरे बड़े नेता बंधु तिर्की हैं, जो मांडर से विधायक रह चुके हैं। यह लोहरदगा संसदीय क्षेत्र के तहत आता है और पिछले लोकसभा चुनाव में यहां से भी महागठबंधन के प्रत्याशी को बढ़त नहीं मिल सकी। विधानसभा के पिछले चुनाव में जिन आठ सीटों पर झाविमो को बढ़त मिली थी, उन सभी पर इस बार भाजपा ने बढ़त कायम कर ली। बाबूलाल मरांडी दुमका और गिरिडीह में भी अपना वोट झामुमो के पक्ष में शिफ्ट नहीं करा सके। चुनावी राजनीति में उनकी यह विफलता साबित करती है कि वह झारखंड की विपक्षी राजनीति में अब तक फिट नहीं हुए हैं।
क्या है बाबूलाल की रणनीति
सभी 81 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान करने के पीछे बाबूलाल मरांडी की सोची-समझी रणनीति हो सकती है। वह जानते हैं कि झारखंड में अकेले दम पर सभी सीटों पर चुनाव लड़ना इतना आसान नहीं है। पहले तो इतने उम्मीदवार चाहिए। यदि किसी तरह उम्मीदवार मिल भी गये, तो दूसरे संसाधनों का इंतजाम भी करना होगा, जो काफी मुश्किल काम है। इसके बाद सभी 81 सीटों पर चुनाव प्रचार करना भी आसान नहीं होगा। मरांडी के लिए यह संभव नहीं है कि वह खुद सभी सीटों पर प्रचार करें। और झाविमो के पास दूसरा ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिसकी पहचान पूरे राज्य में हो। इतनी मुश्किलों के बावजूद सभी सीटों पर लड़ने का ऐलान केवल यही साबित करता है कि बाबूलाल मरांडी अभी से ही प्रेशर पॉलिटिक्स पर उतर आये हैं। उन्हें पता है कि महागठबंधन के तहत चुनाव लड़ने से झाविमो के हिस्से में दर्जन भर से कुछ अधिक सीटें ही मिलेंगी। इसलिए अधिक से अधिक सीटें लेने के लिए ही वह सभी सीटों पर लड़ने की घोषणा कर रहे हैं। इस घोषणा के पीछे दूसरा कारण यह है कि बाबूलाल मरांडी को हेमंत सोरेन की अगुवाई में चुनाव लड़ना सहज नहीं महसूस हो रहा है। यह सभी जानते हैं कि बाबूलाल मरांडी ने जिन कारणों से भाजपा छोड़ी थी, वे सभी कारण विपक्षी महागठबंधन में भी मौजूद हैं।
लोकसभा चुनाव में महागठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में कमान झामुमो के हाथों में होगी। पहले झामुमो के खेवनहार शिबू सोरेन थे। उनके नेतृत्व में बाबूलाल को चुनाव लड़ने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी। लेकिन अब झामुमो के सारथी हेमंत सोरेन हैं। ऐसे में बाबूलाल को अपने हर कदम के लिए हेमंत सोरेन की मदद की जरूरत होगी, जो उन्हें गंवारा नहीं होगा। इसलिए वह अभी से ही महागठबंधन के घटक दलों, खास कर झामुमो और कांग्रेस को साफ बता देना चाहते हैं कि वह किसी मुगालते में न रहें और कुछ भी तय मान कर नहीं चले। बाबूलाल मरांडी यह भी बताना चाहते हैं कि जरूरत पड़ने पर वह अपनी अलग राह भी चुन सकते हैं।
क्या होगा महागठबंधन का
बाबूलाल मरांडी की घोषणा के बाद महागठबंधन के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो गया है। उनके ऐलान के बाद साफ हो गया है कि झारखंड में विपक्षी महागठबंधन की राह कांटों भरी है। झामुमो ने पहले ही 41 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है और कांग्रेस भी 35 सीटों पर ताल ठोक रही है। ऐसे में यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि विधानसभा चुनाव में विपक्ष के एकजुट होने की संभावना नहीं के बराबर है। वैसी स्थिति में राजद और दूसरे छोटे दलों के लिए संभावनाएं यदि पूरी तरह नहीं, तो कुछ हद तक खत्म ही हो जायेंगी।
इसलिए यह निष्कर्ष निकल सकता है कि बाबूलाल मरांडी की घोषणा का झारखंड की राजनीति पर दूरगामी असर पड़नेवाला है। ऐसी स्थिति में अब यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि विधानसभा चुनाव में विपक्ष किस तरह बुलंद हौसले वाली भाजपा और उसकी सहयोगी आजसू का सामना करता है। कुल मिला कर विधानसभा चुनाव से पहले बन रही झारखंड की राजनीतिक फिजा बेहद रोमांचक दौर में पहुंच रही है।

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