झारखंड के सबसे ताकतवर राजनीतिक दल झामुमो की चुप्पी से पूरा प्रदेश भौंचक है। लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर हर मुद्दे पर मुखर रहनेवाली यह पार्टी अचानक इतनी चुप क्यों है। लोकसभा चुनाव के बाद करीब दो महीने का समय बीत चुका है। संसदीय चुनाव में मोदी की सुनामी में विपक्ष तबाह हो गया, लेकिन चुनावी हार का इतना असर झामुमो जैसी पार्टी पर पड़ेगा, यह किसी ने सोचा भी नहीं था। झामुमो के दिग्गज शिबू सोरेन के अभेद्य दुर्ग को भाजपा ने ढाह दिया, तो उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी और पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन राजनीतिक रूप से इतने शिथिल कैसे और क्यों हो गये, जबकि अगले चार-पांच महीने में राज्य में विधानसभा का चुनाव होना है। इस चुनाव में झामुमो के कंधे पर विपक्षी महागठबंधन की जिम्मेवारी भी है।
कार्यशैली का फर्क
इस सवाल का जवाब शायद झामुमो के नेता भी नहीं दे सकते हैं। यहां भाजपा और झामुमो की कार्यशैली में फर्क देखना जरूरी है। लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत हासिल करने के बावजूद भाजपा उन राज्यों में राजनीतिक रूप से बेहद सक्रिय है, जहां इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं। पार्टी ने राष्टÑीय कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया और झारखंड में उन्होंने अपने विधायकों को 50 हजार सदस्य बनाने का टास्क दे दिया। भाजपा के नेता और कार्यकर्ता सुबह से ही काम में लग जा रहे हैं, जबकि झामुमो के नेताओं के दिन की शुरुआत ही दोपहर बाद से होती है। किसी को याद नहीं कि पार्टी की कोई बड़ी बैठक कभी सुबह में हुई हो। अव्वल बैठक का समय शाम चार बजे के बाद ही होता है, तो देर रात तक चलती है। लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी ने औपचारिकता निभाने के लिए दो या तीन बैठकें की हैं, लेकिन न तो हार के कारणों का पता लग पाया है और न ही किसी ने इस हार की जिम्मेवारी ली है। यहां बता दें कि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार ने हार की जिम्मेदारी ली। झाविमो में सभी ने सामूहिक जिम्मेदारी ली। वहीं झामुमो का शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह सकते में है। ऐसे में पार्टी के कार्यकर्ता भी बेचैन हैं। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा है कि वे विधानसभा चुनाव की तैयारी कैसे करें।
विधानसभा का पिछला चुनाव
झारखंड विधानसभा का पिछला चुनाव 2014 में हुआ था। उसमें भाजपा के खाते में 37 सीटें आयी थीं, जबकि उसकी सहयोगी आजसू ने पांच सीटें जीती थीं। इन दोनों दलों के गठबंधन को बहुमत हासिल हो गया। भाजपा ने 72 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जबकि आजसू ने आठ सीटों पर किस्मत आजमायी थी। भाजपा को 31.2 प्रतिशत (43 लाख 34 हजार 728) वोट मिले और आजसू को 3.7 प्रतिशत (पांच लाख 10 हजार 277) वोट मिले थे। दूसरी ओर, कांग्रेस ने 10.5 प्रतिशत (14 लाख 50 हजार 640) वोट प्राप्त किये और केवल छह सीटें जीतीं।
राजद कांग्रेस के साथ गठबंधन में था और दोनों ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा था। राजद को 3.1 प्रतिशत वोट ही मिला। झामुमो और झाविमो को राज्य में क्रमश: 28 लाख 32 हजार 921 (20.4%) और 13 लाख 85 हजार 80 (10%) वोट मिले। झामुमो ने 19 सीटें जीतीं, जबकि बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चा को आठ सीटें मिलीं। झाविमो के आठ में से छह विधायक बाद में भाजपा में शामिल हो गये।
दुविधा में झामुमो का नेतृत्व
दूसरी तरफ पार्टी नेतृत्व की दुविधा की हालत यह है कि वह अब तक यही तय नहीं कर सका है कि विधानसभा चुनाव में वह किन मुद्दों को लेकर जनता के पास जायेगा। झामुमो के मजबूत गढ़ संथाल परगना के बरेहट विधानसभा क्षेत्र में लोगों ने सवाल किया कि आखिर वे झामुमो को वोट क्यों दें। लोगों ने सवाल किया, क्या केवल सरकार बदलने के लिए ही वोट देना उचित है। बता दें कि बरहेट विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व खुद हेमंत सोरेन करते हैं। यह कहानी केवल बरहेट की नहीं है, बल्कि राज्य के दूसरे हिस्से में भी लोग यही सवाल करते हैं कि आखिर भाजपा सरकार ने कौन सा ऐसा गलत काम किया है कि उसके प्रति नाराजगी जतायी जाये या फिर झामुमो ने कौन सा ऐसा बड़ा काम किया है कि उसका समर्थन किया जाये। यह झामुमो के लिए बेहद खतरनाक संकेत है। वह खुद को भाजपा के विकल्प के रूप में पेश कर सत्ता के मजबूत दावेदार के रूप में सामने आना तो चाहता है, लेकिन इस ‘क्यों’ का उत्तर उसके पास नहीं है। इस सवाल का न तो हेमंत सोरेन उत्तर दे रहे हैं और न ही झामुमो का कोई दूसरा नेता।
झारखंडी अस्मिता अब मुद्दा नहीं
लोकसभा चुनाव के बाद झामुमो को अब यह बात समझ में आ गयी होगी कि झारखंड में झारखंडी अस्मिता के नाम पर वोट नहीं मिल सकता है। यह हकीकत भी है, क्योंकि अब राज्य में वैसे वोटर निर्णायक संख्या में हैं, जिनकी पैदाइश झारखंड गठन, यानी 15 नवंबर 2000 के बाद हुई है। ये वोटर अब जल-जंगल-जमीन के मुद्दों से आगे बढ़ चुके हैं। उनके लिए रोजगार, आर्थिक विकास और स्वस्थ-समृद्ध झारखंड ही मुद्दा है। सीएनटी-एसपीटी और भीतरी-बाहरी की लड़ाई में वक्त गंवाने के लिए यह वर्ग तैयार नहीं है, बल्कि वह दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करने और आगे बढ़ने की हसरतें पाले हुए है। झारखंड का युवा अखरा में लोकनृत्य तो करना चाहता है, लेकिन वापस अपने घर जाकर कंप्यूटर-इंटरनेट की मदद से दुनिया से रूबरू होना भी चाहता है। झामुमो को यह बात समझनी होगी। उसके नेताओं को अब पुराने मुद्दों के स्थान पर नये मुद्दों की तलाश करनी होगी।
खिसकती जमीन बचाने की चुनौती
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य के 81 में से 63 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त कायम की थी। इनमें झामुमो के कब्जे वाली नौ सीटें भी थीं। हालांकि झामुमो यह दावा जरूर कर रहा है कि पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में उसे अधिक वोट मिले, लेकिन वह शायद भूल गया है कि इस चुनाव में नये मतदाताओं ने भी खुल कर वोट दिया था। मतदान अधिक हुआ, तो मिले मतों की संख्या भी बढ़ गयी। इसलिए इसमें बहुत अधिक इतरानेवाली बात नहीं है। झामुमो को लोकसभा चुनाव में चार संसदीय सीटों पर 17.22 लाख वोट मिले, जबकि 2014 में उसे इन चार सीटों पर कुल 12.50 लाख वोट मिले थे। झामुमो यह भी भूल जा रहा है कि पिछले चुनाव में झारखंड विकास मोर्चा और कांग्रेस ने अलग से चुनाव लड़ा था, जबकि इस बार उसका वोट झामुमो उम्मीदवारों को भी गया। यह वोट आमने-सामने की फाइट से बढ़ा है न कि झामुमो की लोकप्रियता से प्रभावित होकर।
अब आगे क्या
अब झामुमो, खास कर हेमंत सोरेन के सामने कई चुनौतियां हैं। विधानसभा के पिछले चुनाव में उन्होंने एक साहसिक फैसला करते हुए अकेले चुनाव लड़ा, जिसका अनुकूल परिणाम भी मिला। इस बार उनके कंधों पर पूरे विपक्ष को लेकर चलने की चुनौती है। कांग्रेस के दिग्गजों को दूसरी पंक्ति में रखना उनके लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है। वह भी तब, जब इन कांग्रेसियों के पास राष्टÑीय स्तर पर भी नेतृत्व ही नहीं है। हेमंत की दूसरी चुनौती अपने दल के कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाने की है, जो लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार से सकते में हैं। तीसरी चुनौती एक ऐसे मजबूत मुद्दे की तलाश है, ताकि सत्ताधारी दल को चैलेंज किया जा सके। झामुमो और हेमंत इससे पहले ही सत्ता का सुख भोग चुके हैं, लेकिन उनका कार्यकाल किसी उपलब्धि के लिए याद करने लायक नहीं रहा।
इस बार हेमंत अपने लिये अवसर मानते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि वह इस अवसर को कैसे भुनायेंगे। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि विधानसभा चुनाव में झामुमो अपना अस्तित्व बचाने के लिए क्या रणनीति अपनाता है।
चुनावी मुद्दे की तलाश में पसीने-पसीने झामुमो
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