• द्रौपदी मुर्मू की सादगी से शिवपाल और राजभर भी प्रभावित
  • एक-एक कर सहयोगी छोड़ रहे अखिलेश का साथ

राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू के जरिये भाजपा ने भारत ही नहीं, विश्व में भी एक संदेश देने की कोशिश की है। संदेश भारत के लोकतांत्रिक मजबूती की। पार्टी की लोकतांत्रिक विचारधारा की। एक आदिवासी महिला को देश के सर्वोच्च पद पर स्थान देने की। द्रौपदी मुर्मू पहली आदिवासी महिला होंगी, जो देश के सर्वोच्च पद पर सत्तारूढ़ होंगी। इसके साथ ही जिन लोगों द्वारा सनातन को कमजोर करने की साजिश रची जा रही है, उसे अशक्त करने की। द्रौपदी मुर्मू को आगे कर नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर ऐसा दांव फेंक दिया है कि विपक्ष के शकुनियों की चाल भी धरी की धरी रह गयी है। रहे सहे विपक्ष के जो कथित चाणक्य हैं, उन्होंने भी अपने उम्मीदवार से किनारा कर लिया है। सत्ता-रंज की बिछी बाजी में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी अपना पास फेंक विपक्ष को सकते में डाल दिया है। डिनर डिप्लोमेसी के जरिये योगी का सात्विक भोजन विपक्ष की बिरियानी पर भारी पड़ता नजर आ रहा है। द्रौपदी मुर्मू के स्वागत में दिये गये भोज में जो लोग योगी के डाइनिंग टेबल की शोभा बढ़ा रहे थे, उनका नाम जान कर लोग चौंक गये हैं। अखिलेश तो माथा नोच ही रहे हैं। किसी ने सच ही कहा है, अगर यज्ञ अच्छे कार्यों के लिए हो रहा है, तो विरोधी भी द्वेष भुला आहुति देने पहुंच ही जाते हैं। पहुंचेंगे भी क्यों नहीं, यह भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत बनाने का प्रयास जो है। यह किसी एक दल की विचारधारा नहीं, बल्कि वे पार्टियां भी, जो समाज के अंतिम व्यक्ति की चिंता करती हैं, शोषितों, दलितों, वंचितों के उत्थान की वकालत करती हैं, उन्हें तो आगे आना ही होगा। द्रौपदी मुर्मू सिर्फ एक राष्ट्रपति उम्मीदवार नहीं हैं। वह समाज के हर उस वर्ग की आवाज हैं, जो मुख्यधारा से किनारे हैं। इसी क्रम में उत्तरप्रदेश की राजनीति ने भी करवट लेनी शुरू कर दी है। मनभेद भुला अपना मत देने विपक्षी सहयोगी अब भाजपा के खेमे में अपना ठौर तलाश रहे हैं। इसमें अखिलेश यादव के सबसे विश्वस्त सहयोगी रहे ओमप्रकाश राजभर और उनके चाचा शिवपाल यादव को योगी आदित्यनाथ के सात्विक भोज ने अपने ओर खींच ही लिया। जब से अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी पर कब्जा किया है, तब से शुरू में हम साथ-साथ हैं और फिर चुनाव बाद हम आपके हैं कौन! वाली कहानी दुहरायी जाने लगती है। आखिर एक-एक कर उनका साथ क्यों छोड़ देते हैं सहयोगी और 2024 तक क्या है उनकी योजना, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

कैसे योगी का सात्विक भोज विपक्ष की बिरियानी फीकी कर गया
अखिलेश का आजमगढ़ और आजम का रामपुर गंवाने के शॉक से सपा अभी उबरी भी नहीं थी कि योगी आदित्यनाथ ने उन्हें एक और शॉक थेरेपी दे दी है। दरअसल, एनडीए की राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू के सम्मान में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने सरकारी आवास पर एक डिनर रखा था। इसमें चेहरों की उपस्थिति मात्र से विपक्षियों का जायका बेस्वाद हो गया होगा। अब आपको भी लग रहा होगा कि वे अन्य कौन-कौन हैं, जिन्होंने विपक्ष की बिरियानी को फीका कर दिया है। इस डिनर में चुनाव के समय अखिलेश यादव के सबसे विश्वसनीय रहे सुभासपा प्रमुख ओम प्रकाश राजभर, उनके परिवार के एक मुखिया और प्रसपा प्रमुख शिवपाल यादव, जनसत्ता दल के प्रमुख रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया और बसपा की ओर से विधायक उमाशंकर सिंह डिनर में शामिल हुए। वह उमाशंकर सिंह, जिनके बारे में यह बात प्रचारित थी कि वह योगी आदित्यनाथ के साथ कभी एक मंच पर नहीं आ सकते। अब आपको तो लग ही गया होगा कि भाजपा का सात्विक भोजन कैसे विपक्ष की बिरियानी पर भारी पड़ता नजर आ रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ओर से आयोजित इस भोज में भाजपा के सहयोगी अपना दल एस के आशीष पटेल, निषाद पार्टी अध्यक्ष संजय निषाद और जनसत्ता दल लोकतांत्रिक के अध्यक्ष रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया की मौजूदगी पहले से ही अपेक्षित थी। मगर, भोज में पहुंच कर चौंकाया शिवपाल यादव, ओमप्रकाश राजभर और बसपा के उमाशंकर सिंह ने। चर्चा जोरों पर है कि राष्ट्रपति चुनाव से पहले योगी की डिनर डिप्लोमेसी ने विपक्ष के मतों में सेंध लगा दी है। हालांकि असली तस्वीर तो मतदान के दिन ही साफ होगी, लेकिन उत्तरप्रदेश में योगी की डिनर डिप्लोमेसी ने विपक्ष के पेशानी पर बल तो दे ही दिया है। चर्चा तो यहां तक हो रही है कि कभी योगी के विरोधी माने जानेवाले विधायक भी द्रौपदी मुर्मू के समर्थन में योगी के साथ नजर आ रहे हैं। भाजपा गठबंधन के पास 273 विधायक हैं। शिवपाल, सुभासपा के छह और जनसत्ता दल लोकतांत्रिक के दो विधायकों के मत मिलने के बाद संख्या 281 पहुंच जायेगी। वैसे बसपा की मायावती तो पहले ही यह घोषणा कर चुकी हैं कि वह द्रौपदी मुर्मू के साथ हैं और उनके विधायक, सांसद उन्हें ही वोट देंगे।

समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव ने जिस विपक्षी एकता की उम्मीद पर विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को समर्थन देने का एलान किया था, उसे पूरा करने में वह अभी से असमर्थ दिखायी दे रहे हैं। अखिलेश यादव के सामने अब एक बार फिर गठबंधन को संयुक्त रखने की चुनौती है। फिलहाल भाजपा का फोकस विपक्षी दलों के वोटों में सेंधमारी पर भी है। इसलिए पार्टी ने विपक्षी दलों के नेताओं को भी डिनर का आमंत्रण भेजा था। डिनर के बाद आमंत्रित अतिथियों ने द्रौपदी मुर्मू के समर्थन की बात कही है। इस मौके पर सीएम योगी आदित्यनाथ ने कहा कि जनजातीय समाज की बेटी का देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए निर्वाचन पूरी दुनिया को भारत के सशक्त लोकतंत्र का अहसास करायेगा। वहीं एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू ने इस मौके पर कहा कि जनजातीय समाज में जन्म लेनेवाली एक महिला आज आपका समर्थन मांगने आयी है। मैंने अभाव के बावजूद अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर उच्च शिक्षा हासिल की है। कमजोर, वंचित तबके और जनजातीय समाज के लिए मैंने आजीवन कार्य किया है। सच में द्रौपदी मुर्मू की सादगी और सच्चाई ही उनके समुदाय की पहचान है। 2014 के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार ने जिस तरीके से चाहे पद्म सम्मान हो या राज्यसभा में मनोनयन का मुद्दा, हरेक में आम लोग ही केंद्र में रहे। वहीं 2017 में रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति बनना देश के लोकतांत्रिक ढांचे का सफल उद्धरण है।

आखिर अखिलेश अपने करीबियों को नाराज क्यों करते हैं
एक होता है इगो, दूसरा होता है सुपर इगो। दरअसल पिछले कई सालों से जबसे अखिलेश के हाथों से सत्ता फिसली है, उनका सुपर इगो वाला व्यक्तित्व जाग गया है। कई बार तो वह मीडिया की भी क्लास लगाते नजर आये। बीच इंटरव्यू में चले जाने की धमकी, मीडिया शो को बायकाट करने की धमकी तो उन्होंने कई बार दे डाली है। यहां तक कि अब वह तय करने लगे हैं कि कौन पत्रकार है कौन नहीं। इसी सुपर इगो के चलते अब लोग उनसे कटते नजर आ रहे हैं। देखा जाये तो 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा ने कई छोटे दलों के साथ मिल कर चुनाव लड़ा। हार भी गये। लेकिन चुनाव के बाद अखिलेश की परेशानियां कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। पहले चाचा शिवपाल यादव नाराज हुए। फिर आजम खां के नाराज होने की खबरें महीनों चलती रहीं। राज्यसभा चुनाव के बाद गठबंधन की साथी महान दल ने साथ छोड़ दिया। अब समाजवादी पार्टी गठबंधन में शामिल एक और पार्टी के गठबंधन छोड़ने की अटकलें हैं। चर्चा जोरों पर है कि ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी अखिलेश से पिंड छुड़ा रही है। अखिलेश के संबंध में पहले हम साथ-साथ हैं और चुनाव खत्म होने के बाद टाटा बाय-बाय का सिलसिला नया नहीं है। चुनाव से पहले साइकिल की सवारी तो कइयों ने की, लेकिन जैसे ही उस साइकिल का टायर पंक्चर हो जाता, सवारी भाग खड़ी होती है। अखिलेश भी नया टायर और नयी सवारी की जुगत में भीड़ जाते हैं। खासकर 2016 में पार्टी पर प्रभुत्व के लिए परिवार में हुए संघर्ष के बाद हर चुनाव में यह देखने को मिलता रहा है। अर्थात जब से पार्टी की ड्राइविंग सीट अखिलेश ने संभाली, उसके बाद जितने चुनाव हुए, हर चुनाव में ऐसा ही देखा गया। फिलहाल अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव और सहयोगी ओम प्रकाश राजभर दोनों ही उन पर गरम हैं। शिवपाल और राजभर की जोड़ी रह-रह कर अखिलेश को सियासी पाठ पढ़ा रही है। अखिलेश यादव पर तंज कसते हुए शिवपाल यादव कहते हैं कि अखिलेश यादव में राजनीतिक परिपक्वता की कमी है। इसके कारण समाजवादी पार्टी कमजोर होती जा रही है। कई नेता पार्टी छोड़ रहे हैं। मुझे पार्टी की बैठकों में आमंत्रित नहीं किया जाता है। मुझे विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के साथ भी बैठक में नहीं बुलाया गया। अगर अखिलेश मेरे सुझावों को गंभीरता से लेते तो उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की स्थिति अलग होती। सपा के कई गठबंधन दल अब उनका साथ छोड़ रहे हैं। इसका कारण सपा प्रमुख की राजनीतिक अपरिपक्वता है। शिवपाल यादव ने यहां तक कहा कि मैंने बहुत पहले कहा था, जहां हमें बुलाया जायेगा, जो हमसे वोट मांगेगा, हम उसे वोट देंगे। इससे पहले भी राष्ट्रपति चुनाव हुआ था, तब भी हमें समाजवादी पार्टी ने नहीं बुलाया। उस समय रामनाथ कोविंद जी ने वोट मांगा और हमने उनका समर्थन किया। शुक्रवार को मुझे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बुलाया तो मैं वहां गया और द्रौपदी मुर्मू से मुलाकात की। मैं मुख्यमंत्री से मिला, उन्होंने मुझसे अच्छे तरीके से बात की। शिवपाल का इशारा तो स्पष्ट है। वहीं उत्तरप्रदेश के पलटीमार नेता ओमप्रकाश राजभर भी अखिलेश पर अपनी भृकुटि ताने हुए हैं। समय-समय पर एसी कमरे से बाहर निकल कर सड़क पर मेहनत करने की नसीहत देनेवाले ओम प्रकाश राजभर शुक्रवार को सपा प्रमुख पर फिर फायर हो गये। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पहले अपने चाचा शिवपाल का वोट राष्ट्रपति पद के विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को दिलाकर दिखायें। राजभर ने कहा कि अखिलेश को केवल मुसलमान और यादव ही दिखते हैं। अब ओमप्रकाश राजभर का भी क्या संदेश है, समझने के लिए काफी है।

हम साथ-साथ हैं के बाद हम आपके हैं कौन!
2016 के बाद से अकसर देखा गया है कि चुनाव के पहले अखिलेश को नये-नये साथी मिलते हैं और चुनाव के बाद दोनों एक-दूसरे से मुंह फेर लेते हैं। 2012 में समाजवादी पार्टी अकेले 401 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ी थी। दो सीटों पर उसने उम्मीदवार नहीं उतारे थे। एक कुंडा में राजा भैया और दूसरा बाबगंज में विनोद सोनकर की सीट पर। दोनों सपा के समर्थन से निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे और जीते थे। बाद में अखिलेश कैबिनेट में मंत्री रहे राजा भैया ने अब अपना दल बना लिया है। 2022 के चुनाव में उनकी पार्टी को दो सीटें मिलीं। ये वही सीटें हैं, जो राजा भैया और विनोद सोनकर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीतते रहे हैं। उसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा ने किसी दल से गठबंधन नहीं किया था। राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से 78 पर पार्टी ने चुनाव लड़ा। राहुल की अमेठी और सोनिया की रायबरेली सीट पर सपा ने उम्मीदवार नहीं उतारे। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। यूपी को ये साथ पसंद है, साइकिल और ये हाथ पसंद है, तरक्की की ये बात पसंद है। इस नारे के साथ दोनों पार्टियां चुनावी दंगल में उतरीं। 311 सीटों पर सपा ने अपने उम्मीदवार उतारे। वहीं, 114 सीटों पर कांगेस ने मोर्चा संभाला, लेकिन उत्तरप्रदेश की जनता को अखिलेश राहुल का साथ पसंद नहीं आया। ये वही दौर था, जब अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच सपा पर कब्जे की लड़ाई चल रही थी। परिवार में अकेले पड़े अखिलेश ने कांग्रेस का साथ लिया था। परिणाम यह हुआ कि अखिलेश को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। उत्तरप्रदेश में हुए चुनाव के करीब एक साल बाद राज्य में फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए। इस चुनाव में कांग्रेस और सपा के रास्ते अलग हो गये। दोनों ने इन सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। लोकसभा उपचुनाव के प्रचार के दौरान अखिलेश यादव ने गठबंधन में आयी दरार की वजह बतायी। अखिलेश ने साफ किया कि गुजरात विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद कांग्रेस का व्यवहार बदल गया। इस उपचुनाव में सपा के नये गठबंधन की नींव पड़ी। उपचुनाव के दौरान बसपा ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे। पार्टी ने सपा के लिए प्रचार तो नहीं किया, लेकिन अपने वोटरों को सपा उम्मीदवारों के पक्ष में वोट डालने का संदेश जरूर दिया। इस उपचुनाव में सपा को दोनों सीटों पर जीत मिली। इस जीत की बड़ी वजह बसपा का साथ मिलना माना गया। यहीं से 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सपा-बसपा गठबंधन की नींव पड़ी। बुआ-बबुआ एक बार फिर साथ साथ हो गये। 2019 के लोकसभा चुनावों के एलान के बाद अखिलेश यादव और मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन का एलान किया। दोनों पार्टियों के साथ ही जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल भी इस गठबंधन का हिस्सा थी। 38 सीटों पर बसपा, 37 सीटों पर सपा और तीन सीटों पर रालोद ने उम्मीदवार उतारे। सोनिया गांधी और राहुल गांधी के पक्ष में अमेठी और रायबरेली सीट से गठबंधन ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा। नतीजों से पहले ज्यादातर सर्वे में दावा किया जा रहा है था कि भाजपा को इस चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान उत्तरप्रदेश में होगा। सपा-बसपा गठबंधन को बड़ी कामयाबी मिलेगी। हालांकि जब नतीजा आया, तो साइकिल हाथी का वजन सहन नहीं कर पायी। बसपा को सिर्फ दस सीटों पर जीत मिली। वहीं, सपा 2014 की ही तरह पांच सीटें ही जीत पायी। नतीजा आने के चंद दिन बाद ही मायावती ने सपा से गठबंधन तोड़ने का एलान कर दिया।
मायावती ने कहा कि चुनाव के दौरान अखिलेश सपा के वोट बसपा उम्मीदवारों को दिलाने में नाकाम रहे। 2022 के चुनाव में सपा ने किसी बड़े दल से गठबंधन की जगह छोटे दलों को साधा। अखिलेश के पुराने सहयोगी जयंत चौधरी भी उनके साथ थे। जयंत की पार्टी रालोद के अलावा, सपा ने महान दल, अपना दल (कमेरावादी), सुभासपा, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी जैसे दलों के साथ अखिलेश ने गठबंधन किया। चुनाव नतीजों के बाद ही सहयोगियों की नाराजगी की खबरें आनी शुरू हो गयीं। सबसे पहला नाम सामने आया अखिलेश के चाचा और प्रसपा प्रमुख शिवपाल यादव का। वहीं राज्यसभा चुनाव के दौरान अखिलेश ने सपा के कोटे से रालोद के जयंत चौधरी को राज्यसभा भेज दिया। इससे महान दल के केशव देव मौर्य नाराज हो गये। उन्होंने खुद को गठबंधन से अलग कर लिया। अब विधान परिषद चुनाव में बेटे को टिकट नहीं मिलने से सुभासपा प्रमुख ओम प्रकाश राजभर भी नाराज चल रहे हैं।

फिलहाल देश की नजर राष्ट्रपति चुनाव पर है। तस्वीर भी पूरी तरह साफ है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए यूपी में सर्वाधिक वोट होने के कारण सीएम योगी ने एनडीए उम्मीदवार के समर्थन में बड़ी रणनीति तैयार की। उनके प्रयास से दलीय सीमाएं टूट गयीं और विपक्षी खेमे के बड़े दल भी द्रौपदी मुर्मू के समर्थन में आ गये। राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्षी दलों की फूट का असर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी दिखने के आसार हैं। सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर और प्रसपा नेता शिवपाल यादव नया गुल खिला सकते हैं। ओमप्रकाश राजभर की अपनी परेशानी है। यूपी के रसड़ा इलाके का बच्चा-बच्चा जानता है कि उन्होंने सरकारी जमीन की घेराबंदी कर अपना आशियाना बनाया है। उसकी मापी भी हो चुकी है। उन्हें आशंका है कि कभी भी उसे तोड़ा जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ उनके क्षेत्र के सवर्ण उनसे किनारा कर रहे हैं। उनकी बदजुबान के कारण हिंदू बहुल गांवों के लोगों ने उनका बहिष्कार करना शुरू कर दिया है। ओमप्रकाश राजभर इसे अपने लिए खतरे की घंटी मान रहे हैं।

तीसरा सबसे बड़ा कारण है कि वह अपने बेटे को राजनीतिक कुर्सी दिलाना चाहते हैं। पिछले चुनाव में बेटा जीत न सका। वह अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक वह भाजपा के पाले में नहीं जायेंगे, बेटे को राजनीतिक कुर्सी नसीब नहीं होगी। उनकी कोशिश है कि भाजपा से नजदीकी बढ़ा कर आशियाने को बचाया जाये और बेटे के लिए विधान परिषद में जगह पक्की करायी जाये। शिवपाल यादव की इन दिनों आजम खां के साथ बढ़ती मुलाकात भी कई सवालों को हवा दे रही है। एक तरफ अखिलेश का इगो है, जो नरम होने का नामा नहीं ले रहा। वहीं हाल के दिनों में आजमगढ़ और रामपुर की हार, उनके खेमे के लोगों के लिए बुरे सपने जैसा है। राष्ट्रपति चुनाव के साथ-साथ भाजपा की नजर अब 2024 के आम चुनावों पर भी है। देखा जाये तो भाजपा के लिए 2024 का सबसे बड़ा मुद्दा हिंदुओं की एकजुटता होगी। हिंदुत्व होगा। जिस प्रकार से देश में हिंदुओं को टारगेट कर गला काटा जा रहा है, उससे देश के बहुसंख्यक वर्ग आक्रोशित है। हिंदुत्व के झंडाबरदार कह रहे हैं: दशकों से गहरी नींद में सोया हुआ हिंदू अब जाग चुका है। उसे लग रहा है कि अब एकजुट होने का समय आ गया है। अब दिन दूर नहीं है जब हिंदू अपनी जाति नहीं बतायेगा। वह गर्व से कहेगा कि मैं हिंदू हूं।

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