- विधायकों को निलंबित ही क्यों किया, विस सदस्यता रद्द करने की मांग क्यों की!
- इस तरह की कार्रवाई से कार्यकर्ता होते हैं निराश, घटती है पार्टी की साख
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने बड़ी मात्रा में नगदी के साथ पकड़े गये झारखंड के तीन विधायकों डॉ इरफान अंसारी, नमन विक्सल कोंगाड़ी और राजेश कच्छप के निलंबन को वापस लेने का फैसला किया है। पार्टी ने यह फैसला इन तीनों विधायकों द्वारा दिये गये जवाब से संतुष्ट होकर किया है, हालांकि अब तक यह साफ नहीं हुआ है कि इन्होंने जवाब में क्या कहा है। कांग्रेस का यह फैसला वास्तव में झारखंड के सियासी माहौल में रायता फैलाने जैसा ही है, क्योंकि कांग्रेस विधायक दल के नेता की तरफ से विधानसभा अध्यक्ष से इन विधायकों की सदस्यता खत्म करने की अपील की जा चुकी है और मामले की सुनवाई भी चल रही है। निलंबन वापसी के फैसले के बाद अब यह सवाल भी उठने लगा है कि इस मामले का क्या होगा। विधायक कैश कांड के नाम से चर्चित इस मामले का विधायी-न्यायिक पहलू चाहे कुछ भी, इसके सियासी मायने काफी महत्व रखते हैं। दरअसल झारखंड कांग्रेस के लिए यह मामला शुरू से ही ‘सांप-छुछूंदर’ जैसा था। पार्टी का एक खेमा इन विधायकों के खिलाफ एक्शन को लेकर जितना सक्रिय था, वहीं दूसरा खेमा इसके पीछे किसी बड़ी साजिश का संकेत कर रहा था। अब पार्टी नेतृत्व को महसूस होने लगा है कि इन तीन विधायकों के पार्टी से बाहर रहने के कारण उसकी राजनीतिक जमीन कमजोर होने लगी है, तब इनकी वापसी का फैसला लिया गया। कांग्रेस का यह फैसला उसके लगातार दरकते जनाधार को देख कर लिया गया महसूस होने लगा है, क्योंकि जिस हड़बड़ी में निलंबन का फैसला लिया गया, उसी तेजी से इसे वापस लेने का भी फैसला हुआ और यही बात कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित होनेवाली है। कांग्रेस के इस फैसले का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
करीब एक साल पहले 30 जुलाई, 2022 को 49 लाख रुपये नगद के साथ पश्चिम बंगाल के हावड़ा में पकड़े गये झारखंड कांग्रेस के तीन विधायक डॉ इरफान अंसारी, नमन विक्सल कोंगाड़ी और राजेश कच्छप का निलंबन वापस लेने का फैसला कांग्रेस पार्टी ने किया है। पार्टी विधायक दल के नेता आलमगीर आलम ने कहा है कि इन तीनों विधायकों द्वारा रखे गये पक्ष को देखते हुए पार्टी ने उनका निलंबन वापस लेने का फैसला लिया है। लेकिन आलम ने यह नहीं बताया कि इन तीनों विधायकों ने अपनी सफाई में क्या कहा है। आलमगीर आलम की घोषणा के बाद यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर इन विधायकों का निलंबन ही क्यों किया गया था। सबसे मजेदार बात यह है कि इनके खिलाफ एफआइआर भी कांग्रेसियों ने ही किया था। निलंबन भी कांग्रेस ने किया और अब उठाने का फैसला भी कांगे्रस कर रही है।
पिछले साल जब ये विधायक नगदी के साथ पकड़े गये थे, तब कांग्रेस ने उन्हें निलंबित तो किया ही था, साथ ही उनकी सदस्यता रद्द करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष के पास अपील भी की थी। यह अपील अब भी स्पीकर के पास लंबित है। अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि कांग्रेस उस अपील पर क्या स्टैंड लेगी या स्पीकर उस पर कब फैसला सुनायेंगे। न्यायिक-विधायी पहलुओं को छोड़ भी दें, तो इन विधायकों की निलंबन वापसी का फैसला झारखंड कांग्रेस के ढुलमुल रवैये को ही दर्शाता है। इससे कांग्रेस की जगहंसाई भी हो रही है।
क्या है पूरा मामला
पहले जानते हैं कि यह पूरा मामला क्या है। झारखंड के तीन विधायक, जामताड़ा के डॉ इरफान अंसारी, कोलेबिरा के नमन विक्सल कोंगाड़ी और खिजरी के राजेश कच्छप को 30 जुलाई को हावड़ा के पास 49 लाख रुपये नगद के साथ पकड़ा गया। ये तीनों एक गाड़ी से झारखंड लौट रहे थे। उस वक्त इन्होंने कहा था कि वे विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर बांटने के लिए साड़ी खरीदने कोलकाता गये थे और रकम उन्होंने चंदा से एकत्र की थी। बाद में इन तीनों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद इन्हें कोलकाता हाइकोर्ट से जमानत मिली और ये झारखंड लौटे। लेकिन इस बीच कांग्रेस की तरफ से दावा किया गया कि इन तीनों विधायकों को झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार को गिराने की साजिश में शामिल किया गया और इन्हें गुवाहाटी में एक ‘सियासी ताकत’ ने यह रकम दी है। कहा गया कि असम के मुख्यमंत्री ने इन विधायकों को तोड़ने के लिए यह सारा कुछ किया। इसी दावे के आधार पर इन तीनों को पार्टी से निलंबित कर दिया गया। बाद में विधायक दल के नेता आलमगीर आलम ने स्पीकर को पत्र भेज कर इनकी सदस्यता रद्द करने की अपील कर दी।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर, शिल्पी नेहा तिर्की और दूसरे नेताओं ने इस पूरे मामले को ‘आॅपरेशन लोटस’ का हिस्सा बताते हुए इन विधायकों के खिलाफ कार्रवाई को सही बताया। इतना ही नहीं, कांग्रेस के ही एक अन्य विधायक कुमार जयमंगल ऊर्फ अनुप सिंह ने रांची के अरगोड़ा थाने में प्राथमिकी दर्ज करायी कि उन्हें राज्य सरकार को अस्थिर करने के लिए प्रलोभन दिया जा रहा है। बाद में इस जीरो एफआइआर को कोलकाता पुलिस को स्थानांतरित कर दिया गया।
क्यों लिया गया निलंबन वापसी का फैसला
कांग्रेस आलाकमान ने तीनों विधायकों के निलंबन को वापस लेने का फैसला उनके द्वारा रखे गये पक्ष की समीक्षा करने के बाद लिया है। तीनों विधायकों ने राज्यसभा सांसद धीरज साहू के साथ दिल्ली में पार्टी के वरीय नेताओं से बातचीत की थी। वहीं उन्होंने प्रदेश स्तर पर भी अपना पक्ष रखा था। इसके बाद प्रदेश कांग्रेस ने आलाकमान को सारी परिस्थितियों से अवगत कराया। तब निलंबन को वापस लेने का फैसला लिया गया।
कांग्रेस नेतृत्व के सामने सवाल
निलंबन वापसी के इस फैसले के बाद अब कांग्रेस नेतृत्व के सामने यह सवाल उठने लगा है कि यदि वापस ही लेना था, तो इतनी हड़बड़ी में बिना जांच किये उन्हें निलंबित ही क्यों किया। विधानसभाध्यक्ष के पास उनकी सदस्यता रद्द करने की मांग क्यों की गयी? इतना ही नहीं, अब विधानसभा अध्यक्ष के सामने लंबित उस अपील पर कांग्रेस का स्टैंड क्या होगा, जिसमें इन तीनों विधायकों की सदस्यता खत्म करने का अनुरोध किया गया था। इतना ही नहीं, शुरू से ही इन तीन विधायकों का समर्थन करनेवाले कांग्रेसियों का कहना है कि पार्टी नेतृत्व को पहले ही पूरी असलियत का पता था। अब जब चुनाव सामने है और पार्टी के सामने सीट बचाने की चुनौती आ गयी है, तब आनन-फानन में इस तरह का फैसला किया जा रहा है।
फैसले के पीछे राजनीतिक कारण
दरअसल, पिछले कुछ दिन से हेमंत सोरेन कैबिनेट में फेरबदल के साथ-साथ झारखंड प्रदेश कांग्रेस कमिटी में भी बदलाव की चर्चा हो रही है। झारखंड कांग्रेस के कई पदाधिकारियों और विधायकों ने दिल्ली जाकर कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ मुलाकात की है। पार्टी आलाकमान भी कैबिनेट में शामिल अपने मंत्रियों को बदले जाने को अंतिम रूप देने पर चर्चा कर रहा है। हेमंत कैबिनेट में झारखंड कोटे से चार मंत्री हैं। इनमें आलमगीर आलम, डॉ रामेश्वर उरांव, बादल और बन्ना गुप्ता शामिल हैं। इनमें से कम से कम तीन को बदलने पर विचार किया जा रहा है। इसके अलावा प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर को भी बदले जाने की चर्चा चल रही है। उनके स्थान पर काली चरण मुंडा, बंधु तिर्की, सुबोधकांत सहाय या किसी अन्य को कमान सौंपी जा सकती है। कहा जा रहा है कि हटाये जानेवाले मंत्रियों और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने इन तीन विधायकों के साथ उनके समर्थन में खड़े दूसरे विधायकों-नेताओं को अपने पाले में करने के लिए ही उनकी वापसी का माहौल बनाया है।
झारखंड कांग्रेस की अंदरूनी हालत
इस पूरे प्रकरण के बाद झारखंड कांग्रेस की अंदरूनी हालत का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इसलिए एक सवाल यह भी अब चर्चा में आ गया है कि आखिर कांग्रेस इस तरह का सियासी रायता क्यों फैलाती है। यह सवाल झारखंड के संदर्भ में जितना मौजूं है, उतना ही देश की सियासत के संदर्भ में महत्वपूर्ण भी। 2014 के आम चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद से कांग्रेस का प्रदर्शन कुछेक अपवादों को छोड़ कर लगातार नीचे ही जा रहा है। इन अपवादों में झारखंड भी है, जहां 2019 के विधानसभा चुनाव में उसने 16 सीटें जीती थी और गठबंधन की सरकार में लगभग बराबर की साझीदार बनी थी। लेकिन ढाई साल बाद ही कांग्रेस विधायकों में बिखराव शुरू हो गया। उपचुनाव में वह रामगढ़ सीट भी हार गयी और अब तो यहां तक कहा जाने लगा है कि झारखंड में इस सियासी उठापटक की जिम्मेदार भी कांग्रेस ही है। साढ़े छह दशक तक भारत के सियासी फलक पर किसी सूर्य की तरह चमकनेवाली पार्टी आज इस दयनीय स्थिति में क्यों पहुंच गयी है कि हर कोई उसे कोसने लगता है। जहां कहीं विधायकों के टूटने की बात होती है, सबसे पहले कांग्रेस के विधायक ही टूटने के लिए तैयार दिखते हैं।
झारखंड को एक पल के लिए छोड़ भी दें, तो यह महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस ने 2018 के बाद से हिमाचल और कर्नाटक के अलावा चुनावी महत्व की लगभग कोई जीत नहीं हासिल की है। केरल में इसने वाम दलों को अभूतपूर्व ढंग से लगातार दूसरी बार सत्ता में वापस आने दिया। पश्चिम बंगाल में इसकी हालत और पतली हुई। हरियाणा और मणिपुर में वह फिर से सत्ता हासिल करने में विफल रही। पंजाब के अपने मजबूत किले में इसका सफाया ही हो गया।
कांग्रेस का यह नकारात्मक प्रदर्शन वास्तव में कुछ महत्वपूर्ण संकेत देता है। एक तो यह पार्टी की भयंकर अक्षमता को उजागर करता है, जो इस यकीन से पैदा होती है कि आपको विरासत में इतनी ताकत मिली है कि आपकी नाकामियों के लिए कोई भी आपको जवाबदेह नहीं ठहरा सकता। दूसरी बात यह कि आपके लिए पार्टी हित से ज्यादा महत्वपूर्ण है आपकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद। और तीसरी बात यह कि भयंकर भूल करने के बाद भी आपको सुधार करने या खोयी हुई जमीन को वापस हासिल करने की कोशिश करना जरूरी नहीं लगता। यह ऐसा ही है, जैसे आप यह मान बैठे हों कि हमने अपना घर ढहाने का इतना शानदार काम कर दिया है कि उधर मुड़ कर देखने की जहमत क्यों की जाये। इसका नतीजा यह है कि कांग्रेस में नेतृत्व पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता। जो सवाल उठाते हैं, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है और बाहर जाते हुए उन्हें वफादारों के हमलों का सामना करना पड़ता है। जो टिके रहते हैं, वे चारे के रूप में राज्यसभा सीट हासिल करने की कोशिश करते हैं, जो अब भी उपलब्ध हो सकती है।
कांग्रेस के लिए अब भी वक्त है संभलने का। उसे अपने संगठन पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा। इसके लिए स्थानीय नेतृत्व को सामने लाना होगा, जो कम से कम पार्टी के लिए स्टैंड ले सके। जब तक ऐसा नहीं होता, कांग्रेस अपने क्षरण की इस राह पर लगातार आगे बढ़ती रहेगी।