विशेष
-‘दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम’ की स्थिति है बिहार सीएम के साथ
-तेजस्वी यादव के खिलाफ चार्जशीट के बाद दुविधा में हैं ‘सुशासन बाबू’
बिहार में जारी सियासी बयानबाजी के बीच राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह और सीएम नीतीश कुमार के बीच पटना में हुई मुलाकात ने बिहार का राजनीतिक तापमान अचानक बढ़ा दिया है। यह संयोग ही था कि 3 जुलाई को, जिस दिन यह मुलाकात हुई, उसी दिन जमीन के बदले नौकरी घोटाले में सीबीआइ की नयी चार्जशीट में डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव का नाम जुड़ा। ऐसे में नीतीश और हरिवंश की मुलाकात सियासी गलियारों में चर्चा का विषय बनी हुई है। सवाल तो यह भी उठ रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले महाराष्ट्र में बगावत का बवंडर उठा, तो क्या इससे बिहार में भी सियासी मौसम बदलने वाला है। यहां यह बात गौर करनेवाली है कि नीतीश कुमार विपक्षी एकता के सूत्रधार बने हुए हैं और बिहार में ताजा हलचल के केंद्र में वही हैं। उन्होंने लंबे वक्त बाद राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश के साथ मैराथन बैठक की। इधर बैठक हुई, उधर आॅपरेशन लोटस, नीतीश खेमे में टूट, महागठबंधन में दरार जैसे दावे फिजां में तैरने लगे। राज्यसभा के उपसभापति जदयू के सांसद भी हैं। इसलिए इन दावों को ताकत मिली। अब यह बात साफ है कि ललन सिंह महागठबंधन की मजबूती के चाहे जितने भी दावे कर लें, लेकिन भाजपा ने तेजस्वी के इस्तीफे का दवाब बनना शुरू कर दिया है। इस नयी राजनीतिक स्थिति के बीच सवाल यह कि आखिर हरिवंश और नीतीश कुमार के बीच डेढ़ घंटे की मुलाकात में क्या बात हुई। हालांकि संख्या बल के हिसाब से राजद के अलावा भाजपा ही ऐसी पार्टी है, जिसके साथ जाकर नीतीश फिर सीएम बन सकते हैं। वैसे भाजपा का जो रुख अभी दिख रहा है, उसमें नीतीश को भाजपा का साथ मिलना मुश्किल दिखता है। भाजपा कई बार कह चुकी है कि नीतीश के लिए एनडीए के दरवाजे बंद हो चुके हैं। पर उम्मीद इसलिए दिखती है कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। बिहार के ताजा सियासी घटनाक्रमों का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
बिहार के सीएम नीतीश कुमार अक्सर अपने महत्वपूर्ण फैसले अंतरात्मा की आवाज पर लेते रहे हैं। किस दल या गठबंधन के साथ उन्हें जाना है या किसका साथ छोड़ना है, यह फैसला अंतरात्मा की आवाज पर ही नीतीश कुमार करते रहे हैं। यह बात दूसरे नहीं कहते, बल्कि खुद नीतीश कुमार स्वीकार करते हैं। वर्ष 2017 में जब उन्होंने महज 20 महीने बाद महागठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ सरकार बनाने का फैसला लिया, तब भी उन्होंने यही कहा था, मैंने अंतरात्मा की आवाज पर इस्तीफा दे दिया है। नीतीश को उनकी अंतरात्मा ने तब आवाज दी थी, जब उन्होंने तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के मद्देनजर उन्हें इस्तीफा देकर जनता के बीच जाने की सलाह दी थी। अब तो सीबीआइ ने तेजस्वी यादव के खिलाफ नौकरी के लिए जमीन मामले में चार्जशीट भी दाखिल कर दी है। ऊपर से अचानक राज्यसभा के उप सभापति और नीतीश के साथी हरिवंश उनसे मिलने पहुंच गये। बता दें कि नये संसद भवन के उद्घाटन में जाने पर इन्हीं हरिवंश को जदयू ने पानी पी-पीकर कोसा था।
क्या नीतीश फिर सुनेंगे अंतरात्मा की आवाज
सवाल उठ रहा है कि क्या नीतीश कुमार की अंतरात्मा फिर जागेगी। वह तेजस्वी यादव को बरखास्त करेंगे या 2017 की तरह इस्तीफा देकर फिर किसी नये पार्टनर के साथ सरकार बनायेंगे। आखिर हरिवंश से उनकी डेढ़ घंटे की मुलाकात में क्या बात हुई। हालांकि संख्या बल के हिसाब से राजद के अलावा भाजपा ही ऐसी पार्टी है, जिसके साथ जाकर नीतीश फिर सीएम बन सकते हैं। वैसे भाजपा का जो रुख अभी दिख रहा है, उसमें नीतीश को उसका साथ मिलना मुश्किल दिखता है। भाजपा कई बार कह चुकी है कि नीतीश के लिए एनडीए में अब दरवाजे बंद हो चुके हैं। पर उम्मीद इसलिए दिखती है कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। भाजपा विचारधारा में अपनी धुर विरोधी पीडीपी के साथ सरकार बना सकती है, तो नीतीश के साथ चलने का उसके पास डेढ़ दशक का तजुर्बा भी है।
नीतीश किरकिरी करायेंगे या विकल्प तलाशेंगे
अब यह नीतीश कुमार पर निर्भर करता है कि वह क्या करेंगे। अगर 2017 को आधार माना जाये, तो तेजस्वी का चार्जशीटेड होना उन्हें अच्छा नहीं लगा होगा। वैसे भी राजद के दबाव में उन्हें अभी काम करना पड़ रहा है। ऐसे में महागठबंधन से अलग होने के लिए नीतीश के सामने दो ही विकल्प हैं। दोषमुक्त होने तक वह तेजस्वी यादव से इस्तीफा देने को कहें या फिर उन्हें बरखास्त कर दें, लेकिन राजद इसे मानने को कतई तैयार नहीं होगा। ऐसे ही आरोपों पर नीतीश ने राजद कोटे के दो मंत्रियों- सुधाकर सिंह और कार्तिकेय सिंह को इस्तीफा देने के लिए बाध्य कर दिया था। अगर अपनी कुर्सी सलामत रखने के लिए नीतीश कुमार अपने डिप्टी सीएम तेजस्वी के पक्ष में खड़े होते हैं, तो उनकी जगहंसाई स्वाभाविक है। नीतीश राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। यह भी सब जानते हैं कि वह कब किसके साथ सट जायें या हट जायें, उनके सिवा कोई नहीं जानता। वह एक बात बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि अंतरात्मा की आवाज पर ही उनके ऐसे संवेदनशील फैसले होते हैं।
नीतीश के लिए पाला बदल नयी बात नहीं है
बिहार की राजनीति में कई मौकों पर नीतीश कुमार ने पाला बदला है। साल 2013 में भाजपा ने जब गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को पीएम फेस घोषित किया, तो नीतीश कुमार ने बिदक कर उसका साथ छोड़ दिया। नीतीश कुमार ने बीजेपी से अपने 17 साल पुराने रिश्ते को झटके में तोड़ दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने उस राजद के साथ मिल कर सरकार बना ली, जिसके विरोध की बुनियाद पर वह बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे। साल 2015 में विधानसभा चुनाव के लिए राजद-जदयू और कांग्रेस ने महागठबंधन बनाया। उस चुनाव में बिहार की राजनीति बदल गयी। महागठबंधन को बड़ी कामयाबी मिली। जदयू और राजद ने 101-101 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। राजद 80 सीटों पर जीता, तो जदयू उम्मीदवार 71 सीटों पर विजयी हुए। नीतीश कुमार पांचवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बन गये।
साल 2017 में तोड़ लिया महागठबंधन से नाता
नये समीकरण की सत्ता में नीतीश के 20 महीने बीते। इस बीच खटपट भी शुरू हो गयी। तेजस्वी तब भी डिप्टी सीएम थे। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, तो इस्तीफे की मांग का दबाव भाजपा की ओर से बढ़ने लगा। कहा तो यह भी जाता है कि नीतीश ने तेजस्वी को सलाह दी कि वह इस्तीफा देकर जनता के बीच जायें। तेजस्वी के पिता लालू यादव ने उनकी सलाह ठुकरा दी। नतीजा हुआ कि 26 जुलाई 2017 को नीतीश कुमार ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया। नीतीश कुमार ने तब कहा था कि माहौल ऐसा बन गया था कि काम करना मुश्किल हो गया था। इस्तीफा देने के साथ ही नीतीश कुमार ने फिर भाजपा और सहयोगी पार्टियों की मदद से सरकार बना ली। 27 जुलाई 2017 को उन्होंने छठी बार बिहार के सीएम की कुर्सी संभाली।
आरजेडी एमएलसी सुनील सिंह और नितीश कुमार के बीच की तल्खी, कहीं बिहार की राजनीति में बगावत की बीज न बो दे
उधर, आरजेडी एमएलसी सुनील सिंह ने सीएम नीतीश कुमार और बिहार के अधिकारियों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। जिसके बाद जेडीयू की नाराजगी बढ़ती जा रही है। आरजेडी एमएलसी और लालू यादव के करीबी सुनील कुमार सिंह ने जेडीयू कोटे के मंत्री अशोक चौधरी पर भी तीखा हमला किया था। आरजेडी एमएलसी ने अपने फेसबुक पोस्ट के जरिए बिहार सरकार के अफसरों को डाकू अंगुलिमाल और डाकू खड़क सिंह जैसा बताया था। शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर और विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक के विवाद के बाद से महागठबंधन में तनातनी जारी है। वहीं कांग्रेस विधायक अजीत शर्मा ने कहा कि सीएम नीतीश कुमार ने सुनील सिंह से बैठक में कहा कि आप अमित शाह से मिलते रहते हैं। सोशल मीडिया पर कई तस्वीर आपकी उनके साथ है। आप बीजेपी से मिले हुए हैं। आप बीजेपी से लोकसभा चुनाव का टिकट चाहते हैं। लालू परिवार के आप करीबी हैं, यह सब मत करिए। इस पर सुनील सिंह ने कहा कि मैं अमित शाह के संपर्क में नहीं हूं न बीजेपी में जाना है। उन्होंने कहा कि अमित शाह केंद्रीय सहकारिता मंत्री हैं, और इस नाते मुलाकात करने में कोई हर्ज नहीं है। सुनील सिंह ने आगे कहा कि आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने चुप रहने को कहा है, इसलिए शांत हूं। बताया जा रहा है कि विधानमंडल दल की बैठक में नीतीश कुमार सिर्फ आरजेडी एमएलसी सुनील सिंह पर ही नहीं, कांग्रेस और खुद की पार्टी के कुछ विधायकों पर भी नाराज दिखे। चर्चा है की टूट की खबरों से भी नीतीश कुमार परेशान हैं। यही कारण है कि महागठबंधन विधानमंडल दल की बैठक में नीतीश कुमार अलग अंदाज में दिखे।
नीतीश कुमार के पास अब क्या है विकल्प
अगर सच में नीतीश कुमार की अंतरात्मा जाग जाये और महागठबंधन को अलविदा कहने की सलाह दे, तो सत्ता में बने रहने के लिए उनके पास क्या-क्या विकल्प हो सकते हैं, यह विचारणीय सवाल है। बिहार के सियासी गलियारे में इस पर भी मंथन शुरू हो गया है। कुछ लोग मानते हैं कि नीतीश राजद के दबाव से पहले से ही ऊबे हुए हैं। ऊपर से तेजस्वी अब चार्जशीटेड हो गये हैं। इसलिए महागठबंधन से अलग होने का उनके लिए अनुकूल अवसर है। ऐसे में उनके पास दो ही विकल्प दिखते हैं। पहला कि वह किसी तरह मान-मनौवल कर भाजपा को पटा लें, जिससे वह सीएम बने रह सकते हैं। भाजपा भले ना-नुकुर कर रही है, पर सच है कि उसको भी नीतीश कुमार के कद का एक सहयोगी चाहिए। चर्चा तो यह भी है कि भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए कोई भी समझौता करने से गुरेज नहीं करेगी। वैसे भी राजनीति में दुश्मनी का कोई स्थायी महत्व नहीं है। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि नीतीश कुमार ऐसे समय विधानसभा भंग कर दें, ताकि लोकसभा के साथ ही विधानसभा का चुनाव हो जाये। इसकी संभावना अधिक इसलिए दिखती है, क्योंकि पिछले ही महीने अफसरों के साथ समीक्षा बैठक में उन्होंने कहा था कि काम समय से पहले पूरा कर लें, क्योंकि कभी भी चुनाव हो सकते हैं। उसके बाद उनका अचानक राजभवन जाना और ऐन उसी वक्त सुशील कुमार मोदी का राजभवन पहुंचना बिहार में बड़े सियासी बदलाव की ओर ही इशारा कर रहे हैं।