विशेष
इस बार का विधानसभा चुनाव तय करेगा इंडी और एनडीए की किस्मत
एक तरफ जीत दोहराने की चुनौती, तो दूसरी तरफ खोयी हुई सत्ता हासिल करने का चैलेंज
इस झकझूमर और गठबंधनों के बीच रस्साकशी के शोर में दब गये हैं जनता से जुड़े मुद्दे
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड में विधानसभा चुनाव की गहमा-गहमी शुरू हो गयी है। सत्तारूढ़ इंडी गठबंधन और विपक्षी एनडीए के बीच चुनावी मुकाबले की जमीन तैयार की जा रही है। एक-दूसरे को पटखनी देने के लिए जमीन टटोली जा रही है, दांव-पेंच को आजमाया जा रहा है और मुकाबले में उतरनेवाले बाहुबलियों की तलाश जोर-शोर से की जा रही है। कहां कौन लड़ेगा और किस दल से लड़ेगा, इसका हिसाब बैठाया जा रहा है, तो कहां किस जाति का कितना वोट है और किस जाति का वोटर किसके पक्ष में वोट करेगा, इसके पीछे के समीकरणों को साधने के लिए किसिम-किसिम के उपाय किये जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो झारखंड विधानसभा चुनाव के मैदान में उतरनेवाले दोनों गठबंधनों की तरफ से हर तरह के घोड़े दौड़ाये जा रहे हैं।
लेकिन इस झकझूमर और रस्साकशी के शोर में झारखंड के आम लोग पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि कौन उनके हित की बात कर रहा है और कौन उनके कल्याण के लिए, विकास के लिए अगले पांच साल तक काम करने की क्षमता रखता है। मुद्दों की बात न कोई गठबंधन कर रहा है और न कोई संभावित प्रत्याशी। पार्टियों के भीतर सीटों और उम्मीदवारों को लेकर कन्फ्यूजन की स्थिति है, तो आम लोग चुनावी मुद्दों को लेकर कन्फ्यूज हैं। इन दोनों कन्फ्यूजनों के बीच चुनावी मुद्दों की तलाश में भटक रहे राजनीतिक दलों के पास क्या है रास्ता और आम लोगों के पास क्या है उपाय, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड में इस साल होनेवाला विधानसभा चुनाव बड़ा ही रोचक होनेवाला है। यह विधानसभा चुनाव महज सत्ता का द्वार ही नहीं खोलेगा, यह चुनाव पार्टियों के वास्तविक वजूद का लिटमस टेस्ट भी करेगा। उसकी राजनीतिक दशा और दिशा भी तय करेगा। कई प्रत्याशियों का राजनीतिक भविष्य भी इसके परिणामों पर टिका होगा। लेकिन इस बार का विधानसभा चुनाव बड़ा कन्फ्यूजिंग भी होनेवाला है। एक तरफ पार्टियों में प्रत्याशियों को लेकर कई सीटों पर कन्फ्यूजन है, तो दूसरी तरफ जनता भी कन्फ्यूज है कि किन मुद्दों को लेकर वोट करे, क्योंकि इस बार जनता के समक्ष कोई भी नया मुद्दा नहीं है। वही घिसा-पिटा मुद्दा पक्ष और विपक्ष, दोनों के पास है। अब मुद्दे ही नहीं होंगे, तो वही आदिवासी, महतो, कुड़मी, ओबीसी का मुद्दा जबरन चलाया जायेगा।
झारखंड में हमेशा कुछ गिने-चुने मुद्दे ही उठते रहे
झारखंड का यह दुर्भाग्य ही कहिये कि जन्म से लेकर युवावस्था तक, यानी 23 साल आठ महीने तक महज चंद मुद्दों को लेकर ही राजनीति होती रही। यहां की जनता भी धन्य है कि इतने सालों से वह इन्ही चंद मुद्दों को लेकर वोट देती आ रही है। वही स्थानीय नीति, वही नियोजन नीति, वही आरक्षण, वही रोजगार, वही भष्टाचार, नया कुछ भी नहीं। जब वादे पूरे ही नहीं होंगे, तो नया मुद्दा आयेगा कैसे बाजार में। हां, नक्सलवाद की समस्या से झारखंड को राहत जरूर मिली है। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह उपलब्धि बाबूलाल मरांडी और रघुबर दास के खाते में जानी चाहिए, क्योंकि नक्सलवाद के खिलाफ जंग का आगाज बाबूलाल मरांडी ने किया था और इसे अंजाम तक रघुवर दास की सरकार ने पहुंचाया।
क्या है झारखंड के चुनावी मुद्दों की स्थिति
झारखंड में वैसे देखा जाये, तो मुद्दों की कोई कमी नहीं है। नीतिगत और राजनीतिक मुद्दों को छोड़ भी दें, तो महंगाई, बेरोजगारी, विकास, भ्रष्टाचार, कानून-व्यवस्था और बिजली-पानी-सड़क से जुड़े मुद्दों को चुनावों में उठाया जा सकता है। लेकिन दिक्कत है कि इन मुद्दों को लेकर न तो कोई राजनीतिक दल गंभीर है और न ही कोई संभावित उम्मीदवार। यह झारखंड की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि यहां सक्रिय राजनीतिक दलों ने कभी भी आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर वोट नहीं मांगे। उदाहरण के लिए पहाड़ों के गायब होने के कारण बदलता मौसम, मानव तस्करी, पलायन, विस्थापन, शिक्षा और नशाखोरी जैसे मुद्दे राजनीतिक दलों की सूची से बाहर ही रहे हैं। इन मुद्दों पर न तो कोई बात करता है और न कोई बात करना चाहता है।
इंडी गठबंधन के पास क्या हैं चुनावी मुद्दे
इंडी गठबंधन वाले अपने पुराने वादों को लेकर सामने हैं, जो महागठबंधन के रूप में उन्होंने 2019 के विधानसभा चुनाव में किये थे और सत्ता हासिल की थी, लेकिन उनमें से कुछ वादे-वादे ही रह गये। ना नियोजन नीति ही बनी, न स्थानीय नीति ही बनी, न ही आरक्षण का कुछ हुआ, रोजगार का भी वही हाल है। नियुक्ति परीक्षा की तो छोड़ ही दीजिए। युवाओं को कोई आस नहीं है कि कुछ होने भी वाला है। हां, विकास की कुछ योजनाएं हैं, जो चल रही हैं, लेकिन उसका असर जनता में कितना होगा, अभी साफ नहीं है।
एनडीए के पास हैं कौन से मुद्दे
वहीं भाजपा के पास भी भ्रष्टाचार के अलावा कोई दूसरा मुद्दा नहीं है, लेकिन हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आते ही वह भी बैकफुट पर है। जमानत देते समय हाइकोई की टिप्पणी से भाजपा बैकफुट पर है। हां, एक मुद्दा भाजपा वालों ने जोर-शोर से उठाया है, वह है बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा, आदिवासियों की घटती आबादी और मुसलमानों की बढ़ती आबादी का मुद्दा। आदिवासियों के अस्तित्व का मुद्दा। लेकिन इस मुद्दे को अगर भाजपा पकड़ कर नहीं रखेगी, इसके लिए आंदोलन नहीं करेगी, तो यह मुद्दा भी उसके लिए अस्तित्वहीन हो जायेगा। एक और मुद्दा भाजपा ने उठाया है। वह है राज्य की कानून-व्यवस्था, लेकिन महज मुद्दा चिह्नित करने से नहीं होगा, इसके लिए भी सड़क पर भाजपा नेताओं को उतरना होगा। और सच्चाई यही है कि एक साल से भाजपा के नेताओं ने सड़क पर उतर कर कोई आंदोलन नहीं किया है। घटना घटने के बाद दौरा करना और बयान देने तक ही वे सिमटे रह गये हैं।
संविधान और आरक्षण का सवाल
कांग्रेस और झामुमो द्वारा भाजपा पर संविधान को बदलने की साजिश रचने का आरोप भी मढ़ा जा सकता है। इसके जवाब में एससी-एसटी और ओबीसी आरक्षण का मुद्दा उठाते हुए भाजपा के पास यह कहने को होगा कि कांग्रेस तुष्टीकरण के लिए एससी, एसटी और ओबीसी के हिस्से का आरक्षण अपने वोट बैंक में बांट देना चाहती है। इसके साथ ही भाजपा महागठबंधन द्वारा 2019 में युवाओं से किये गये वादों को याद करायेगी और राज्य में कानून व्यवस्था को लेकर मुखर होगी। इसके बाद सबसे अहम मुद्दा नगर निकाय चुनाव का है, जिसे भाजपा-आजसू भुनाने को तैयार है।
परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं रह गया है झारखंड में
इन मुद्दों के बीच भाजपा-आजसू के पास जो सबसे नया मुद्दा आया है, वह है परिवारवाद का मुद्दा। लेकिन उसकी सच्चाई यही है कि झारखंड में परिवारवाद कोई कारगर मुद्दा नहीं रह गया है। हां कहने के लिए भाजपा और आजसू यह जरूर कह रही है कि चंपाई सोरेन को हटा कर हेमंत सोरेन ने फिर कमान अपने हाथ में ले ली, यह चंपाई सोरेन के साथ अच्छा नहीं हुआ। लेकिन इस बात का कोई असर जनता में पड़ेगा, ऐसा नहीं लगता, कारण झामुमो हेमंत सोरेन के नेतृत्व में इंटैक्ट है और झामुमो का हर नेता और कार्यकर्ता यह अच्छी तरह जानता है कि दिशोम गुरु शिबू सोरेन और उनकी विरासत संभाल रहे हेमंत सोरेन के जोड़ का नेता उनके पास नहीं है। हेमंत सोरेन ने अपने नेतृत्व में झामुमो को पूरी तरह इंटैक्ट रखा है। यह लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला।
भाजपा जिस उत्साह और जोश के साथ सीता सोरेन को अपने साथ लेकर आयी थी, उसको उम्मीद थी कि इससे झामुमो दरकेगा लेकिन जब परिणाम सामने आया, तो यह साफ हो गया कि आज भी झामुमो के लोग शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन को ही अपना आदर्श मानते हैं। सीता सोरेन को हार का सामना करना पड़ा। यह पहला अवसर नहीं है, जब झामुमो के नेता को भाजपा अपने पाले में करके उसे राजनीतिक पटकनी देने की रणनीति अपनायी, लेकिन हर बार उसे नुकसान ही हुआ।
इस तरह साफ है कि झारखंड विधानसभा का आसन्न चुनाव मुद्दों के लिहाज से बेहद आक्रामक और रोमांचक होगा। दोनों पक्षों के पास हालांकि जनता को अपने पक्ष में करने के लिए मुद्दों की कोई कमी नहीं है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इन मुद्दों पर लोग कितना भरोसा करते हैं। इसका जवाब को चुनाव के बाद ही मिल सकता है।