विशेष
अवैध खदानों में पांच वर्षों में सात सौ से अधिक लोग गंवा चुके हैं जान
हर साल एक हजार करोड़ रुपये से अधिक का है यह पूरा काला कारोबार
स्थानीय दबंग, माफिया और अपराधी चलाते हैं अवैध खनन का नेटवर्क

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड में कोयले का अवैध खनन और फिर तस्करी का इतिहास कई दशक पुराना है। आज यह अवैध कारोबार इतना फैल चुका है कि इस पर नियंत्रण के तमाम उपाय नाकाफी साबित हो रहे हैं। कोयले के इस अवैध कारोबार का आकार हर साल एक हजार करोड़ रुपये से अधिक का हो गया है। अवैध खनन के बाद कोयले को खुलेआम सड़क मार्ग के जरिये ढोया जा रहा है। इस गोरखधंधे को रोकने का जिम्मा जिन एजेंसियों के पास है, वे अब निष्प्रभावी साबित हो गयी हैं। सबसे दुखद स्थिति यह है कि अवैध कोयला खनन के दौरान यदि कोई हादसा होता है, तो प्रभावित परिवारों को न तो कोई राहत मिलती है और न कोई मुआवजा। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में पिछले पांच वर्षों के दौरान सात सौ से अधिक लोगों की जान अवैध खदानों में जा चुकी है। इसके बावजूद यह कारोबार बिना किसी रुकावट से फल-फूल रहा है। सुरक्षा एजेंसियों की मौन के कारण न अवैध खनन रुक रहा है और न ढुलाई पर अंकुश लग पा रहा है। इस पूरे नेटवर्क को स्थानीय दबंग, माफिया और अपराधी गिरोह संचालित करते हैं और खादी-खाकी का सहयोग उन्हें मिलता रहता है। कोयले का सबसे ज्यादा अवैध खनन कोयला कंपनियों की बंद और खुली छोड़ खदानों से होता है। इसके अलावा बंद मुहानों को फिर से खोदकर भी कोयले का अवैध खनन किया जाता है। अवैध खनन में तस्कर बाकायदा मजदूरों को भी दिहाड़ी में बहाल करते हैं। क्या है झारखंड में कोयले के अवैध खनन और कारोबार का पूरा अर्थशास्त्र, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

झारखंड के अलग-अलग जिलों में अवस्थित कोलियरी क्षेत्र से कोयले का अवैध खनन और फिर इसका परिवहन नयी बात नहीं है। यह अवैध धंधा पिछले पांच दशक से फलता-फूलता रहा है। हाल के दिनों में इस ओर लोगों का ध्यान गया है, क्योंकि पहले रामगढ़ के करमा और फिर धनबाद के केसरगढ़ में अवैध खनन के दौरान हुए हादसे में कई लोगों की मौत हो गयी।

छोटे स्तर पर हुई शुरूआत
झारखंड में कोयले के अवैध खनन की शुरूआत छोटे स्तर पर हुई, लेकिन धीरे-धीरे इसका स्वरूप वृहद होता गया। गिरिडीह हो या धनबाद, हजारीबाग हो या रामगढ़, चितरा हो या बोकारो, हर जगह संगठित गिरोह कोलियरी क्षेत्र के आसपास ही इस अवैध कार्य में जुटे रहे।

असुरक्षित तरीके से होता रहा खनन, जाती रही जान
पांच दशक पूर्व ही अवैध तरीके से धरती को खोदने और फिर अंदर से काला हीरा निकाल कर इसकी तस्करी शुरू की गयी। गिरिडीह और धनबाद के इलाके से अवैध खनन का यह काम चलता रहा। असुरक्षित तरीके से किये जा रहे खनन के दौरान अक्सरा भू-धंसान की घटना घटती रही और लोगों की जान जाती रही। ज्यादातर मामले में मृतक के परिजनों को डराया गया और फिर चुप कराया जाता रहा।

1975 से शुरू हुआ अवैध कारोबार
कहा जाता है कि कोयला खदान जब तक निजी हाथों में थी, तब तक अवैध खनन नहीं के बराबर होता था। वर्ष 1971 में कोयला क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण शुरू हुआ। राष्ट्रीयकरण होने के चंद वर्ष बाद से ही कोयले का अवैध खनन शुरू हो गया। जब कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ, तो भूमिगत खदान भी बंद होने लगी। तब बंद खदानों को तस्करों ने टारगेट किया और अवैध खनन का कारोबार शुरू हुआ।

मजदूर ने खोली खदान, हावी हुए माफिया
यह जानना दिलचस्प है कि गिरिडीह-धनबाद जैसे इलाके में अवैध खनन का काम शुरूआत में मजदूरों ने ही शुरू किया। मजदूर कोयला निकालते और उसी से इनका घर चलता था। धीरे-धीरे कई माफियाओं का उदय हुआ और अवैध खनन पर इनकी नजर पैनी होती गयी। बताते हैं कि 77-78 के बाद कई सफेदपोश भी इस धंधे में उतर गए। गिरिडीह हो या धनबाद या फिर हजारीबाग-रामगढ़, हर जगह माफिया राज चलने लगा। मजदूरों को लालच देकर खनन के लिए बुलाया जाता और कोयला निकाल कर उसे बाहर भेज दिया जाता। पूरी आमदनी माफियाओं-दबंगों की होती और मजदूरों को नाम मात्र का मेहनताना या फिर कोयले का थोड़ा हिस्सा देकर चुप करा दिया जाता।

अवैध खनन में प्रशिक्षित मजदूरों को लगाया जाता है
इस पूरे नेटवर्क का एक और चौंकानेवाला पहलू यह है कि अवैध खदानों में काम करने के लिए अधिकतर वैसे मजदूरों को लगाया जाता है, जो प्रशिक्षित होते हैं। इन्हें अंशकालिक रूप से काम पर रखा जाता है और ये नौकरी से छुट्टी लेकर अवैध खनन करते हैं। कई दफा ये मजदूर हादसे का शिकार हुए। अमूमन ज्यादातर मामले को दबा दिये गये लेकिन एक-दो मामले सामने भी आये।

दो तरह से होता है अवैध खनन
अवैध कोयला खनन का काम दो तरीके से किया जाता है। पहला तरीका सिरमोहन है, यानि गुफा की तरह का रास्ता बनाकर खदान के अंदर जाना और फिर कोयला काटना। दूसरा तरीका है कुएं की तरह मुहाना बनाना, फिर रस्सी-लट्ठे के सहारे अंदर जाना। इन दोनों तरीके में स्थानीय मजदूरों को महारथ हासिल है।

नुकसान की नहीं होती भरपाई
अवैध खनन का यह कारोबार करीब एक हजार करोड़ का है। इसके कारण कोल इंडिया को तो नुकसान होता ही है, सरकारी राजस्व को भी नुकसान हो रहा है। दूसरी तरफ चंद पैसे की खातिर इन खदानों में जाने वाले मजदूरों की मौत हो रही है। ऐसे गलत कार्य में मारे जाने वाले मजदूर की मौत के बाद परिजनों की चुप्पी के पीछे डर ही बड़ी वजह है। पहला डर होता है कि अगर परिजन बोलेंगे, तो पुलिस उनके साथ न्याय नहीं करेगी। उल्टा उन्हें ही फंसा देगी। दूसरा बड़ा कारण भी डर ही है। यह डर उन माफियाओं का रहता है, जो मजदूरों से अवैध खनन करवाते हैं। ऐसे माफिया किसी भी हद तक जा सकते हैं।

पांच साल में 60 से अधिक छोटे-बड़े हादसे
अवैध खनन के दौरान होनेवाले हादसों का कोई आधिकारिक आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन जानकार बताते हैं कि पिछले पांच साल के दौरान 60 से अधिक छोटे-बड़े हादसे हुए हैं। इनमें सात सौ से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। ज्यादातर हादसों को छिपाया गया। कोयला उद्योग में सक्रिय मजदूर नेता बताते हैं कि अवैध खनन के दौरान हादसा होता है और मजदूर मरते हैं। डर से परिजन माफियाओं का नाम नहीं बताते हैं। इस तरह की घटना के पीछे की बड़ी वजह बेरोजगारी है। बड़ी बात है कि ऐसी घटनाओं के बाद दोषारोपण मजदूरों पर किया जाता है, जो सही नहीं है। कार्रवाई भी मजदूरों पर होती है। सफेदपोशों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी, तो ऐसी घटना पर रोक कैसे लगेगी।

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