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बिहार के सबसे बड़े वोट बैंक पर है सभी राजनीतिक दलों की नजर
पिछले 20 साल से अति-पिछड़ों के कारण ही अजेय बने हुए हैं नीतीश
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
बिहार विधानसभा के आसन्न चुनाव के मद्देनजर चरम पर पहुंच चुकी राजनीतिक गतिविधियों के बीच अब सामाजिक समीकरणों पर राजनीतिक दलों की चौकन्नी नजर है। हरेक विधानसभा सीट के सामाजिक समीकरणों पर एकत्र की गयी रिपोर्ट के आधार पर रणनीतियां तैयार की जा रही हैं और अलग-अलग तरीके से बिहार की सत्ता की इस ‘अति पिछड़ी’ गाड़ी को अपने पास खड़ा करने की जुगत भिड़ायी जा रही है। बिहार की राजनीति में सबसे बड़ा वोट बैंक अति पिछड़ी जातियों का है। कुल 114 छोटी-बड़ी जातियों में विभाजित इस वर्ग के पास 36 प्रतिशत वोट है। पिछले दो दशकों से बिहार की राजनीति में यही वोट बैंक सरकार बनाने के हिसाब से नीतीश कुमार को अपराजेय बनाये हुए है। इसी वोट बैंक में सेंध लगाकर लालू प्रसाद अपनी सत्ता में वापसी सुनिश्चित करना चाहते हैं। यही वजह है कि 2025 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद अपने पुराने ‘जिन्न’ को अपने सियासी पक्ष में फिर से जिंदा करना चाहते हैं। नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए ने अति पिछड़ा वोट बैंक को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए कई प्रयास किये हैं। कल्याणकारी कार्यक्रमों के अलावा अति पिछड़ी जातियों के नेताओं को आगे बढ़ा कर इस समीकरण को नया आयाम दिया जा रहा है। ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि बिहार का यह अति पिछड़ा वर्ग इस बार किधर का रुख करेगा। क्या है बिहार की अति पिछड़ा राजनीति और इस बार क्या हैं संभावनाएं, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
इस साल के अंत, यानी अक्तूबर-नवंबर में होने वाला बिहार विधानसभा चुनाव कई मायनों में निर्णायक साबित हो सकता है। यह चुनाव ऐसे समय में हो रहा है, जब पिछले दो दशकों से राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर छाये रहने वाले मुख्यमंत्री और जदयू नेता नीतीश कुमार की सेहत और छवि में गिरावट आयी है। हालांकि उन्होंने रिटायरमेंट की अटकलों को खारिज करते हुए हाल ही में कहा कि वह कहीं नहीं जा रहे हैं और महिलाओं के लिए राज्य सरकार की नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण की घोषणा करके अपनी उपस्थिति महसूस कराने की कोशिश की, लेकिन यह धारणा बनी हुई है कि वह कमजोर पड़ रहे हैं। ऐसे में हैरानी नहीं है कि राजनीतिक दल, जिनमें उनकी अपनी पार्टी भी शामिल है, पहले से ही नीतीश के बाद के दौर की तैयारी कर रहे हैं और उसी के अनुसार, चुनावी रणनीति बना रहे हैं। इससे एक दिलचस्प जंग देखने को मिल रही है। यह जंग है अति पिछड़ा वर्ग के वोट को हासिल करने की।
नीतीश ने बनाया अति पिछड़ा वर्ग
वर्ष 2006 में भाजपा गठबंधन वाली सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश ने 113 उप-जातियों को बाहर निकालकर मंडल ब्लॉक को तोड़ दिया। उन्होंने उन्हें अति पिछड़ा वर्ग बताया और उनके लिए विशेष कल्याणकारी योजनाएं चलायीं। उन्होंने कुछ मुस्लिम समूहों को भी इसमें शामिल किया, जिससे भाजपा के साथ गठबंधन के बावजूद उन्हें अल्पसंख्यकों के एक वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ।
36 फीसदी है अति पिछड़ों की आबादी
नीतीश सरकार द्वारा 2023 में करायी गयी जाति गणना के अनुसार बिहार में अति पिछड़ा वर्ग की हिस्सेदारी लगभग 36 फीसदी है। इनमें से बड़ी संख्या जदयू के वफादार मतदाताओं की है। इसी वर्ग के समर्थन ने नीतीश को बिहार में एक मजबूत ताकत बनाया है, क्योंकि इसी वजह से वह जिस भी गठबंधन से जुड़ते थे, उसके पक्ष में चुनाव नतीजों को प्रभावित कर पाते थे। जब तक नीतीश सक्रिय रहे, बिहार इसी स्थिति में रहा। लेकिन अब, जब उनका स्वास्थ्य खराब हो रहा है और सार्वजनिक उपस्थिति कम हो रही है, तो सभी दल इस महत्वपूर्ण अति पिछड़ा वर्ग (इबीसी) के वोट बैंक पर नजर गड़ाये हुए हैं, ताकि उसे हथियाया जा सके।
हर पार्टी में इबीसी को साधने की होड़
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, बिहार में इबीसी को अपने पाले में करने की यह होड़ और भी तेज होती जा रही है। हर पार्टी इसमें शामिल है। मिसाल के तौर पर भाजपा ने फरवरी में नीतीश को अपनी सरकार में सात नये मंत्रियों के लिए राजी किया। हैरानी नहीं कि इनमें से चार नीतीश के मतदाता वर्ग से हैं, जिससे साफ है कि भाजपा की नजर इस वोट बैंक पर है। यही नहीं, नीतीश की रणनीति से सीख लेते हुए मोदी सरकार ने घोषणा की कि एक मार्च, 2027 से शुरू होने वाली राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत गणना को भी शामिल किया जायेगा, जबकि वह इसका विरोध करती रही है।
उधर, राजद ने अपने इतिहास में पहली बार किसी अति पिछड़े वर्ग (इबीसी) के नेता को अपनी बिहार इकाई का अध्यक्ष नियुक्त किया है। हाल ही में पार्टी ने धानुक जाति के 70 वर्षीय मंगनी राम मंडल को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया है। कांग्रेस भी अति पिछड़े वर्गों को साधने में सक्रिय है। राहुल गांधी इन समुदायों के नेताओं से मिलने के लिए पिछले पांच महीनों में बिहार के चार दौरे कर चुके हैं।
राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ेगा असर
हालांकि, बिहार चुनाव सिर्फ पटना में अगली सरकार बनने के बारे में नहीं है। यह 1990 के दशक से भारतीय राजनीति को आकार देने वाले मंडल बनाम कमंडल (हिंदुत्व) के संघर्ष की अंतिम सीमा का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए इस जनादेश का असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ने की संभावना है।
भाजपा के लिए बड़ा अवसर
नीतीश की स्वास्थ्य समस्याएं भाजपा के लिए उनकी छाया से बाहर निकलने का अवसर है। यही नहीं, उसे उस राज्य में पहली बार अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाने के साथ खुद को स्थापित करने का मौका मिलेगा, जो अब तक उसकी पकड़ से बाहर रहा है। अगर भाजपा बिहार में जीतती है, तो वह हिंदी पट्टी में अपना परचम लहरायेगी और मंडल राजनीति के अंतिम अवशेषों को मिटाने के लिए हिंदुत्व को नयी गति देगी। वह बिहार की जीत का इस्तेमाल एक और ऐसे राज्य में प्रवेश के लिए करेगी, जो अब तक पहुंच से बाहर है, जैसे पड़ोसी पश्चिम बंगाल, जहां 2026 की पहली छमाही में चुनाव होंगे। भाजपा के लिए बिहार में मुख्य चुनौती राजद, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां (भाकपा-माले सहित) से मिलकर बना इंडिया गठबंधन है। नीतीश की सेहत ने मंडल वोट बैंक को फिर से एकजुट करके हिंदुत्ववादी ताकतों को दूर रखने की उम्मीदें जगायी हैं।
दूसरे नेताओं ने लगा रखी है उम्मीद
जैसे-जैसे नीतीश कुमार की उम्र बढ़ रही है, दूसरी पार्टियां अपनी जगह बनाने की उम्मीद कर रही हैं। हालांकि, मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री और लोकसभा सांसद होने के बावजूद लोजपा नेता चिराग पासवान ने अपना ध्यान राज्य की राजनीति पर केंद्रित करने का फैसला किया है और हाल ही में घोषणा की है कि वह भी चुनाव लड़ेंगे। लेकिन एक और महत्वपूर्ण बात है चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) की नयी पार्टी जन सुराज का प्रवेश। यह एक छुपी हुई संभावना है, लेकिन किशोर को नीतीश के नेपथ्य में काम करने के अपने अनुभव से ताकत मिलती है, जब 2015 में राजद और जदयू के महागठबंधन ने भाजपा को हराकर शानदार जीत हासिल की थी।
पीके फैक्टर भी अहम है
प्रशांत किशोर पिछले दो साल से बिहार के कोने-कोने में पैदल यात्रा कर रहे हैं। वह राज्य के हर गांव तक पहुंच चुके होंगे। किसी भी नयी पार्टी को वोट मिलना हमेशा मुश्किल होता है। लेकिन बिहार की राजनीति पर नजर रखनेवालों का मानना है कि बिहार में बदलाव की प्रबल इच्छा है, जो पीके की सभाओं में भारी भीड़ और एक करोड़ से ज्यादा लोगों की सदस्यता से जाहिर हो रही है।
इस राजनीतिक खेल में चुनाव आयोग ने भी मतदान से कुछ महीने पहले मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण करने का फैसला लिया है। इससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी है, क्योंकि चुनाव आयोग आसन्न चुनावों की समय सीमा से पहले इसे कराने की जल्दबाजी में है। 2025 का जनादेश भविष्यवाणी करने के लिहाज से सबसे कठिन चुनावों में से एक साबित हो सकता है।