विशेष
पिछले तीन चुनावों में महिला विधायकों की संख्या कम ही रही
साल-दर-साल कम होती जा रही है महिला विधायकों की संख्या
किसी भी दल ने अब तक महिला को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
बिहार विधानसभा के आसन्न चुनावों के लिए जारी सियासी गतिविधियों के बीच यह जान कर हैरानी होती है कि जिस राज्य के चुनाव में महिला वोटरों का मतदान प्रतिशत चुनाव-दर-चुनाव बढ़ता जा रहा है, उस राज्य के सियासी रण में महिलाओं की मौजूदगी चुनाव-दर-चुनाव घटती जा रही है। जी हां, हम बिहार की बात कर रहे हैं, जहां के चुनाव मैदान में महिलाओं की भूमिका अब तक वोटर से आगे नहीं बढ़ सकी है। यह जानकारी भी बेहद चौंकानेवाली है कि आजादी के बाद 1951 में हुए पहले चुनाव से लेकर 2020 तक के चुनाव में बिहार के इतिहास में कभी एक साथ 34 से अधिक महिला विधायक नहीं चुनी गयीं, जबकि महिलाओं ने हर चुनाव में जम कर वोट दिया है। इससे साफ होता है कि बिहार में मतदान में महिलाओं की भागीदारी तो बढ़ रही है, लेकिन सरकार में नहीं। इतना ही नहीं, यह जानना भी दिलचस्प है कि आज तक किसी भी दल ने किसी महिला को बिहार प्रदेश का अध्यक्ष नहीं बनाया है। बिहार को महिला मुख्यमंत्री देने का श्रेय लालू यादव और राष्ट्रीय जनता दल को ही जाता है। राबड़ी देवी एकमात्र महिला हैं, जिन्हें बिहार के शासन की बागडोर संभालने का अवसर मिला। बिहार की सियासी तस्वीर का यह निश्चय ही अंधकार भरा पहलू है। क्या है बिहार की राजनीति में महिलाओं का स्थान और आखिर क्यों राजनीतिक दलों की तरफ से महिलाओं को टिकट देने में कोताही बरती जाती है, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ानेवाला बिहार इन दिनों चुनावी तपिश झेल रहा है। चुनावी रण में उतरने की तैयारी कर रहे राजनीतिक दल अपने-अपने योद्धाओं के चयन के साथ मुकाबले के लिए व्यूह रचना में व्यस्त हैं, तो ऐसे में एक बात का सहसा ध्यान आता है कि इस सियासी आपाधापी में बिहार की महिलाएं कहां हैं। इस सवाल का जवाब देना बहुत आसान नहीं है। ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के सिद्धांत की परिकल्पना करनेवाले संविधान निर्माता डॉ बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने यह कल्पना कभी नहीं की होगी कि बिहार में उनकी परिकल्पना सटीक बैठेगी और महिलाएं वहां केवल ‘वोटर’ की भूमिका में रहेंगी।
75 साल में केवल एक महिला सीएम
बिहार की सियासत में महिलाओं की स्थिति की कल्पना इसी बात से की जा सकती है कि इस राज्य ने आजादी के बाद से अब तक केवल एक महिला मुख्यमंत्री को देखा है। राजद नेता राबड़ी देवी करीब 28 साल पहले इस राज्य की मुख्यमंत्री नहीं बनी होतीं, तो क्या बिहार के लोग यह बता पाते कि वे उन राज्यों के क्लब में शामिल हैं, जिसने कम से कम एक महिला मुख्यमंत्री चुना है। इसके अलावा एनडीए की सरकार में भाजपा ने एक डिप्टी सीएम भी महिला को बनाया है। बिहार की महिलाओं के सियासी हक में अब तक यही एकमात्र उपलब्धि है। अन्यथा राज्य की राजनीति में महिलाएं धीरे-धीरे हाशिये पर फेकी जा रही हैं।
किसी भी दल ने महिला को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया
यह एक कड़वी सच्चाई है कि बिहार के राजनीतिक इतिहास में एक भी दल ने किसी महिला को आज तक अपना प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया है। राजनीति में महिलाओं की घोर उपेक्षा हैरत में डालती है। वोट लेते समय हर दल महिलाओं का हितैषी होने का दम भरता है, लेकिन हकीकत इसके विपरीत होती है।
दलों के बड़े-बड़े दावे, सच्चाई एकदम अलग
बिहार की राजनीति में महिलाओं की बेहतरी के लिए राजद ‘माई-बहिन योजना’ ला रहा है। भाजपा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा दे रही है। जदयू पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50 फीसदी और सरकारी नौकरी में 35 फीसदी आरक्षण देने का श्रेय लेता है। कांग्रेस सामाजिक बराबरी और वाम दल सर्वहारा वर्ग की बात करते हैं। इन सब के बावजूद किसी भी दल ने अभी तक के इतिहास में 50 प्रतिशत की बात तो दूर, अपने कोटे की 30 फीसदी सीटों पर भी महिलाओं को उम्मीदवार नहीं बनाया है। ऐसे में राजनीतिक दलों के एजेंडे में महिला उत्थान की बात कागजी और सतही लगती है।
एक भी महिला को नहीं दिया टिकट
फिलहाल बिहार की 18वीं विधानसभा के चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो चुका है। सभी की निगाहें सीट बंटवारे पर हैं। हालांकि यह बात अभी नेपथ्य में है। अभी तक की सुगबुगाहट में ‘जिताऊ’ उम्मीदवार की तलाश है, जिसकी कसौटी पर महिलाएं सामान्य तौर पर खरी नहीं उतरती हैं। इस संदर्भ में चिंता में डालने वाली बात यह है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में बिहार में 58 सीटें ऐसी थीं, जहां एक भी महिला प्रत्याशी को चुनाव मैदान में नहीं उतारा गया। इसे दलीय राजनीति में आधी आबादी की उपेक्षा का अघोषित एजेंडा माना जा सकता है।
पुरुषों की तुलना में महिलाओं की वोटिंग अधिक
इसमें सबसे हैरत की बात यह है कि बिहार में 2020 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान महिला वोटर अपने घर की दहलीज लांघकर अधिक वोट डालने बूथ पर पहुंची थीं, यानी पुरुष वोटर की तुलना में महिला वोटरों का टर्नआउट अधिक रहा। पिछले चुनाव में कुल पुरुष मतदाताओं में से 54.45 प्रतिशत ने ही वोट डाले थे, जबकि कुल महिला मतदाताओं में से से करीब 59.69 प्रतिशत ने वोटिंग की थी। इसका मतलब है कि महिलाएं वोट देने में पुरुषों की तुलना में आगे रहीं । इसी तरह 2010 में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 54.49 था, जबकि पुरुषों का 51.12 रहा। साल 2015 में 60 फीसदी से ज्यादा महिलाओं ने वोटिंग में भाग लिया, जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत सिर्फ 53 रहा।
बिहार के मतदान में महिलाओं की अधिक भागीदारी का चुनाव नतीजों पर बहुत असर पड़ा। चुनाव आयोग के पास 1962 से बिहार में महिला मतदाताओं की वोटिंग का रिकॉर्ड है। पिछले 63 साल में महिला मतदाताओं का वोटिंग प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। 2010 के विधानसभा चुनाव में पहली बार महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान किया। 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में भी यही सिलसिला जारी रहा।
महिला विधायकों की लगातार घट रही संख्या
महिला मतदाताओं के इन उत्साहजनक आंकड़ों के हिसाब से विधानसभा में महिलाओं की घटती संख्या चिंता की बात है। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में सभी दलों की कुल मिलाकर 26 महिला उम्मीदवारों को जीत मिली। यह संख्या पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में दो कम रही। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में 28 महिलाएं चुनाव जीती थीं। वर्ष 2010 में 34 महिला विधायक चुनी गयी थीं। इस तरह बिहार विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। ये आंकड़े चिंताजनक हैं, खासकर उस दिशा में, जब राज्य में महिला वोटरों का टर्नआउट पुरुषों की तुलना में अधिक है। यह भी आश्चर्य का विषय है कि बिहार के चुनावी इतिहास में अब तक केवल 258 महिलाएं विधायक बनी हैं, यानी हर विधानसभा में औसतन 15 महिला विधायक ही रहीं।
1972 में कोई महिला विधायक नहीं बनी
बिहार में सबसे अधिक एक साथ 34 महिलाओं ने साल 2010 में विधानसभा चुनाव जीता था। 1972 के विधानसभा चुनाव में कोई महिला प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सकी थी। 2020 में सबसे अधिक 370 महिलाओं ने विधानसभा चुनाव लड़ा। उसी साल सर्वाधिक 302 महिला प्रत्याशियों की जमानत भी जब्त हुई। 1967 में छह, 1969 में चार और 2005 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ तीन महिला प्रत्याशियों को कामयाबी मिली। 2005 में ही अक्टूबर महीने में दोबारा विधानसभा चुनाव होने पर 25 महिलाओं ने जीत दर्ज की। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि बिहार में महिला प्रत्याशियों की संख्या तो बढ़ रही है, लेकिन सदन में भागीदारी नहीं। बिहार में पंचायत स्तर पर महिलाओं की बढ़ती भागीदारी से उनका राजनीतिक रुझान भी बदला है। कभी जातिगत राजनीति का केंद्र रहा बिहार आज बदलाव के दौर से गुजर रहा है। अधिकांश सियासी पर्टियां आज महिला मतदाताओं को ध्यान में रखकर अपने घोषणा पत्रों को आकार देने में जुटी हैं। इस बार उम्मीद की जा रही है कि महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी और तब चुनावी मुकाबले का असली रोमांच भी देखने को मिलेगा।