भारत के पुनर्जागरण में पश्चिम बंगाल की बहुत बड़ी भूमिका रही है। राजा राममोहन राय से लेकर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर शहीद खुदीराम बोस और जतिन दास ने पूरे देश को रास्ता दिखाया। इसलिए बंगाल को भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। लेकिन आजादी के महज सात दशक बाद ही सांस्कृतिक-सामाजिक धरोहरों से भरा यह प्रदेश विचित्र हालात में फंसा हुआ नजर आ रहा है। राजनीति ने बंगाल के भद्रलोक की पहचान ही बदल कर रख दी है। आज का बंगाल इस दुविधा में फंसा हुआ है कि वह किस रास्ते पर आगे बढ़े। यह सच है कि बंगाल की अस्मिता की रक्षा बेहद जरूरी है। लेकिन वहां जिस तरह का राजनीतिक माहौल है, उसमें नहीं लगता है कि बंगाल की छवि बेदाग रह सकेगी।
लगातार मजबूत हो रहे हैं अलगाववादी
नक्सलवाद ने बंगाल में जन्म लिया, लेकिन किसानों-भूमिहीनों के हितों की रक्षा करने के लिए शुरू हुआ यह आंदोलन लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। बंगाल में कई साल पहले ही जंगल महल नामक इलाका नक्सलियों ने स्थापित कर रखा था, जिसे उन्होंने स्वतंत्र घोषित कर लिया था।
इसके साथ ही वैसे अलगाववादी संगठन, जिन पर देश की एकता पर हमला करने और देश को तोड़ने की साजिश रचने का सीधा आरोप है, भी बंगाल में सिर उठा रहे हैं। पॉपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया (पीएफआइ) इसमें प्रमुख है। पड़ोसी राज्यों में प्रतिबंधित होने के बाद इस संगठन ने बंगाल को ही अपना केंद्र बना लिया है और वहीं से अपनी गतिविधियां संचालित कर रहा है। इसके अलावा घुसपैठियों की गतिविधियां भी लगातार बढ़ रही हैं। इन तत्वों को राजनीतिक नेतृत्व का समर्थन हासिल हो रहा है।
क्यों बदल रही है बंगाल की परिस्थिति
बंगाल एक ऐसा प्रदेश है, जहां हमेशा विचारों की प्रधानता रही। राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील इस प्रदेश के लोग इतने जागरूक हैं कि इन्हें बरगलाना आसान नहीं। वाम मोर्चा ने इसी जागरूकता का लाभ उठाया और भूमि सुधार और ग्राम स्वराज जैसे कुछ बड़े काम से लोगों को अपनी ओर मोड़ लिया। यही कारण है कि बंगाल वाम मोर्चा का गढ़ बन गया। लेकिन जैसे-जैसे यह गढ़ मजबूत होता गया, लोगों को इसकी खामियां भी नजर आने लगीं। ऐसे में उनकी उम्मीद ममता बनर्जी पर आकर टिक गयी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ममता बनर्जी जुझारू नेता हैं। उनका जुझारूपन शुरुआत में तो वामपंथियों के विरोध तक सीमित रहा, लेकिन समय के साथ वह बदलती चली गयीं। आज उन्हें देश की बजाय सिर्फ पश्चिम बंगाल नजर आता है। अपनी राजनीतिक पकड़ बनाये रखने के लिए वह ऐसे तत्वों को संरक्षण देने लगीं, जो देश के दूसरे हिस्सों के लिए अवांछित साबित हो रहे थे। वोट बैंक की इसी राजनीति ने बंगाल को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया।
नयी राजनीति ने किया खेल
बंगाल की राजनीति हमेशा ही ऐसे रास्ते पर चली, जिससे पूरे देश को रास्ता दिखता रहा। इस राजनीति का स्वरूप ही ममता ने बदल दिया। मराठी मानुस की राजनीति करनेवाले राज ठाकरे उनसे मिलने और अपनी रैली में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने कोलकाता आते हैं। यह वही राज ठाकरे हैं, जिन्होंने कहा था कि महाराष्टÑ में रहना है, तो मराठी बोलना होगा। ममता भी इसी तरह की राजनीति कर रही हैं, जिसके तहत वह कहती हैं कि बंगाल में रहना है, तो बांग्ला बोलना होगा। भाषा, धर्म और वेशभूषा के नाम पर देश को बांटने वाली ताकतों की कतार में बंगाल को शामिल कराना ममता की नयी राजनीति का हिस्सा है। वह मान चुकी हैं कि सत्ता में बने रहने के लिए इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। इस नयी राजनीति ने बंगाल का कितना नुकसान किया है, इसका आकलन अभी नहीं किया जा सकता है।
बंगाल ही क्यों बना ठिकाना
यहां सवाल यह उठता है कि आखिर बंगाल ही क्यों, कोई दूसरा प्रदेश इस तरह के तत्वों का निशाना क्यों नहीं बना। इसका उत्तर बिलकुल साफ है। बंगाल की भौगोलिक स्थिति इसे भारत विरोधी तत्वों का पनाहगाह बनाती है। इसके साथ राज्य सरकार की नीतियां और ऐसे तत्वों के प्रति उसका नरम रुख अलगाववादियों के हौसलों को मजबूत करता है। कहा जा सकता है कि बंगाल में पैदा होकर नक्सलवाद ने सुदूर केरल तक अपना पैर पसार लिया, तो दूसरे तत्व भी ऐसा कर सकते हैं। लेकिन यह सच अधूरा है। इस सच का दूसरा पहलू यह है कि बंगाल के अलावा जितने भी सीमावर्ती प्रदेश हैं, वहां राजनीतिक जागरूकता ऐसी नहीं है कि वे किसी भी विचारधारा या संगठन को अपने भीतर शामिल कर सकें। कहा जाता है कि लोकतंत्र की खूबसूरती लोक स्वातंत्र्य में होती है और यह स्वतंत्रता विचारों की होती है। दूसरे प्रदेशों का जनमानस विचारों से इतना समृद्ध नहीं है। इसलिए वहां अलगाववादी विचारधारा नहीं पनप सकती है।
अब लोग यह सवाल उठाने लगे हैं कि देश को दिशा दिखानेवाले बंगाल में ऐसा कब तक चलता रहेगा। चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, लेकिन बंगाल की पवित्र धरती को इन अलगाववादियों से मुक्त कराना ही होगा, क्योंकि बंगाल में पूरा भारत बसता है। ममता बनर्जी इस तथ्य को जितना जल्दी समझ लेंगी, उनके लिए यह उतना ही श्रेयस्कर होगा। वरना लोकसभा में उनकी जमीन हिली है, विधानसभा चुनाव आते-आते उनके पैरों तले की पूरी जमीन ही खिसक जायेगी।

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