देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के सितारे गर्दिश में हैं। देश स्तर पर नेतृत्व के संकट से जूझ रही इस पार्टी की हालत लोकसभा चुनाव के बाद और भी खस्ता हो गयी है। कभी हिंदी प्रदेशों में परचम लहरानेवाली इस पार्टी का इन प्रदेशों में नामलेवा भी अब गिने-चुने ही बच गये हैं। ऐसे में पुराने और समर्पित कांग्रेसियों का पार्टी से मोहभंग होना स्वाभाविक है। झारखंड कांग्रेस के संदर्भ में यह बात और भी सटीक बैठती है। प्रदेश के पुराने कांग्रेसी बेहद निराश हो चुके हैं, क्योंकि वे पार्टी की लुंज-पुंज स्थिति से अपना तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं। ऐसे में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में भगदड़ हो, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा जोरों पर है कि कांग्रेस के कम से कम चार विधायक पार्टी को बाय-बाय बोल सकते हैं, क्योंकि उन्हें अब कांग्रेस में कोई भविष्य नहीं दिख रहा है। इन विधायकों में सबसे बड़ा चेहरा सुखदेव भगत का है, जो प्रशासनिक सेवा छोड़ कर कांग्रेस में आये थे और विधायक तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष तक बने। कांग्रेस के भीतर होनेवाली इस संभावित हलचल पर दयानंद राय की खास रिपोर्ट।
झारखंड में बड़ी टूट की ओर बढ़ रही कांग्रेसकांग्रेस के सुखदेव भगत भाजपा का दामन थाम सकते हैं। कमल फूलवाली पार्टी उन्हें अपने पाले में करने के लिए पूरा जोर लगाये हुए है। भाजपा के सीनियर नेता भी उनसे संपर्क में हैं। हालांकि सुखदेव भगत ने अभी स्पष्ट घोषणा नहीं की है, पर उनके पास फिलहाल राजनीतिक क्षेत्र में परफार्म करने के लिए विकल्प भी नहीं बचा है। बीते लोकसभा चुनाव में वे लोहरदगा सीट से केवल 10,363 वोटों से हारे। चुनाव में डॉ रामेश्वर उरांव का पूरा साथ उन्हें मिला होता, तो चुनाव परिणाम कुछ और होता। इसका मलाल उनके दिल से अब तक गया नहीं है। अब कांग्रेस आलाकमान ने डॉ रामेश्वर उरांव को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया है और एक दल में रहने के बाद भी डॉ उरांव के साथ दिल मिलाना सुखदेव भगत के लिए असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर हो गया है। सुखदेव भगत के लिए दूसरी मुश्किल ये है कि उनकी राजनीति की जमीन लोहरदगा है और यही सीट डॉ रामेश्वर उरांव की राजनीति का गढ़ है। ऐसे में एक म्यान ‘लोहरदगा’ में दो पैनी तलवारों का साथ रहना मुश्किल हो गया है। भाजपा को भी सुखदेव भगत की इस कशमकश का अंदाजा है और झारखंड में 65 प्लस का लक्ष्य हासिल करने के लिए पार्टी सुखदेव भगत को अपने पाले में करना चाहती है। भाजपा में जाने की बाबत सुखदेव भगत ने कहा कि राजनीति में संभावनाएं बनी रहती हैं। हालांकि अभी उन्होंने कुछ निश्चय नहीं किया है। लेकिन उनके बोलने का टोन ऐसा था, जिससे कोई भी कयास लगा सकता है कि बात लगभग फाइनल हो चुकी है। सुखदेव भगत साफ बोलने से भले ही बच रहे हों पर ये तो तय है कि चर्चाओं का जो धुआं राजनीति के गलियारों में उठ रहा है, उसकी आग कहीं न कहीं सुुलग जरूर रही है।
लोहरदगा सीट से सांसद बनना रहा है सपना
लोहरदगा से सीटिंग विधायक सुखदेव भगत का सपना रहा है कि वह लोकसभा में इसका प्रतिनिधित्व करें। वहीं डॉ रामेश्वर उरांव 2004 में इसी सीट से सांसद रह चुके हैं। 2009 और 2014 के चुनावों में डॉ उरांव बहुत कम मतों के अंतर से हारे। 2019 में कांग्रेस ने उनको टिकट न देकर सुखदेव भगत को टिकट दिया और वे हार गये। यदि सुखदेव भगत कांग्रेस में बने रहते हैं तो इसकी बहुत कम संभावना है कि आगामी लोकसभा में पार्टी उन्हें इस सीट से चुनाव लड़ाये। चूंकि इस सीट से डॉ रामेश्वर उरांव सांसद रह चुके हैं इसलिए इस सीट पर वह अपना दावा छोड़ना भी नहीं चाहेंगे। डॉ रामेश्वर उरांव सोनिया गांधी और अहमद पटेल के करीबी माने जाते हैं। झारखंड प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी में उनका दबदबा बना रहेगा। ऐसे में डॉ रामेश्वर उरांव का नेतृत्व स्वीकारना सुखदेव के सामने असहज स्थिति उत्पन्न कर रहा है। सुखदेव भगत के साथ दुविधा यह है कि वे दिल से कांग्रेसी हैं और किसी दूसरी पार्टी में नहीं जाना चाहते। पर परिस्थितियों का चक्रव्यूह उनके सामने विषम परिस्थितियां उत्पन्न कर रहा है और वह धीरे-धीरे कमल की तरफ आकर्षित हो चले हैं।
इसलिए सुखदेव को साथ लाना चाहती है भाजपा
लोहरदगा सीट के लिए लोकसभा चुनावों में भाजपा के पास वर्तमान सांसद सुदर्शन भगत के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। सुदर्शन भगत सरल और मृदुभाषी तो हैं लेकिन प्रखर वक्ता नहीं हैं। झारखंड के जमीनी मुद्दों की गंभीर समझ होने के बाद भी डायलॉग डिलीवरी में सुदर्शन भगत कमजोर पड़ जाते हैं। सांसद के रूप में लोकसभा में उनका प्रदर्शन पार्टी के रिपोर्ट कार्ड के अनुसार बहुत संतोषजनक नहीं रहा है। सुखदेव भगत के साथ प्लस प्वाइंट ये है कि वे प्रखर वक्ता हैं और झारखंड के जमीनी मुद्दों पर वे धार के साथ बोलते हैं। 9000 नंबर की गाड़ियों के शौकीन सुखदेव भगत राज्य का बड़ा आदिवासी चेहरा हैं। संसद में लोहरदगा सीट से जीतने पर वे क्षेत्र की समस्याओं को मुखरता से उठा सकते हैं। भाजपा जिन 28 एसटी सीटों में से 22 पर जीत हासिल करने का ख्वाब सजाये हुए है, उनमें जीत हासिल करने के लिए सुखदेव भगत पार्टी के लिए काम के साबित हो सकते हैं। काम करने का विजन और नेतृत्व क्षमता की विरासत साथ लिये सुखदेव भगत भाजपा के लिए एसेट हो सकते हैं। ऐसे में भाजपा उन्हें पार्टी में लाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही है। वैसे सुखदेव भगत के भाजपा के लगभग तमाम नेताओं से मधुर संबंध हैं और वे इसका इजहार भी करते हैं।
और तीन विधायक भी हैं रडार पर
सुखदेव भगत के अलावा भाजपा जिन तीन कांग्रेसी विधायकों को अपने साथ देखना चाहती है, उनमें बरही विधायक मनोज यादव, जरमुंडी विधायक बादल पत्रलेख और पांकी विधायक बिट्टू सिंह के नाम शामिल हैं। बीते विधानसभा चुनावों में भाजपा के उमाशंकर अकेला को 7065 वोटों के अंतर से हराकर जीते मनोज यादव हजारीबाग की बरही सीट पर हेवीवेट राजनेता के रूप में जाने जाते हैं। यहां वे जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हैं। इस सीट पर भाजपा एक कद्दावर नेतृत्व चाहती है। ऐसे में मनोज यादव उनके काम के साबित हो सकते हैं। पर दिक्कत ये है कि सुखदेव भगत की तरह ही मनोज यादव भी दिल से कांग्रेसी हैं। लेकिन परिस्थितियां उनसे वो करा सकती हैं जो अन्नपूर्णा देवी से करा चुकी हैं। बातचीत में मनोज यादव कहते हैं, मीडिया में खबरें तो उछल रही हैं, चर्चाएं भी हो रही हैं, लेकिन अभी हम जहां हैं, वहीं हैं। इसी तरह कांग्रेस के बादल पत्रलेख को भाजपा अपने पाले में करना चाहती है।
बादल पत्रलेख जरमुंडी से कांग्रेस के विधायक हैं पर उनकी जीत में पार्टी का कोई विशेष योगदान नहीं माना जाता। बादल पत्रलेख अपनी सरलता के कारण मीडिया के बीच सुर्खियों में रहे हैं। खासकर पूर्व मंत्री हरिनारायण राय को हराकर जब वे पहली बार विधानसभा में आये थे तो टेंपो की सवारी कर विधानसभा पहुंचे थे। जरमुंडी सीट पर उनकी अच्छी पकड़ है और जनता के सवालों पर राजनीति करना बादल अपना धर्म मानते हैं।
बादल की राजनैतिक पैठ भले ही उतनी पैनी न हो, पर उनकी छवि साफ-सुथरी और जनता के बीच जनता के सवालों के साथ रहनेवाले नेता की है। वहीं पांकी के विधायक बिट्टू सिंह की बात करें तो पांकी में उनकी गिनती जनता के बीच पकड़वाले विधायक के रूप में होती है। जनता उन्हें विदेश सिंह के बेटे के रूप में जानती है। 2016 के विधानसभा उपचुनाव में पहली बार पांकी से जीतकर वे विधायक बने हैं। पर पलामू में जिस तरह के जातीय समीकरण हैं, उसमें वे पांकी सीट पर भाजपा के लिए काम के उम्मीदवार साबित हो सकते हैं। ऐसे में भाजपा की नजर उन पर भी है। हालांकि बिट्टू सिंह इस संदर्भ में कुछ नहीं कहते। पूछने पर कहते हैं, ऐसा तो कुछ पता नहीं है।
रांची आयेंगे, तो पता करेंगे कि बात कहां से उठी है। यहां बता दें कि तीनों नेताओं से उनके भाजपा में शामिल होने के कयासों पर बात की गयी, तो उन्होंने साफ कुछ कहने से इंकार कर दिया। मनोज यादव ने कहा कि अखबार वाले आकलन करते रहते हैं। राजनीति में हैं तो लोगों से मिलना-जुलना लगा रहता है। वहीं बिट्टू सिंह ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है। सुखदेव भगत कहते हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल है।