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    Home»विशेष»संसद-सियासत का अखाड़ा या जनहित की आवाज?
    विशेष

    संसद-सियासत का अखाड़ा या जनहित की आवाज?

    azad sipahiBy azad sipahiAugust 13, 2021No Comments7 Mins Read
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    चिंतनीय : हंगामा संसदीय कार्यप्रणाली पर लगा रहा सवालिया निशान

    संसद सर्वोच्च संप्रभु संस्था है। विधि निर्मात्री है। संविधान संशोधन के अधिकार से लैस है। मानसून सत्र में संसद में जो कुछ हुआ, उसे कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। एक वक्त था, जब संसद में देश के सवाल उठते थे। सरकार जिम्मेदारी से जवाब देती थी। विपक्ष सरकार की बातों को गौर से सुनता था। लेकिन आज संसद से संवाद गायब हो गया। संसद में बहस की जगह हंगामे ने ले ली है। काम की जगह आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति चल रही है। जनता की आवाज गुम हो गयी है। हालत यह हो रही कि संसद सियासत का अखाड़ा बन गयी है। लोकसभा की र्कायवाही को दो दिन पहले स्थगित कर देना पड़ा। राज्यसभा का भी कुछ ऐसा ही हाल है। यह सब चिंताजनक स्थिति है। संसद अपने कार्यसंचालन का स्वामी है। संविधान निर्माताओं ने विधायिका को असीम अधिकार दिये। मौजूदा हालात के लिए सत्ता पक्ष से ज्यादा विपक्ष  जिम्मेदार है। वह चाहता, तो सरकार को सवालों से घेर सकता था, लेकिन उसने तो खुद ही कार्यवाही से अपने को अलग कर लिया। सत्ता पक्ष को भी कभी विपक्ष में बैठना पड़ता है और विपक्ष को भी कभी न कभी सत्ता मिलती है। पर स्थिति नहीं बदलती। संसद के कदम नैतिक शक्ति खोने की ओर बढ़ रहे। इस विषय पर सोचने की जरूरत है। सवाल है कि राजनीतिक दलों को संसदीय मर्यादा की फिक्र क्यों नहीं है? आखिर संसद की मर्यादा को तार-तार करनेवाले कौन हैं? संसद को ना चलने देने का जिम्मेदार कौन है? संसद के मौजूदा सत्र के हंगामे पर आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक प्रशांत झा  की रिपोर्ट।

    जब से राष्ट्र का निर्माण हुआ, संभवत: तब से यह देखने-सुनने और राजनेताओं को समझाने का प्रयास चल रहा है कि संसद लोकतंत्र का मंदिर है। आमतौर पर सदन के अंदर सांसद अपनी बातों को रखते हुए इस बात का जिक्र करने से नहीं चूकते हैं। संभव है कि पूर्व में यह एक मंदिर रहा हो और लोकतंत्र के इस मंदिर की एक आदर्श स्थिति रही हो। लेकिन बीते कुछ वर्षों में जो बदलाव आये हैं, उसमें संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहना वस्तुत: लोकतंत्र और मंदिर, दोनों का अपमान है। लोकतंत्र में किसी को मनमानी करने का अधिकार नहीं होता। एक बात समझने की जरूरत है कि जो आज सत्ता में हैं, वह कभी विपक्ष में थे और फिर विपक्ष में जा सकते हैं। जो अभी विपक्ष में हैं, वह कभी सत्ता में थे और फिर एक बार उन्हें सत्ता मिल सकती है। इसलिए संसद सर्वोपरि है। कम से कम यहां दलगत राजनीति से हट कर काम होना चाहिए। संसद में मानसून सत्र के दौरान जो हुआ, वह तो यही दर्शाता है कि विपक्ष की हठधर्मिता ने सत्र को हंगामे की भेंट चढ़ा दिया। जनता के करोड़ों रुपये बर्बाद गये। मानसून सत्र का फलाफल कुछ नहीं निकला।

    लोकसभा 21 घंटे तो राज्यसभा 28 घंटे चली

    मॉनसून सत्र में लोकसभा और राज्यसभा का कामकाज 19 दिनों का था। लोकसभा में 114 घंटे और राज्यसभा में 112 घंटे काम होने थे। दोनों सदनों की कार्यवाही दो दिन पहले 17वें दिन चलकर ही खत्म हो गयी। अगर इन 17 दिन की ही गणना करें तो लोकसभा 96 घंटे के बदले 21 घंटे चली। वहीं राज्यसभा 97 घंटे के बदले 28 घंटे चली। यह आंकड़ा बताता है कि मानसून सत्र में संसद की उत्पादकता बीते दो दशकों में चौथी सबसे कम रही है। संसद के निचले सदन लोकसभा की उत्पादकता सिर्फ 21 प्रतिशत रही जबकि उच्च सदन राज्यसभा की उत्पादकता 29 प्रतिशत रही। पेगासस जासूसी कांड की जांच और नये कृषि कानूनों की वापसी जैसी मांगों को लेकर विपक्ष के हंगामे से सदन की कार्यवाही बाधित होती रही।

    2.16 अरब रुपये पानी में गये

    मॉनसून सत्र में हो-हंगामे के कारण बाधित हुई लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाहियों से जनता के 2.16 अरब रुपये पानी में चले गये। दोनों सदनों को मिला कर 193 घंटा काम होना था। यानी 193 घंटा को मिनट में बदलें तो 11 हजार 580 मिनट आता है। दोनों सदनों को मिलाकर कार्यवाही 49 घंटे चली। यानी दो हजार 940 मिनट। अनुमानों के मुताबिक, संसद सत्र चलने पर हर मिनट 2.5 लाख रुपये खर्च होते हैं। यानी सत्र के संचालन पर 2.90 अरब रुपये खर्च हुए। जबकि जितनी कार्यवाही चली उसके अनुसार करीब 73.85 करोड़ निकलता है। अगर कुल खर्च राशि 2.90 अरब में से कार्यवाही के 73.85 करोड़ घटा दिया जाये तो 1.16 अरब रुपये बर्बाद गये। यह राशि जनता की गहरी कमाई के हैं।

    इस बर्बादी के लिए जिम्मेदार कौन

    जनता की गाढ़ी कामाई की बर्बादी के लिए जिम्मेदार कौन है? लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष की तनातनी स्वाभाविक है। इसके बावजूद सांसदों पर संसदीय दायित्व तो है कि संसद की कार्यवाही चलती रहे। महत्वपूर्ण मुद्दों और विषयों पर सार्थक बहस के बाद सरकार का जवाब देश के सामने स्पष्ट हो। संसद में बहस के बाद विधेयक पारित हों या संशोधन हों। यह संसद और सांसदों की बुनियादी भूमिका है। संसद हंगामे और आपत्तिजनक नारेबाजी का अड्डा नहीं है। संसद देश की सर्वोच्च पंचायत है और भारत की संप्रभुता की प्रतीक है। मौजूद मानसून सत्र में हंगामा कोई पहला मामला नहीं है। कथित संचार घोटाले के दौर में संसद की कार्यवाही लगातार 13 दिन तक स्थगित रही थी। तब संचार मंत्री सुखराम थे। पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे। उस राजनीति को भी नजीर नहीं माना जा सकता। देश के आर्थिक संसाधनों और बेशकीमती समय की बर्बादी तब भी हुई थी। तब विपक्ष में भाजपा थी, लेकिन बदले की भावना के मद्देनजर आज कांग्रेस और विपक्ष वही राजनीति संसद में करें, यह कहां तक उचित है। संसद ऐसी तमाम मानसिकताओं से ऊपर है। संसद सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का है। दोनों को मिल कर सदन चले इसके लिए प्रयास किया जाना चाहिए।

    दोनों सदनों के प्रमुख हैरान-परेशान

    दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा के प्रमुख सांसदों के व्यवहार से हैरान-परेशान हैं। सदन की मर्यादा तार-तार हुई। लोकसभा में स्पीकर ओम बिरला हंगामा करने वाले सांसदों पर बरसे हैं और फटकार भी लगायी है। स्पीकर ने साफ कहा है कि सदन में हंगामा करने और कार्यवाही को बाधित करने के लिए जनता ने सांसदों को नहीं चुना है। वे लोगों की समस्याओं को उठाएं और मुद्दों पर बहस करें। राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू सांसदों के आचरण से व्यथित हुए। उन्होंने सदस्यों को काफी समझाने का प्रयास किया। राज्यसभा में पेपर फाड़कर हवा में फेंके गये। नायडू ने क्षोभ व्यक्त करते हुए रुंधे गले से कहा कि वह रातभर सो नहीं सके, क्योंकि लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर की पवित्रता भंग की गयी।

    दलों पर गरिमा बचाने की जिम्मेदारी

    संसद की गरिमा बचाने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर है। चुनाव के समय जीताऊ उम्मीदवार के चक्कर में लोकतंत्र के मंदिर तक कौन पहुंच रहा, इसका ध्यान नहीं रखा जाता है। उम्मीदवार स्वच्छ छवि का है या ‘दागी’, पढ़ा लिखा है या ‘अंगूठा छाप’, वह जनहित का काम करने वाला है या ‘अपने हित’ का। वह अव्यावहारिक है या व्यवहार कुशल। उम्मीदवार चयन में इन तमाम बातों का कोई मतलब नहीं है। मतलब बस एक ही है कि उम्मीदवार जीताऊ है या नहीं। अगर जीताऊ है, तो वह कैसा भी हो चलेगा। जब उम्मीदवार चयन में गड़बड़ी होगी, तो संसद में वैसे ही लोग पहुंचेंगे, जिससे इसकी गरीमा को ठेस पहुंचेगी। जिस तरह से ‘दागी’ सांसदों की रफ्तार बढ़ रही है, वैसे में इस मंदिर के पवित्र होने की कितनी उम्मीद कर सकते हैं। उनके लिए तो बस सांसद का मतलब है संसद भवन के रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर रोजाना का भत्ता तय करना। मोटी तनख्वाह और सुविधाएं लेना। सत्ता का रौब गांठना।

    कार्यप्रणाली में सुधार की है जरूरत

    सदन में अगर सदस्यों के आचरण पर सवाल खड़े होंगे। सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी-अपनी जिम्मेदारी नहीं निभायेगा। सदन के अंदर शोर-शराबा, मारपीट, तोड़फोड़, अभद्रता होगी। सदन में मनमानी चलेगी और विपक्ष के हर मुद्दे पर केवल विरोध और बायकॉट होगा, तो सदन की गरिमा पर सवालिया निशान लगेंगे ही। राजनीति में नैतिकता के महत्व को समझना होगा। जिस तरह से संसद तक पहुंचने का मार्ग अपनाया जाता है, उसे हतोत्साहित करना होगा। राजनीतिक पार्टियों को अपने उम्मीदवार के चयन पर ध्यान देना होगा। जनता को सही प्रत्याशी का चयन करना होगा। तभी लोकतंत्र का मंदिर दागदार होने से बच सकेग, वरना इसी तरह जनता के अरबों रुपये पानी में बहते रहेंगे।

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