- 10 महीने बाद दिल्ली जाकर पीएम मोदी से मिलने, उप राष्ट्रपति के चुनाव में धनखड़ के खिलाफ वोट नहीं करने और पश्चिम बंगाल के लिए पैकेज मांगने के पीछे कुछ तो है!
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का अचानक हृदय परिवर्तन हो गया है। एक समय था, जब ममता बनर्जी चुनाव के समय प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को सबसे बड़ा गुंडा कहती थीं। जब भी प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल के दौरे पर आते थे, ममता बनर्जी उनकी आगवानी करने नहीं जाती थीं। यहां तक कि अपने मुख्य सचिव तक को उन्होंने बैठक में भाग लेने से मना कर दिया था। जब अमित शाह हेलीकॉप्टर से आनेवाले थे, तो उनके हेलीकॉप्टर को उतरने की इजाजत तक नहीं दी गयी। यही नहीं, ममता बनर्जी ने आयुष्मान और किसान सम्मान निधि तक तो अपने यहां लागू करने से रोक दिया था। हालांकि बाद में उन्होंने इन योजनाओं को पश्चिम बंगाल में लागू करवाया। वही ममता बनर्जी अब खुद चल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल रही हैं। उनके साथ बैठक कर रही हैं। दो दिन पहले जब ममता बनर्जी दिल्ली आकर पीएम मोदी से मिलीं, तो उनका रवैया पूरी तरह बदला हुआ था। करीब 45 मिनट तक पीएम मोदी से मुलाकात करने के बाद जब ममता मीडिया से मुखातिब हुईं, तो उनके रुख में बदलाव साफ दिख रहा था। हालांकि इससे पहले राष्ट्रपति चुनाव और फिर उप राष्ट्रपति के चुनाव में उन्होंने जो रुख अपनाया था, वह भी चौंकानेवाला था। लेकिन पीएम मोदी से मुलाकात के बाद सियासी गलियारे में सवाल उठ रहे हैं कि आखिर बंगाल की शेरनी के तेवर अचानक ढीले क्यों पड़ गये। क्या यह बंगाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ इडी की शुरू की गयी कार्रवाई और सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के भ्रष्टाचार के उजागर होने का डर है या फिर भाजपा के महाराष्ट्र मॉडल का साइड इफेक्ट। एक संभावना यह भी जतायी जा रही है कि ममता बनर्जी के अड़ियल रवैये के कारण तृणमूल कांग्रेस के चार दर्जन से अधिक विधायकों में नाराजगी है और उन्होंने भाजपा नेता मिठुन चक्रवर्ती से मुलाकात भी की थी। खुद मिठुन चक्रवर्ती ने प्रेस कांफ्रेंस में यह सूचना देकर सबको चौंका दिया था कि ममता के विधायक उनके संपर्क में हैं। मिठुन चक्रवर्ती गंभीर व्यक्ति हैं। उनकी बातों में निश्चित रूप से सच्चाई होगी, तभी उन्होंने यह कहा। वैसे एक संभावना यह भी जतायी जा रही है कि ममता बनर्जी को आखिरकार केंद्र-राज्य संबंधों की गंभीरता का एहसास हो गया है और कभी संघवाद के सिद्धांतों को पैरों तले रौंदनेवाली ममता बनर्जी का रवैया बदल गया हो। लेकिन इन तमाम संभावनाओं के अलावा एक संभावना यह भी बनती है कि ममता खुद को विपक्षी दलों की भीड़ से अलग रखना चाहती हैं, ताकि 2024 में उन्हें विपक्ष का चेहरा बनने में आसानी हो सके। ये तमाम संभावनाएं महज आकलन हैं और सियासी गलियारों में इस तरह के आकलन सामान्य हैं, लेकिन इस बात पर आश्चर्य तो होता ही है कि कभी पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को गुंडा गिरोह का सरगना कहनेवाली ममता बनर्जी अचानक इतनी नरम क्यों पड़ गयी हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के बदले नजरिये का राजनीतिक विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
एक पुरानी कहावत है कि बाल काटने से लाश का वजन कम नहीं होता। यह कहावत इन दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मामले में फिट बैठती है। वह जिस तरह से इडी की गिरफ्त में आये पार्थ चटर्जी से दूरी बनाने की कोशिश कर रही हैं, जिस तरह से मंत्रिमंडल में फेरबदल किया है और फिर दिल्ली आकर पीएम मोदी से मिली हैं, उससे सियासी गलियारे में चर्चा स्वाभाविक है। पहले राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू के प्रति नरम रुख अपना कर ममता ने संकेत दिया था कि वह पुरानी ममता नहीं हैं। जब भाजपा ने राष्टÑपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा की, तो ममता ने यह कह कर सबको चौंका दिया कि अगर भाजपा यह पहले बता देती, तो हमारा स्टैंड कुछ और होता। इसके बाद उप राष्टÑपति चुनाव की घोषणा होने से पहले उन्होंने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा के साथ जगदीप धनखड़ के साथ बैठक में शामिल होकर एकबारगी सबको आश्चर्यचकित कर दिया। हालांकि उस समय ममता बनर्जी ने कहा कि असम के मुख्यमंत्री से उनके रिश्ते शुरू से अच्छे रहे हैं, इसलिए उनके साथ बैठक में शामिल हुर्इं, इसका कोई राजनीतिक मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए। लेकिन जगदीप धनकड़ के राजग की तरफ से उप राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने के बाद चुनाव का बहिष्कार करने के उनके फैसले ने उस बैठक की सार्थकता को रेखांकित कर दिया। साथ ही उनके रुख में बदलाव को भी साफ कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपने चार दिवसीय दिल्ली दौरे की घोषणा कर एक संदेश देने की कोशिश की। बात यही नहीं रुकी, वह खुद प्रधानमंत्री से मिलने गयीं। इस मुलाकात में उन्होंने पश्चिम बंगाल के लिए कई सारी केंद्रीय सोजनाओं की मांग की। उन्होंने यह भी कहा कि पश्चिम बंगाल का केंद्र पर जो एक लाख करोड़ रुपये के आसपास बकाया है, उसका भुगतान अगर हो जाये, तो राज्य की दशा बदल जायेगी। यह सब ममता की नरमी का ही परिचायक है। जाहिर है, ममता का अचानक हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है। निश्चित रूप से ममता बनर्जी कुछ दूरगामी सोच रही हैं।
लेकिन सवाल तो यह है कि ममता बनर्जी की इस तलाश के पीछे कारण क्या है। पिछले साल जुलाई में ही ममता बनर्जी ने कोलकाता की शहीद रैली से दिल्ली कूच का औपचारिक एलान किया था और एक साल के भीतर ही लग रहा है कि जैसे उन्होंने सब कुछ समेट लिया हो। राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के पक्ष में दूसरे राज्यो के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर वोट नहीं मांगने और एक तरह से उप राष्ट्रपति चुनाव से दूर रहने की ममता बनर्जी की घोषणा एकबारगी तो हैरान ही कर चुकी है, फिर यदि ममता बनर्जी किसी नयी रणनीति पर काम कर रही हों, तो बात और है। और यही सवाल सियासी हलके में आजकल घूम रहा है।
ममता के रुख में बदलाव के तीन फौरी कारण नजर आते हैं। पहला, बंगाल में इडी की कार्रवाई और पार्थ चटर्जी के साथ-साथ तृणमूल कांग्रेस के आधा दर्जन नेताओं के भ्रष्टाचार का सामने आना, अभिषेक बनर्जी के खिलाफ इडी का एक्शन, दूसरा भाजपा के महाराष्ट्र मॉडल का असर और भाजपा नेता मिठुन चक्रवर्ती के दावे का डर और तीसरा, बंगाल के लिए अधिक से अधिक केंद्रीय मदद हासिल करने का प्रयास। लेकिन इन तीन कारणों के अलावा एक चौथी संभावना भी यह बन रही है कि कहीं ममता बनर्जी खुद को 2024 के लिए तैयार तो नहीं कर रही हैं, जिसमें वह भाजपा विरोध का अकेला चेहरा बन जायें। लेकिन यह संभावना इसलिए कमजोर है, क्योंकि इसके लिए उन्हें पीएम मोदी या भाजपा के प्रति नरम रुख अपनाने की कोई जरूरत नहीं थी।
तो फिर शायद ममता को पता चल गया है कि आज की राजनीति में भाजपा से लड़ते रहने से कहीं ज्यादा जरूरी जैसे भी मुमकिन हो, अस्तित्व बचाये रखना हो गया है, वरना, जिस तरीके का खेला होने लगा है, किसी के भी घर में एकनाथ शिंदे पैदा हो सकते हैं और ऐसा होने पर तो कोई भी उद्धव ठाकरे बन सकता ही है। मोदी विरोध का हश्र कांग्रेस झेल रही है। एक-एक कर कांग्रेस के हाथ से राज्य की सत्ता छूटती जा रही है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार और एक-एक नेताओं का कांग्रेस से मोहभंग भी ममता के अंदर डर पैदा कर रहा है। ममता बनर्जी के बदले रुख से अभी ऐसा तो नहीं लगता कि वह ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और आंध्रप्रदेश के सीएम जगन मोहन के रास्ते चल पड़ी हैं या फिर नीतीश कुमार की तरह हालात से समझौता कर सेक्यूलर छवि की भी फिक्र न करते हुए कुर्सी बचाने के लिए भाजपा से समझौता कर लेने की बात सोच रही हों। तो सवाल फिर घूम-फिर कर वहीं आता है कि आखिर ‘एकला’ चल कर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कौन सा ‘खेला’ करने का प्लान बना रही हैं? अब तो यह भी साफ हो चुका है कि ममता बनर्जी कांग्रेस ही नहीं, शरद पवार से भी दूरी बनाने लगी हैं। अरविंद केजरीवाल राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के साथ जरूर खड़े रहे, लेकिन ममता बनर्जी और उनके बीच भी अब संबंध पहले जैसा नहीं लगता।
लेकिन अभी तो ममता बनर्जी देश की राजनीति में एक ही छोर पर खड़ी हैं। अपने नजदीकी पार्थ चटर्जी का भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद जाहिर है ममता बनर्जी के मन भी तो आशंकाएं घर कर ही रही होंगी। और इसलिए अपने हिसाब से वह समझौते के संकेत देने लगी हैं। ममता को मालूम है कि महाराष्ट्र जैसी स्थिति से बचने का कोई उपाय भी नहीं बचा है। मालूम नहीं कि उनके पास कितना आत्मविश्वास बचा हुआ है? जैसे महाराष्ट्र में हुए तख्तापलट में भ्रष्टाचार का मुद्दा अहम रहा, बंगाल में भी ऐसा हो जाये, तो बहुत बड़ी बात नहीं होगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि बंगाल में भ्रष्टाचार सिर चढ़ कर बोल रहा है और उसने केंद्रीय एजेंसियों को ममता बनर्जी के खास तृणमूल कांग्रेस के नेताओं की गरदन तक पहुंचा दिया है। ये जांच एजेंसियां ममता बनर्जी के खिलाफ तो कुछ नहीं कर पायी हैं, लेकिन कभी उनके अफसरों के खिलाफ, तो कभी उनके भतीजे अभिषेक के करीबियों और कभी उनकी पत्नी को मुश्किलों से दो-चार होना ही पड़ता है। नारदा से शारदा घोटाले तक सारे ही ममता बनर्जी के लिए जी का जंजाल बने रहे। ममता बनर्जी के कई सहयोगियों को जेल तक जाना पड़ा। जांच और पूछताछ की तलवार अक्सर ही लटकी रहती है। ऐसे में अगर भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस में भी कोई एकनाथ शिंदे ढूंढ़ निकाला, तो लड़ने को बचेगा ही क्या, ममता को यह बात समझ आ गयी है।
इसी वजह से ममता बनर्जी के तेवर बदले हुए नजर आ रहे हैं, उनकी भाषा बदल गयी है, उनके भाषणों-बयानों से आक्रामकता गायब हो चुकी है। वास्तव में ममता बनर्जी को एक सहारा चाहिए, ताकि उन्हें भी तैरने का मौका मिल जाये, लेकिन उनको बचाने वाला अब कोई नहीं है। जो और जिनसे वह उम्मीद कर सकती थीं, वे सब खुद को ही बचाने में लगे हुए हैं। इसलिए आगे देश की राजनीति बड़ी इंटरेस्टिंग होनेवाली है। इसमें बड़े बदलाव होनेवाले हैं। अगस्त का महीना देश में शायद कुछ और बदलाव लेकर आ सकता है। इसका इंतजार ही करना फिलहाल श्रेयस्कर होगा।
वैसे ममता बनर्जी को राजनीति विज्ञानी भी कहा जाता है। कहते हैं, ममता राजनीतिक हवाओं का रुख पहले ही भांप जाती हैं। अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत उन्होंने कांग्रेस से की थी। जेपी आंदोलन के समय अचानक ममता बनर्जी उस समय चर्चा में आयीं, जब महात्मा गांधी रोड में उन्होंने जेपी की गाड़ी के ऊपर चढ़ कर अपना विरोध जताया था। सीपीएम की सत्ता के समय ममता पूरी तरह आक्रामक थीं और उन्होंने ऐसा तेवर अपनाया कि बंगाल में जन-जन में उनकी चर्चा होने लगी। दरअसल ममता यह समझ गयी थीं कि सीपीएम की सत्ता से लोग ऊब चुके हैं और उन्हें विकल्प चाहिए। उन्होंने तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और निडर होकर उन्होंने अभियान चलाया। टाटा के खिलाफ आंदोलन ने उन्हें मजदूर नेता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया और मजदूरों और किसानों को लगा कि ममता ही उनकी रहनुमाई कर सकती हैं। लिहाजा पश्चिम बंगाल की जनता ने उन्हें सत्ता सौंप दी। अभी ममता बनर्जी अजेय की तरह हैं। लेकिन कहते हैं चरम के बाद पतन भी होता है।
ममता बनर्जी राजनीति के जिस शिखर पर पहुंच चुकी हैं, जाहिर है, उससे ऊपर नहीं जा सकती। अब धीरे-धीरे उसमें टूटन आयेगी ही। पिछले लोकसभा चुनाव और बाद में विधानसभा चुनाव में यह देखने को भी मिला। निश्चित रूप से भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अपने पैर मजबूत किये हैं और पहली बार ममता के खिलाफ वहां के नेता बोल रहे हैं। तमाम अत्याचार और विरोध झेलते हुए भी नेता डटे हुए हैं। बल्कि सच्चाई तो यह है कि अंदर ही अंदर नेताओं का एक बड़ा वर्ग ममता के खिलाफ जमीन तैयार कर रहा है। जिस दिन पश्चिम बंगाल में भाजपा को सौरव गांगुली या उनके जैसा कोई चेहरा मिल जायेगा, ममता की सत्ता का अवसान तय है। शायद ममता बनर्जी भी इसको भलीभांति जान चुकी हैं। यही कारण है कि अब वह नरम रवैया अख्तियार कर रही हैं। उन्हें अब लग चुका है कि मोदी-शाह विरोध से उन्हें जितना मिलना था, वह मिल चुका है। अब उन्हें नुकसान ही होगा। शायद ममता के अंदर अचानक आये हृदय परिवर्तन का यह एक बड़ा कारण है। खैर राजनीति संभावनाओं का खेल है। इसमें हमेशा अगर-मगर लगा रहता है। यह तो समय ही बतायेगा कि ममता के अंदर आखिर क्या चल रहा है, लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस की दुर्गति देख कर ममता के अंदर भी कुछ-कुछ एहसास होने लगा है। इसी एहसास ने उन्हें रुख बदलने पर मजबूर किया है। ममता यह अच्छी तरह ताड़ गयी हैं कि जब इडी सोनिया गांधी और राहुल गांधी से पूछताछ कर सकती है, कार्यालय में ताला लगा सकती है, तो अभिषेक बनर्जी तक उसे पहुंचने में समय नहीं लगेगा। शायद ममता के इस रुख से अभिषेक बनर्जी को कुछ दिनों तक राहत मिल जाये, इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। वैसे एक बात तय है, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी कोई समझौता नहीं कर सकते। आगे-आगे आप देखते जाइये, बंगाल में होता है क्या!