विशेष
उपद्रवियों और मवालियों के आगे नत मस्तक हो चुका है शासन
ममता की राजनीतिक मजबूरी का बेजा फायदा उठा रहे हैं गुंडे

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
पश्चिम बंगाल की स्थिति अराजक ही नहीं, चिंताजनक हो गयी है। कोलकाता के सरकारी मेडिकल कॉलेज में एक डॉक्टर की दुष्कर्म के बाद हत्या के कारण पूरा प्रदेश गुस्से में है, तो इसके पीछे कहीं न कहीं प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व भी जिम्मेवार है। राज्य में फैल रही अराजकता के बीच मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जिस तरह के फैसले कर रही हैं, बयान दे रही हैं, उससे संकेत मिलता है कि राज्य की स्थिति उनके नियंत्रण से बाहर निकल रही है। ममता बनर्जी संवैधानिक पद पर होकर खुलेआम हिंसा की धमकी दे रही हैं और साथ ही बंगाल के साथ यूपी, बिहार, ओड़िशा, पूर्वोत्तर और दिल्ली के जलने की बात कर रही हैं। एक मुख्यमंत्री की ऐसी नकारात्मक और विभाजनकारी सोच बंगाल के साथ पूरे देश के लिए खतरनाक है। कोलकाता मेडिकल कॉलेज की घटना ने एक महिला मुख्यमंत्री के राज्य में महिला सुरक्षा पर सवालिया निशान तो लगाया ही है, उसके बाद की घटनाओं ने उस मुख्यमंत्री की प्रशासनिक क्षमता पर भी सवाल खड़े कर दिये हैं। आज राज्य की वर्तमान स्थिति के लिए न केवल ममता बनर्जी की नीतियां जिम्मेवार हैं, बल्कि यह स्थिति बताती है कि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए वह किस हद तक जा सकती हैं। भद्रलोक का प्रदेश कहा जानेवाला बंगाल यदि आज अराजकता की तरफ बढ़ रहा है, तो यह पूरे देश के लिए चिंता का विषय है और अब इस पर नियंत्रण की जरूरत आ गयी है। क्यों है बंगाल की यह स्थिति और क्या है इसमें सुधार के उपाय, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

देश की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी पश्चिम बंगाल की धरती आज हिंसा, जुलूस, प्रदर्शन, पुलिस दमन और अराजकता का शिकार हो गयी है। यह बेहद चिंता की बात है। बंगाल बौद्धिकों का प्रदेश रहा है। बंगाल की यह एक बार फिर पुलिस की गोली, लाठीचार्ज, अश्रु गैस के गोले और बम के धमाकों से लहूलुहान हो रही है। बंगाल कविवर रविंद्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, नेताजी सुभाष बोस और कई अन्य ऐसी विभूतियों का घर रहा है, जिन्होंने न केवल देश, अपितु पूरे विश्व को ज्ञान और उदार चरित्र का संदेश दिया। उन लोगों के कर्म, उनका चरित्र और उनके आदर्शों को आनेवाले कई युगों तक याद रखा जायेगा। हालांकि उसी प्रदेश में आजकल अस्पताल के अंदर एक महिला डॉक्टर की रेप के बाद हत्या हो जाती है और फिर अपराधी को पकड़ने की बजाय शासनतंत्र उसे बचाने में लग जाता है। यह कितना बड़ा अन्याय है कि जिन लोगों पर नागरिकों को न्याय दिलाने का दायित्व है, वही उन अपराधियों के मददगार बन रहे हैं। सबूत नष्ट करने के ध्येय से शासन की उपस्थिति में अराजक भीड़ अस्पताल पर हमला कर देती है। तोड़फोड़ करती है। आश्चर्य तो तब होता है, जब डॉ की रेप के बाद हत्या के मामले में सवालों के घेरे में घिरे तत्कालीन प्रिंसिपल संदीप को बचाने के लिए वहां से दूसरी कॉलेज में ट्रांसफर कर दिया जाता है। जाहिर है यह ट्रांसफर ममता बनर्जी की सहमति के बिना नहीं हुआ होगा। अराजकता के इस माहौल से बेचैन-परेशान जनता, जिसका जमीर जिंदा है, सड़क पर आ जाती है, लेकिन सड़क पर उसे पुलिस की लाठियां खानी पड़ती हैं, तेज पानी की बौछारें झेलनी पड़ती हैं और फिर पुलिस केस भी झेलने पड़ते हैं।
कोलकाता में आरजी कर अस्पताल में रेप-हत्या के मामले में जिस प्रकार की घटनाएं सामने आ रही हैं, वे हैरान करनेवाली हैं। इस मामले में अभी तक डॉक्टर ही हड़ताल पर थे और प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन अब इसने राजनीतिक रंग ले लिया है और सोमवार 26 अगस्त को तो राजधानी कोलकाता में जो हुआ, उसने प्रदेश सरकार के असली रंग को सामने ला दिया।

ममता के नियंत्रण से बाहर हो रहे अराजक तत्व
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को निर्बलों की मददगार कहा जाता था। उन्होंने सड़क से लेकर संसद तक देश के कमजोर तबकों के लिए काम किया, लेकिन फिर मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके तेवर जिस प्रकार से बदले हैं, वह उन सभी लोगों को चिंतित करता है, जो नेताओं में अच्छाई को तलाशते हैं। इस मामले से पहले बंगाल में जितने भी हिंसा और प्रदर्शन के मामले सामने आये हैं, उनमें ममता सरकार की भूमिका बेहद संशयपूर्ण रही है। संदेशखाली, जिसमें एक अप्रवासी ने आकर महिलाओं का यौन शोषण किया और अवैध धंधों के बल पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया, पर कार्रवाई करते हुए ममता सरकार घबराती रही। न जाने क्यों जैसे ममता सरकार केंद्र सरकार से टकराने को तैयार रहती है, वैसे राज्य में अपराध की रोकथाम और रोजगार और काम-धंधे विकसित करने की जरूरत में वह खामोश हो जाती है।

आरजी कर अस्पताल की वारदात के बाद राज्य पुलिस को यहां सुरक्षा बढ़ानी चाहिए थी, लेकिन हुआ कुछ ऐसा, जो हैरान करता है। रात के अंधेरे में हजारों की तादाद में उपद्रवी आते हैं और अस्पताल के अंदर तोड़फोड़ करते हुए सबूत नष्ट करके चले जाते हैं और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उपद्रवियों की जगह इसके लिए अपने राजनीतिक विरोधियों को दोषी ठहराने में लग जाती हैं। यह भी कितना दुखद है कि प्रदेश में लोग सच बोलने का साहस नहीं कर रहे हैं। दूसरे राज्यों में जब अपराध होता है, तो इसी राज्य से इंसाफ की मांग होने लगती है, लेकिन जब बंगाल ही हिंसा और अराजकता की आग में जल रहा होता है, तो यहां के शासक खुद सड़क पर उतर कर शांति का संदेश देने का ढोंग करते हैं। यह सब कितना हास्यास्पद है। माना जाता है कि किसी मुख्यमंत्री का एक आदेश व्यवस्था कायम करने के लिए काफी होता है। उसे सड़क पर आकर ऐसा दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है। इसका अर्थ यह भी है कि संबंधित मुख्यमंत्री से राजकाज संभाला नहीं जा रहा है। वह सिर्फ एक राजनीतिक दल की मुखिया के तौर पर पूरे प्रदेश को देख रही हैं। बंगाल में आजकल जो भी हो रहा है, वह पूरी तरह अनुचित और भयावह है। आखिर ऐसे दंगों, प्रदर्शन, हिंसा, आंदोलन के बीच कोई कैसे जी सकता है।

राजनीतिक औजार के रूप में गुंडा
स्थानीय हिंसा पर नियंत्रण बंगाल की राजनीति की मुख्य विशेषता है, जो कम से कम 1946 के कुख्यात कलकत्ता हत्याकांड के बाद से स्पष्ट है, जब मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ गठबंधन द्वारा हिंसा का आह्वान गुंडा-संचालित गिरोहों द्वारा हजारों लोगों की हत्या में बदल गया था। गुंडे राज्य में पार्टी की राजनीति की धुरी बने हुए हैं। यह वाम मोर्चे के लिए उतना ही सच है, जितना कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के लिए। इससे पहले, बंगाल कांग्रेस ने तत्कालीन सीएम सिद्धार्थ शंकर रे सहयोग से धमकाने की प्रथाओं का खुल कर इस्तेमाल किया, जिन्होंने नक्सलियों के खिलाफ अनौपचारिक और राज्य प्रायोजित हिंसा का शासन चलाया। अब बंगाल गुंडों के लिए एक प्राकृतिक आवास बन चुका था । गुंडा, यानी एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास राजनीतिक संपर्क हैं और जो अनौपचारिक हिंसक बल में श्रमिकों को संगठित करने में सक्षम है। वाम मोर्चा सरकार की मार्क्सवादी भाषा में गुंडों ने उपद्रवी तत्वों को संगठित किया और इसलिए उनकी नजर में कांग्रेस की राह पर चलते हुए, पार्टी द्वारा उन्हें तैनात करना सही था। उपद्रवी तत्वों का मतलब अपराधियों, आवारा और बेरोजगारों का समूह है, जिनमें वंचित वर्ग के तौर पर अपने सामूहिक हितों के बारे में जागरूकता की कमी होती है।

बंगाल के सिस्टम में ही रचे-बसे गुंडे
बंगाल का यह सच दुनिया भर में प्रचलित है कि यहां स्थानीय गुंडों को खुश किये बिना कोई स्थानीय सेवाओं तक नहीं पहुंच सकता, कोई छोटा व्यवसाय नहीं चला सकता या रोजमर्रा की जिंदगी नहीं जी सकता। दलबदल करने वाला गुंडा राजनीतिक धाराओं में बदलाव की पहले से चेतावनी देता है। मनुष्य का मनोविज्ञान मानता है कि अक्सर वास्तविक हिंसा से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उसका खतरा। इसलिए बंगाल के लोग इस खतरे को ही दूर करने के लिए उतावले होते हैं।
बंगाल में तृणमूल के सत्ता में आने का श्रेय बंगाल के बुद्धिजीवियों में माकपा की पूर्ववर्ती सरकार के प्रति असंतोष को जाता है, जिन्होंने 2007 में इसे छोड़ना शुरू कर दिया था। उन्हें लगा कि वाम मोर्चा बहुत लंबे समय से सत्ता में है और इसने अपने मध्यम-किसान मतदाताओं से मुंह मोड़ कर चीनी शैली के कम्युनिस्ट-नियंत्रित पूंजीवाद की ओर रुख कर लिया है। नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों को बेदखल करने के माकपा के प्रयासों से प्रेरित हिंसा के बाद, पुराने नक्सली माओवादियों का एक समूह भी इसमें शामिल हो गया।

हिंसा की विरासत
जल्द ही तृणमूल ने उन लोगों पर ही हमला कर दिया, जिन्होंने इसे सत्ता में लाया था। केंद्र में तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन का साथ देते हुए इसने नक्सलियों के खिलाफ राज्य स्तर पर हिंसा शुरू कर दी और तृणमूल को माकपा के बुद्धिजीवियों की विरासत तो नहीं मिली, लेकिन उसे वामपंथियों के कैडर का एक बड़ा हिस्सा और राजनीतिक धमकी के तरीके विरासत में जरूर मिले। माकपा के बुद्धिजीवी तो बहुत पहले ही निराश हो चुके थे। इसलिए ममता बनर्जी के रूप में उन्हें एक विकल्प मिला और बहुत से लोग उनके साथ हो लिये।

ममता बनर्जी की चूक
ममता बनर्जी यहीं चूक गयीं। उन्होंने राजनीतिक लोकप्रियता को निजी पूंजी मान लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि तृणमूल ने कोई संयम नहीं रखा। पार्टी की वफादारी के इनाम के तौर पर कैडर को जबरन वसूली, हिंसा, बलात्कार और हत्या के इस्तेमाल की बहुत हद तक छूट दे दी गयी। भारत और दुनिया भर में कई लोकलुभावन राजनीतिक दलों के समान, तृणमूल द्वारा हिंसा का गैर-कानूनी उपयोग एक पार्टी कैडर द्वारा किया जाता है, जिसका पार्टी से संबंध यदि आवश्यक हो, तो नकारा जा सकता है। कोलकाता मेडिकल कॉलेज में ऐसा ही कुछ हुआ और परिणाम सबके सामने है।

आज स्थिति यह है कि ममता बनर्जी मुख्यमंत्री होते हुए भी जलने-जलाने की बात कर रही हैं। देश भर में अशांति फैलाने की धमकी दे रही हैं। यह पूरे देश के लिए चिंता की बात है। वह भूल रही हैं कि भीड़ किसी की नहीं होती। वह तब तक ही आपके साथ होती है, जब तक उसका हित आपसे सधता है। ऐसा नहीं होने पर यही भीड़ आपके खिलाफ भी हो सकती है और बंगाल में ऐसा ही कुछ हो रहा है, जो दुखद-चिंतनीय है।

बंगाल का सच यही है कि पहले सत्ता को मजबूत बनाये रखने के लिए ममता बनर्जी ने गुंडों-उपद्रवियों का इस्तेमाल किया। उनके सहारे उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को धमकवाया, उन्हें पलायन करने पर भी मजबूर कर दिया। अब वही उपद्रवी और अराजक तत्व बंगाल में मनमानी कर रहे हैं और अब ममता की भी नहीं सुन रहे हैं। इसी से ममता की बेचैनी बढ़ी है और गुस्से में जो मन कर रहा है, बोल रही हैं।

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