विशेष
चुनावी मुकाबले का संकेत है झारखंड विस में सियासी युद्ध
पांच साल में पहली बार सत्ता पक्ष और विपक्ष एकदम आमने-सामने
दोनों ही पक्ष अपने-अपने स्टैंड पर अड़ गये, तो बन गये कुछ नये कीर्तिमान
अच्छी बात यह हुई कि किसी भी पक्ष ने संवैधानिक मर्यादाओं को नहीं लांघा
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड की पांचवीं विधानसभा के अंतिम सत्र के आखिरी दो दिनों में सदन के भीतर और बाहर जो कुछ हुआ और हो रहा है, उससे एक बात साफ हो गयी है कि अब झारखंड का सत्ता पक्ष और विपक्ष चुनावी मुकाबले में उतरने के लिए पूरी तरह तैयार है। 31 जुलाई को जिस तरह विपक्ष ने राज्य के ज्वलंत मुद्दों और सत्ता पक्ष के चुनाव पूर्व किये गये वादों पर मुख्यमंत्री के बयान की मांग को लेकर सदन के भीतर धरना दिया और बाद में मार्शलों द्वारा बाहर निकाले जाने के बाद गलियारे में रात बितायी, वह अभूतपूर्व था। यहां तक कि 1 अगस्त को अपने 18 विधायकों के निलंबन के बावजूद अपनी मांगों पर अड़े रह कर विपक्ष ने साफ कर दिया कि इस बार वह चुनावी मुकाबले में सत्ता पक्ष से दो-दो हाथ करने को पूरी तरह तैयार है। दूसरी तरफ सत्ता पक्ष की तरफ से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सदन में अपना स्टैंड साफ करने के बाद जिस तरह धरना दे रहे विपक्षी विधायकों से भेंट कर उन्हें मनाने की कोशिश की, उससे भी साफ हो गया कि सत्ता पक्ष भी चुनावी मुकाबले के लिए पूरी तरह तैयार है। पिछले पांच साल में यह पहला मौका है, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष में इस तरह आमने-सामने की भिड़ंत हुई है। इस पूरे घटनाक्रम की सबसे अच्छी बात यह रही कि आंदोलनरत विधायकों ने मर्यादाओं का पालन किया और लोकतांत्रिक तरीके से ही अपनी-अपनी बात रखी। झारखंड के इतिहास में यह घटनाक्रम पहली बार हुआ है, लेकिन राजनीतिक नजरिये से इसका दूरगामी परिणाम निकलेगा। क्या है विधानसभा में हुए घटनाक्रम का सियासी संदेश, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड की पांचवीं विधानसभा के अंतिम सत्र के दौरान पिछले दो दिन में जो कुछ हुआ और हो रहा है, वह लोकतांत्रिक और संवैधानिक दृष्टिकोण से कई मायनों में रेखांकित करनेवाला है। सत्र के दौरान हुए घटनाक्रम से एक बात साफ हो गयी है कि झारखंड का सत्ता पक्ष और विपक्ष विधानसभा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है। विधानसभा का सत्र समाप्त होने के बाद दोनों ही पक्ष अब चुनावी मैदान में दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं। एनडीए विधायकों ने विधानसभा में लगभग 18 घंटे अनवरत धरना देकर और इस दरम्यान अपने मुद्दों को उछाल कर यह संदेश दे दिया है कि विधानसभा चुनाव में वह कितना आक्रामक तरीके से सत्ता पक्ष पर वार करनेवाला है। विधानसभा में हुए इस घटनाक्रम ने कई सियासी संदेश दिये हैं और साथ ही आसन्न विधानसभा चुनाव के दौरान होनेवाले मुकाबले की एक तस्वीर भी पेश की है। इसलिए यह जानना दिलचस्प है कि इस घटनाक्रम के संदेश क्या हैं।
पहला संदेश: पहली बार दोनों पक्ष आमने-सामने
विधानसभा के घटनाक्रम का पहला संदेश तो यही निकलता है कि पांच साल में पहली बार सत्ता पक्ष और विपक्ष का इस तरह आमना-सामना हुआ। पांच साल में यह पहला मौका है, जब सत्ता पक्ष को विपक्ष की मजबूती का पता चला। यह सच है कि सदन के भीतर से इतने बड़े पैमाने पर विपक्षी विधायकों को देर रात मार्शल आउट करने की घटना झारखंड के इतिहास में पहली बार हुई, लेकिन इससे पता चलता है कि विपक्ष इस बार आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार है। केवल विपक्ष ही नहीं, सत्ता पक्ष भी जिस तरह अपने स्टैंड पर अड़ा रहा, उससे पता चल गया है कि दोनों ही पक्षों का रुख इस बार के चुनाव में आक्रामक ही रहेगा।
दूसरा संदेश: मर्यादाओं का ध्यान दोनों पक्षों को है
इस पूरे घटनाक्रम का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि झारखंड की सबसे बड़ी पंचायत के सदस्यों को उन मर्यादाओं का पूरा ध्यान है, जिनका पालन कर संसदीय लोकतंत्र को सशक्त बनाने की बात कही गयी है। यह बहुत बड़ी बात है कि इतने तनावपूर्ण माहौल में भी सदन के भीतर और बाहर किसी भी पक्ष ने मर्यादाओं की सीमा को लांघने की कोशिश नहीं की। 31 जुलाई को जब विपक्षी सदस्य कार्यवाही स्थगित होने के बाद भी सदन के वेल में धरना पर बैठे रहे, तब सदन के नेता मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद उनसे मिलने और बात करने पहुंचे। यह अलग बात है कि उसमें मसला नहीं सुलझा, लेकिन सत्ता पक्ष का यह व्यवहार साबित करता है कि वह आंदोलन के लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान करता है। देर रात विपक्षी विधायकों को मार्शलों द्वारा टांग कर बाहर निकाले जाने के बावजूद भाजपा विधायकों ने विधानसभा फर्श पर सोकर भी कहीं कोई हंगामा या अप्रिय स्थिति पैदा नहीं की, इससे साफ है कि विपक्ष की ओर से भी मर्यादाओं का पूरा ध्यान रखा गया। हां, इस दौरान विधायकों और खासकर महिला विधायकों को खासी परेशानी हुई। खासकर शौचालय आदि की दिक्कतें पूरी तरह सामने आयीं, बावजूद इसके उन्होंने अपना आपा नहीं खोया।
तीसरा संदेश: चुनाव में आक्रामक रहेंगे दोनों पक्ष
विधानसभा के घटनाक्रम ने एक और बात साफ कर दी है कि इस बार के चुनावी मुकाबले में कोई भी पक्ष इतनी आसानी से पीछे हटनेवाला नहीं है। 2019 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह तत्कालीन सत्ता पक्ष, यानी भाजपा ने अति आत्मविश्वास में आकर अपनी चुनावी रणनीति तैयार की, उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। पुराने सहयोगी से नाता तोड़ना और प्रत्याशी चयन में मनमानी की कीमत भाजपा को चुकानी पड़ी थी। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा को पहली बार विपक्ष में बैठना पड़ा। लेकिन अब वह अपनी पुरानी गलती को भूल कर नये उत्साह के साथ चुनावी मुकाबले में उतरने के लिए तैयार है। वह एनडीए में शामिल घटक दल को भी सम्मान दे रही है। एक तरफ जहां विपक्ष सत्ता पक्ष, खास कर झामुमो-कांग्रेस और राजद को उनके ही वायदों और घोषणाओं को पूरा करने की मांग से उन्हें घेरने की पुरजोर कोशिश कर रहा है, वहीं सत्ता पक्ष यह बताना चाह रहा है कि वह किसी भी आंदोलन से घबड़ानेवाला नहीं है और दबाव में आकर वह वह कोई काम नहीं करनेवाला। वह व्यवहार को आक्रामक तरीके से जनता के सामने रखने के लिए तैयार है। अब यह जनता को तय करना है कि वह किसकी बातों पर अधिक ध्यान देती है।
चौथा संदेश: सत्ता पक्ष के हथियार को भोथरा करने की कोशिश
विधानसभा में विपक्ष ने जो मुद्दे उठाये हैं और जिनके लिए उसके विधायकों ने फर्श पर अंधेरे में रात बितायी, वास्तव में वे सभी एक समय सत्ता पक्ष के मजबूत सियासी हथियार थे। मसलन नियोजन नीति, 1932 के खतियान का मुद्दा, रोजगार, पारा शिक्षकों-सहायक पुलिसकर्मियों की मांगें और ठेकाकर्मियों के स्थायीकरण जैसे लगभग एक दर्जन मुद्दे झामुमो के नेतृत्व में महागठबंधन ने 2019 के चुनाव से पहले जोर-शोर से उठाये थे। चुनाव में उठाये गये उन मुद्दों का पूरा असर लोगों के मन मस्तिष्क पर पड़ा और पहली बार महागठबंधन बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गया। झामुमो ने उस चुनाव में रिकार्ड जीत हासिल की। लेकिन यह भी सच है कि पांच साल में इनमें से कई ज्वलंत मुद्दों हल नहीं हो पाये हैं। इनमें नियोजन नीति और स्थानीय नीति विशेष मायने रखती है। विपक्ष ने आरक्षण के मुद्दे को भी पुरजोर तरीके से उठाया है। वह सत्ता पक्ष से बार-बार सवाल कर रहा है कि एक तरफ तो आपने रघुवर सरकार के समय बनायी गयी स्थानीय नीति को रद्दी की टोकरी में डाल दिया, लेकिन दूसरी तरफ आज तक सत्ता पक्ष ने स्थानीय नीति नहीं बनायी। बार-बार 1932 खतियान लागू करने का संकल्प दोहराया गया, लेकिन वह आज तक लागू नहीं हो पाया। आरक्षण का मुद्दा भी जहां था, वहां है। राज्य और केंद्र सरकार के बीच वह हिचकोले खा रहा है। पिछली नियोजन नीति के आधार पर ही नियुक्तियां हो रही हैं। बीच-बीच में सत्ता पक्ष की तरफ से इस तरफ कदम बढ़ाने का संकेत जरूर दिया गया, लेकिन समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं, जिसे विपक्ष ने चुनावी समय में अपना खास हथियार बना लिया है। अब यही मुद्दे विपक्षी भाजपा और आजसू की तरफ से उठाये जा रहे हैं और सत्ता पक्ष को घेरा जा रहा है, तो साफ है कि इसका सियासी लाभ तो विपक्ष को ही मिलेगा।
छठा संदेश: अब केवल वादा करने से नहीं चलेगा
विधानसभा के घटनाक्रम का छठा संदेश यही है कि अब चुनाव से पहले किये गये वादों का कोई मोल नहीं है। यदि किसी वादे पर किसी को जनता का समर्थन मिलता है, तो फिर चुनाव जीतने के बाद उस वादे को पूरा करने की दिशा में गंभीर प्रयास भी करना होगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो अब चुनावी मैदान में केवल मुद्दा उठाने से काम नहीं चलनेवाला है, उसे समाधान तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी राजनीतिक दलों की होगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो फिर इस तरह के घटनाक्रम अक्सर देखने को मिलेंगे।
पाचवां संदेश: दोनों पक्षों में से कोई भी कमजोर नहीं
इस घटनाक्रम ने यह भी साफ कर दिया है कि चाहे झारखंड का सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, किसी को कमजोर आंकने की गलती नहीं की जानी चाहिए। भाजपा ने जिस तरह अपने सहयोगियों के साथ मिल कर इस तरह के आंदोलन की रणनीति तैयार की, उससे झारखंड की सत्ता दोबारा हासिल करने की उसकी गंभीरता का पता तो चलता ही है, साथ ही उसने बता दिया है कि सत्ता से बाहर रहने के बावजूद उसकी ताकत कम नहीं हुई है। उधर सत्ता पक्ष की तरफ से भी साफ कर दिया गया है कि वह किसी भी कीमत पर किसी के दबाव में पीछे हटने को तैयार नहीं है। सत्ता में होने के बावजूद उसकी आक्रामकता में कोई कमी नहीं आयी है। उसे कमजोर आंकना बड़ी भूल होगी।