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    Home»विशेष»झारखंड के चुनावी दंगल का केंद्र बना संथाल
    विशेष

    झारखंड के चुनावी दंगल का केंद्र बना संथाल

    shivam kumarBy shivam kumarAugust 19, 2024No Comments9 Mins Read
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    विशेष
    झारखंड के चुनावी दंगल का केंद्र बना संथाल
    दोनों के लिए सत्ता का द्वार तब तक नहीं खुलेगा, जब तक संथाल नहीं चाहेगा
    सत्ता पक्ष से हेमंत, तो विपक्ष से बाबूलाल और हिमंता ने संभाल रखी है कमान

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    झारखंड की राजनीति में संथाल परगना की भूमिका काफी अहम मानी जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सबसे बड़े सोरेन परिवार के सभी सदस्य यहां की राजनीति करते हैं। 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाने के बाद शिबू सोरेन ने दुमका को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। दुमका संसदीय सीट से शिबू सोरेन ने आठ बार जीत दर्ज की। उनके तीनों बेटे स्वर्गीय दुर्गा सोरेन, सीएम हेमंत सोरेन, सबसे छोटे बेटे बसंत सोरेन, बड़ी बहू सीता सोरेन संताल परगना से ही चुनाव लड़ती हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में झामुमो को सबसे बड़ी पार्टी बनाने के साथ सत्ता में लाने का काम संथाल परगना ने ही किया था। यहां की 18 विधानसभा सीटों में से 50 प्रतिशत यानी नौ सीटों पर झामुमो ने जीत दर्ज की थी, जबकि इंडिया गठबंधन की सहयोगी कांग्रेस ने चार (प्रदीप यादव के शामिल होने के बाद पांच) सीटें जीती थीं। भाजपा को महज चार सीटें मिली थीं। पिछले कुछ दिनों से संथाल परगना के सियासी माहौल को देखने से एक बात साफ होती है कि झारखंड की सत्ता की चाबी माने जानेवाले इस इलाके में इस बार का चुनावी मुकाबला बेहद रोमांचक होगा। इसलिए यहां दोनों ही पक्षों ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। सत्ता पक्ष की तरफ से कमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के हाथ में है, तो विपक्षी दल भाजपा की तरफ से हिमंता बिस्वा सरमा और बाबूलाल मरांडी ने कमान संभाल रखी है। भाजपा ने जहां परिवारवाद, बांग्लादेशी घुसपैठ से लेकर भ्रष्टाचार तक को मुद्दा बना रखा है, वहीं हेमंत सोरेन ने भाजपा पर पैसे के बल पर घर और पार्टी को तोड़ने की साजिश का आरोप लगा कर साफ कर दिया है कि वह अपने इस अभेद्य दुर्ग को बचाने के लिए हर कीमत चुकाने को तैयार हैं। एक तरफ जहां भाजपा ने संथाल मतदाताओं के दिलों में जगह बनाने के लिए गायबथान जाकर पीड़ित आदिवासी परिवार को आर्थिक मदद पहुंचायी, केकेएम कॉलेज छात्रवास जाकर छात्रों का दुख बांटा, वहीं हेमंत सोरेन ने उसका काट निकालते हुए अपनी सबसे ज्यादा महत्वाकांक्षी योजना मंईयां सम्मान योजना की शुरूआत गायबथान से ही की। क्या है संथाल परगना में मुकाबले की तस्वीर और संभावनाएं, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    झारखंड की सत्ता की चाबी माने जानेवाले संथाल परगना का सियासी माहौल पूरी तरह चुनावी होता जा रहा है। चुनावी चर्चाएं भी परवान चढ़ रही हैं। हर तरफ अगले तीन महीने में होनेवाले विधानसभा चुनाव के बारे में बातें हो रही हैं। इन चर्चाओं में एक बात नोट करने लायक है कि लोग अब राजनीति की महीन और झीनी परतों को भी उधेड़ने से परहेज नहीं कर रहे हैं। चाहे विधायक हो या सांसद या किसी भी पार्टी का पदधारी, लोग उसके बारे में हर वह जानकारी दे देते हैं, जो पहले संभव नहीं था। यह सब सोशल मीडिया के कारण संभव हुआ है। कौन किससे मिल रहा है, कहां जा रहा है और कैसा काम कर रहा है से लेकर गलत कामों को गिनाने में आम लोग पीछे नहीं हटते। तेजी से बदलते राजनीतिक घटनाक्रमों पर लोग करीब से निगाह रख रहे हैं। इस तरह के माहौल से यह साफ हो गया है कि इस बार का विधानसभा चुनाव यहां दोनों ही पक्षों की ताकत का असली इम्तिहान लेगा। इसलिए दोनों ही पक्ष की तरफ से अभी से ही संथाल परगना में पूरी तकत झोंक दी गयी है। सत्ता पक्ष की तरफ से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मोर्चा संभाल रखा है, तो विपक्षी भाजपा की तरफ से प्रदेश चुनाव सह-प्रभारी हिमंता बिस्वा सरमा और प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी भी लगातार सक्रिय हैं।

    संथाल का राजनीतिक परिदृश्य
    इस बात में कोई संदेह नहीं कि संथाल परगना झामुमो का अभेद्य किला है। 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 18 में से नौ सीटें जीत कर अपना दबदबा साबित किया था। उसकी सहयोगी कांग्रेस ने चार सीटें जीती थीं, जबकि पोड़ैयाहाट की सीट उसे बाद में मिल गयी थी। भाजपा को केवल चार सीटें मिली थीं। विधानसभा की 18 सीटों में सात अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इनमें सात आरक्षित सीटों, दुमका, जामा, शिकारीपाड़ा, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, बोरियो और बरहेट के अलावा दो अनारक्षित सीटों, नाला और मधुपुर पर झामुमो का कब्जा है। उसकी सहयोगी कांग्रेस के पास पांच सीटें- जरमुंडी, पोड़ैयाहाट, महगामा, जामताड़ा और पाकुड़ हैं। भाजपा के पास चार सीटें- देवघर, गोड्डा, सारठ और राजमहल हैं। इन चार में से तीन सामान्य सीटें हैं, जबकि देवघर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में भाजपा ने संथाल के विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की थी। इनमें दो आदिवासी क्षेत्र, दुमका और जामा भी थे। संथाल परगना में मिली इस ऐतिहासिक सफलता ने झामुमो नेतृत्व और खास कर हेमंत सोरेन को अपनी राजनीतिक रणनीति पर दोबारा विचार करने पर मजबूर कर दिया। विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के बाद हेमंत सोरेन ने संथाल की किलेबंदी पर अधिक ध्यान दिया। उन्होंने कैबिनेट में तीन स्थान (खुद को मिला कर चार) के अलावा स्पीकर भी संथाल से बनाया। जहां तक भाजपा का सवाल है, तो संथाल परगना में इस बार उसके समाने बहुत बड़ी चुनौती है।

    भाजपा के लिए चुनौती भी और अवसर भी
    संथाल परगना की झामुमो ने जिस तरह किलेबंदी की है, उससे भाजपा के लिए चुनौती बड़ी हो गयी है। संथाल परगना में आदिवासियों की बहुसंख्यक आबादी को अपने पक्ष में करने के लिए भाजपा लंबे समय से कोशिश कर रही है। उसकी कोशिशें लोकसभा चुनाव में सफल होती दिखने लगी थीं। लेकिन हेमंत सोरेन ने इसे पूरी तरह बदल दिया है। अब संथाल में भाजपा की वापसी की राह बेहद कठिन हो गयी है। लेकिन इसके साथ ही उसके लिए इस किले को ध्वस्त करने का अवसर भी है।

    संथाल में आदिवासी अस्मिता बनाम घुसपैठ और भ्रष्टाचार
    जहां तक विधानसभा चुनाव में मुद्दों की बात है, तो इस बार सत्ताधारी गठबंधन का फोकस आदिवासी अस्मिता पर ही होगा। हेमंत सोरेन ने पाकुड़ में जिस तरह भाजपा पर गुजरात-महाराष्ट्र के लोगों को झारखंड में लाने और यहां के आदिवासी, दलित और पिछड़ों को बरगलाने के साथ पैसे के बल पर घर और पार्टी को तोड़ने का आरोप लगाया है, उससे साफ हो गया है कि यह मुद्दा भी सत्ता पक्ष जोर-शोर से उठायेगा। हेमंत सोरेन अपनी सरकार की उपलब्धियों को भी जनता के सामने मजबूती से रख रहे हैं। इसके अलावा आरक्षण, सरना धर्म कोड, 1.36 लाख करोड़ का बकाया, स्थानीयता नीति और केंद्रीय योजनाओं में झारखंड के हिस्से में कटौती जैसे झारखंड की जनभावना से जुड़े मुद्दे भी उनके एजेंडे में शामिल है। सत्ताधारी महागठबंधन को पता है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उसके लिए मुश्किल होगी, तो इसकी काट के लिए वह केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग कर विपक्ष के नेताओं को जेल में बंद करने का मुद्दा उठा रहा है। खासकर हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी को झारखंडी अस्मिता से जोड़ने का प्रयास कर रहा है। झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इसे लेकर ‘झारखंड झुकेगा नहीं’ का नारा दिया है। इसके अलावा महागठबंधन के पास जल-जंगल-जमीन और स्थानीयता के मुद्दों के साथ स्थानीय मुद्दों को केंद्र में रखने की रणनीति बनायी है। हालांकि स्थानीय और नियोजन नीति के बारे में झामुमो अब बहुत हमला बोलने की स्थिति में नहीं है। नियुक्तियां भी पुरानी नीति के आधार पर ही हो रही हैं। 2019 में सत्ता संभालने के बाद वैश्विक महामारी के दौरान राज्य सरकार द्वार किये गये कार्यों की भी याद हेमंत सोरेन दिला सकते हैं।

    इन मुद्दों पर महागठबंधन को घेरेगी भाजपा-आजसू
    जहां तक विपक्षी भाजपा-आजसू का सवाल है, तो उसके पास विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार और परिवारवाद ही रहेगा। इसके अलावा संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण डेमोग्राफी में बदलाव का मुद्दा भी उसका मुख्य हथियार होगा। हाल के दिनों में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी, हिमंता बिस्वा सरमा और भाजपा के दूसरे नेताओं ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव में भी भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बना कर आक्रामक प्रचार अभियान छेड़ा था, हालांकि उसका बहुत अधिक असर नहीं पड़ा था। भाजपा के भ्रष्टाचार के हथियार पर हेमंत सोरेन को इडी द्वारा जेल भेजने का मुद्दा भारी पड़ गया था। लेकिन विधानसभा चुनाव में वह इस मुद्दे को संथाल परगना के पिछड़ेपन से जोड़ कर सत्ता पक्ष को घेरने की कोशिश करेगी। बीजेपी हेमंत सोरेन पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का भी आरोप लगायेगी। इसके बाद खनिजों से ही जुड़े डीएमएफटी (डिस्ट्रिक्ट मिनरल्स फाउंडेशन ट्रस्ट) का सवाल उठा कर भाजपा-आजसू महागठबंधन सरकार को कठघरे में खड़ा करेगी। वैसे संथाल पर भाजपा का सबसे बड़ा अस्त्र बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा ही है और अब वह असर भी दिखा रहा है। इसके बचाव में सत्ता पक्ष से जो कुछ भी सफाई देने की कोशिश हो रही है, वह उस पर उलटा पड़ रहा है। जैसे बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे की काट के लिए सत्ता पक्ष ने रांची, रामगढ़, जमशेदुपुर, बोकारो, धनबाद में बढ़ती जनसंख्या को आधार बनाना चाहा, लेकिन यह कारगर नहीं हो पा रहा है, क्योंकि बांग्लादेशी घुसपैठ और झारखंड में बाहरी लोगों की बढ़ती आबादी को एक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि झारखंड बनने के पहले तो यहां सभी बिहारी थे। झारखंड बनने के बाद झारखंड में निवास करनेवाले झारखंड में ही रह गये और वे वर्षों बरस से रहते आते हैं। वैसे भी डेमोग्राफी चेंज और जनसंख्या बढ़ना दोनों अलग-अलग हैं।

    कुल मिला कर संथाल परगना इस बार ऐसे चुनावी मुकाबले का गवाह बनेगा, जो पहले कभी नहीं हुआ। लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह से दोनों पक्षों ने यहां अपनी ताकत झोंक रखी है, उससे तो यही लगता है कि संथाल के रण में ही दोनों पक्षों की ताकत का लिटमस टेस्ट होगा।

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