टिकट के लिए कांग्रेस और झाविमो बना विकल्प, भाजपा ने बदल दिया है राज्य का राजनीतिक समीकरण
समय कभी एक सा नहीं रहता। यह अनवरत बदलता है। और इस बदलाव के साथ नेताओं की प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं। यह समय की ही बलिहारी है कि एक समय विपक्षी नेताओं के लिए झारखंड में हॉट केक रहा झामुमो अब उतना लुभावना नहीं रहा। झामुमो की जगह अब कांग्रेस और झाविमो विपक्षी नेताओं की पसंद बन रहे हैं। विपक्षी नेताओं की प्राथमिकता में यह बदलाव इसलिए आया है, क्योंकि एक तो झामुमो में जाने के बाद चुनावों में टिकट मिल ही जायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। दूसरी वजह है कि जिस तरह चुनाव जीतने के बाद झाविमो से पाला बदलकर नेता भाजपा में चले जाते हैं, वैसा झामुमो में नहीं किया जा सकता। पार्टी दूसरे दलों से आये नेताओं को टिकट देने में बहुत सोच-विचार कर निर्णय लेती है और इस कवायद में कई बाद दूसरे दल से झामुमो में आये नेताओं का मकसद पूरा नहीं होता। उदाहरण के लिए 27 सितंबर 2018 को आजसू छोड़कर झामुमो में लौटे आस्तिक महतो का बीते लोकसभा चुनावों में टिकट काटकर चंपाई सोरेन को दे दिया, हालांकि राजनीति के गलियारों में तब चर्चा यही थी कि आस्तिक महतो को पार्टी टिकट देगी। वहीं साल 2011 के जमशेदपुर लोकसभा उपचुनाव में जब झामुमो नेत्री सुमन महतो को पार्टी ने टिकट नहीं दिया, तो उन्होंने पार्टी छोड़कर तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था। झामुमो के इन निर्णयों का अच्छा संकेत नहीं गया।
कांग्रेस और झाविमो में कहीं ज्यादा आसान है टिकट पाना
झामुमो की बनिस्बत कांग्रेस और बाबूलाल मरांडी के नेतृत्ववाली पार्टी झाविमो में विपक्षी नेताओं के लिए टिकट पाना ज्यादा आसान मसला है। इसकी वजह यह है कि झाविमो हो या कांग्रेस, यहां नेताओं की कमी है। कांग्रेस का एक राष्टÑीय और देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का रुतबा जहां नेताओं को आकर्षित करता है, वहीं झाविमो में भी नेताओं की कमी और आसानी से टिकट मिलने की गारंटी नेताओं को झाविमो की ओर खींच ले जाती है। जिस शिद्दत से कांग्रेस और झाविमो को आसन्न विधानसभा चुनाव में कद्दावर और जिताउ उम्मीदवारों की जरूरत है, वैसी जरूरत झामुमो की नहीं है। कांग्रेस और झाविमो तो इस ताक में है कि भाजपा से कौन-कौन कद्दावर नेताओं का टिकट कटता है, जिन्हें वह अपनी पार्टी से टिकट खुद को राजनीति में प्रासंगिक बनाये रख सकें। वहीं झामुमो में टिकट पाना बहुत आसान काम नहीं है और झामुमो टिकट देने के मामले में अपने पार्टी नेताओं पर बाहरी नेताओं की तुलना में अधिक भरोसा करता है। ऐसे में झाविमो और कांग्रेस का दामन पकड़ना विपक्षी दलों के नेताओं को अधिक भा रहा है।
गेम चेंजर रहा वर्ष 2014
झारखंड समेत पूरे देश में व्यापक राजनीतिक बदलाव के लिए वर्ष 2014 गेम चेंजर साबित हुआ। नरेंद्र मोदी की लहर ने इस वर्ष देश की सत्ता से कांग्रेस को बेदखल कर पूरे देश में मजबूती से स्थापित किया। झारखंड में भी भाजपा और आजसू के गठबंधनवाली सरकार सत्ता में काबिज हुई। हालांकि 2014 के विधानसभा चुनावों में झामुमो मोदी लहर के बाद भी झामुमो 19 सीटें जीतने में सफल रहा, पर बरहेट से जीत और दुमका सीट से हेमंत सोरेन की पराजय ने यह साबित कर दिया कि संथाल, जो कभी झामुमो का अभेद्य दुर्ग था, अब अभेद्य नहीं रहा। रघुवर दास के नेतृत्व में केंद्र के बैकअप से चल रही सरकार ने पहले तो झाविमो के छह विधायकों को तोड़ा वहीं झामुमोे के गढ़ संथाल और कोल्हान में दीर्घकालिक रणनीति के तहत सेंध लगानी शुरू कर दी। भाजपा ने जिस आक्रामकता से झारखंड और पूरे देश में अपना विस्तार किया, वैसा झामुमो नहीं कर सका। झारखंड में खासकर संथाल और कोल्हान में अपना मजबूत आधार रखनेवाला झामुमो राज्य के अन्य हिस्सों में अपना विस्तार नहीं कर सका। ओडिशा के आदिवासी बहुल इलाकों में पार्टी ने अपना जनाधार बढ़ाया, पर यह डोमिनेटिंग नहीं था। झारखंड के बाहर भी झामुमो ने पैर नहीं फैलाया। हालांकि हेमंत सोरेन ने झामुमो की छवि एक क्षेत्रीय पार्टी से उपर उठाने की पूरी कोशिश की, पर वह इसमें बहुत हद तक सफल नहीं हो सके। 2014 के विधानसभा चुनावों से पहले झामुमो ने राष्टÑीय मीडिया में अपना विज्ञापन दिया और इस धारणा को तोड़ने की कोशिश की कि संसाधनों के मामले में वह किसी भी राष्टÑीय दल की बराबरी कर सकता है। ट्विटर पर चौपाल कार्यक्रम, जिसमें मंच पर कुणाल षाडंÞगी के साथ हेमंत सोरेन की भागीदारी थी, ने झामुमो को राजनीति में एक नयी धार दी। पर यह बढ़त झामुमो लंबे समय तक बरकरार नहीं रख सका। भाजपा ने जिस आक्रामक रणनीति के तहत झामुमो को संथाल और कोल्हान में घेरा, उसमें अपना गढ़ बचाये रखने में जूझते रहने के सिवा उनके पास कोई विकल्प नहीं रह गया। वर्ष 2014 से पहले ऐसा नहीं था। तब झारखंड में झामुमो निर्विवाद रूप से सबसे प्रमुख दल था। इस दल का टिकट पाने के साथ जीत की लगभग गारंटी सी हो जाती थी, इसलिए इसमें आने के लिए विपक्षी नेता आतुर रहते थे। चूंकि पार्टी सत्ता में रहती थी, इसलिए इसका आकर्षण भी बरकरार था। वर्ष 2014 के बाद राज्य में झामुमो की भूमिका प्रमुख विपक्षी दल की रह गयी। सत्ता से दूर होने के कारण झामुमो के प्रति विपक्षी नेताओं का आकर्षण वैसा नहीं रहा, जैसा पहले हुआ करता था।
भाजपा के नारे की काट नहीं ढूंढ़ पायी झामुमो
चार फरवरी 1973 को अस्तित्व में आये झामुमो की स्थापना शिबू सोरेन ने बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर की थी। झामुमो को झारखंड की राजनीति में सबसे मजबूत दल बनाने में भूमिका बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन के आंदोलनों का योगदान रहा। महाजनों के खिलाफ शिबू सोरेन की लड़ाई ने उन्हें निर्विवाद रूप से झारखंड का सबसे प्रभावी नेता बना दिया। पर आंदोलनों से कमाई गयी इस उर्जा को लंबे समय तक बरकरार रखने की जो कवायद पार्टी को करनी चाहिए थी, वह पार्टी नहीं कर सकी। 2014 में भाजपा सबका साथ सबका विकास का सर्वस्पर्शी नारा लेकर आयी। पर झामुमो जल-जंगल और जमीन के अपने परंपरागत नारे को नयी धार नहीं दे सका। रघुवर दास के बदलावकारी निर्णयों ने भी झामुमो के रसूख को कमजोर किया। रघुवर दास ने राज्य में स्थानीय नीति परिभाषित कर दी। झारखंड आंदोलनकारियों को सम्मानित किया। भगवान बिरसा के गांव खूंटी के उलिहातू में भी भाजपा ने विकास कार्यक्रमों की बहार ला दी। संथाल और कोल्हान में भी झामुमो को कमजोर किया और राज्य में यह प्रचारित करने में सफल रहे कि झामुमो आदिवासियों की हितैषी नहीं है। भाजपा ने यहां रणनीति के तहत आदिवासी नेतृत्व खड़ा किया और विकास योजनाओं का फायदा दिलाकर आदिवासियों को अपने पाले में करने की कोशिश की। इसका फायदा भी पार्टी को मिला।
वहीं भाजपा पूंजीपतियों और व्यापारियों की पार्टी है, इसे प्रचारित करने की झामुमो ने कोशिश तो की, पर उसे बहुत सफलता नहीं मिली। झामुमो बदलाव यात्रा और 19 अक्टूबर को रांची के मोरहाबादी मैदान में होनेवाली महाबदलाव रैली से अपने पक्ष में चुनावी जमीन तैयार करने की कोशिश में जुटा है।
इसका कितना फायदा होगा, यह तो आनेवाले चुनावों के परिणाम बतायेंगे, पर इतना तो तय है कि भाजपा के मुकाबले में लंबे समय तक खड़ा रहने के लिए झामुमो को कई स्तरों पर बदलाव से गुजरना होगा।