बात 30 अगस्त की है। उस दिन राजद नेता तेजस्वी यादव ने एक प्रेसवार्ता की। इसमें उन्होंने कहा कि वे महागठबंधन के तहत विधानसभा चुनाव लड़ेंगे, पर राजद की दावेदारी 10 से 12 सीटों पर रहेगी। इन सीटों के लिए वह हेमंत सोरेन, डॉ रामेश्वर उरांव, बाबूलाल मरांडी और अन्य नेताओं से मिलकर सहमति बनायेंगे। महागठबंधन में शामिल कांग्रेस पहले ही 20-25 सीटों पर दावा कर चुकी है। वहीं झामुमो को गठबंधन के तहत 41 सीटें चाहिए। इधर झाविमो अपनी खिचड़ी अलग पका रहा है। उसकी भी दावेदारी कम से कम 15 सीटों पर है। हालत ये है कि झारखंड में विधानसभा की उतनी सीटें ही नहीं हैं, जितने पर महागठबंधन के दलों का दावा है। कुल मिलाकर महागठबंधन के हर दल की सीटों को लेकर अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग है। चुनावों में जहां भाजपा 65 प्लस सीटों का लक्ष्य तय कर बूथ मजबूत करने की हर संभव कोशिश कर रही है, वहीं महागठबंधन के घटक दल अभी सीट शेयरिंग पर ही रस्साकशी कर रहे हैं। महागठबंधन में शामिल नेताओं के खटराग से सीधे हेमंत सोरेन के नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि बीते लोकसभा चुनावों में ड्राइविंग सीट पर जहां कांग्रेस थी, वहीं विधानसभा चुनावों में इस सीट पर हेमंत सोरेन हैं। महागठबंधन की सीटें तय करने के लिए सात सितंबर के बाद घटक दलों की बैठक होनेवाली है। इस बैठक में कोई रास्ता निकल आये, तो इसकी सार्थकता हो सकती है, वरना चुनावों में नतीजा सिफर हो सकता है। बीते लोकसभा चुनावों में राजद ने महागठबंधन धर्म से अलग हटते हुए चतरा सीट से अपना उम्मीदवार उतार दिया था, पर वह जीत नहीं सका था। इस बार राजद यह भूल नहीं दोहराना चाहता। यही वजह है कि तेजस्वी रांची आये और अपनी मंशा जाहिर की।
हेमंत को झुकना होगा सबके सामने
विपक्ष की राजनीति के कुरुक्षेत्र में हेमंत सोरेन भले ही अर्जुन हों, पर विधानसभा चुनावों में उन्हें दानवीर कर्ण सा दिल दिखाना होगा, क्योंकि जरा सी भी चूक खेल बिगाड़ सकती है और झारखंड में सत्तारूढ़ भाजपा ऐसी किसी चूक के इंतजार में है। हेमंत की दिक्कत तो यह है कि भाजपा की आंधी में महागठबंधन का नेतृत्व करने के लिए उनके पास दानवीर कर्ण सा बड़े दिलवाला बनने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। महागठबंधन में शामिल हर दल अपने लिए अधिक से अधिक सीटों की मांग कर रहा है और इसे साधना हेमंत सोरेन की राजनीतिक बाजीगरी की कसौटी बनेगा। लब्बोलुआब यह है कि हेमंत सोरेन को जहां अपने कोटे की कुछ सीटों की कुर्बानी देनी पड़ सकती है, वहीं दूसरे दलों को भी सीटों के तोल-मोल में दरियादिली दिखानी होगी। यदि जमीनी हकीकत देखकर एक-एक सीट पर फैसला हुआ, तो महागठबंधन आकार ले पायेगा, वरना यहां फिर दिक्कत होगी। लोकसभा चुनावों में झामुमो ने बेहतर प्रदर्शन किया होता, तो यह स्थिति नहीं बनती, क्योंकि अधिक सीटें जीतने का आत्मविश्वास पार्टी को सहज स्थिति में रखता, लेकिन केवल एक राजमहल सीट पर जीत पार्टी को वह दम-खम नहीं दिला सकी है, जिसकी उसे जरूरत थी।
पिछला प्रदर्शन दोहराना पार्टी के लिए होगी मजबूरी
बीते विधानसभा चुनावों में झामुमो ने मोदी लहर में 19 सीटों पर जीत हासिल की थी। दो सीटों पर चुनाव लड़नेवाले हेमंत सोरेन दुमका से हारे और बरहेट से जीते थे। इस जीत ने उन्हें निर्विवाद झारखंड का सबसे बड़ा विपक्षी नेता बना दिया था। इससे पहले के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने 18 सीटें जीती थीं। इसलिए 2014 के विधानसभा चुनावों में झामुमो का प्रदर्शन संतोषजनक कहा जा सकता है। वहीं राष्टÑीय दल होने के बावजूद कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पायी और उसके विधायकों का आंकड़ा दहाई का अंक भी छू नहीं सका था। कांग्रेस केवल सात सीटें ही जीती थी। संथाल और कोल्हान जो झामुमो का गढ़ है, वहां पार्टी का वोट बैंक बरकरार रखने के लिए झामुमो बदलाव यात्रा पर निकल चुकी है। संथाल से इस यात्रा की शुरुआत करके हेमंत सोरेन ने यह साबित कर दिया है कि उन्हें अपने गढ़ की चिंता है और इसका समापन 19 अक्टूबर को मोरहाबादी मैदान में होगा। इस यात्रा के जरिये गांव से लेकर शहर तक के पार्टी के वोटरों को एकजुट करना झामुमो का मकसद है। वहीं संगठन को भी चुनावों से पहले रिचार्ज करने की कवायद झामुमो की बदलाव यात्रा है। बदलाव यात्रा के इस तीर से झामुमो एक साथ तीन निशाने साध रहा है, जिसमें तीसरी भाजपा नीत सरकार की विफलता को जनता के सामने रखना है। जामताड़ा में शुक्रवार को भाजपा पर हमलावर होकर हेमंत ने यह जता भी दिया। उन्होंने कहा कि भाजपा और रघुवर दास को झारखंड से उखाड़ फेंकने के लिए अगर उन्हें अपनी बलि भी देनी पड़ी, तो इसके लिए भी वे तैयार हैं। जाहिर है कि हेमंत सोरेन इस बार आर-पार की लड़ाई के मूड में है।
भाजपा चाहती है कमजोर हो महागठबंधन
झारखंड में 65 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही भाजपा की दिली इच्छा है कि राज्य में महागठबंधन अव्वल तो आकार न ले सके और ले भी, तो उसकी गांठें इतनी कमजोर हों कि आसानी से छितरा जाये, ताकि 81 सीटोंवाली झारखंड विधानसभा में 80 फीसदी से अधिक सीटें जीतने का उसका ख्वाब पूरा हो सके। वहीं हेमंत सोरेन की पूरी कोशिश है कि उनके दल के विधायकों के साथ गठबंधन में शामिल दल एकजुटता से भाजपा का विजय रथ रोकने के लिए मुस्तैद रहें। विधानसभा चुनावों में महागठबंधन के नेतृत्व का जिम्मा हेमंत का है और इस लिहाज से उनकी साख भी दांव पर है। क्योंकि महागठबंधन बिखरा, तो कहीं न कहीं यह संदेश तो जायेगा ही कि हेमंत महागठबंधन में शामिल दलों को साध नहीं सके। वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में भाजपा से अकेले टक्कर लेना झारखंड के किसी दूसरे दल के बूते से बाहर है। ऐसे में महागठबंधन अनिवार्यत: विपक्षी दलों के लिए मजबूरी है। पर दिक्कत तो ये है कि फेविकोल का जो मजबूत जोड़ इन दलों की गांठ में लगनी चाहिए थी, वह लाख कोशिशों के बाद लग नहीं पा रही। बीते लोकसभा चुनावों में महागठबंधन के नतीजे बहुत उत्साहजनक नहीं रहे। ऐसे में विधानसभा चुनावों में भी वही फार्मूला कामयाब होगा इसकी संभावना कम है।
राजद की चिंता वाजिब है
अपनी करनी से झारखंड में शून्य पर पहुंच चुका राजद यहां फिर से पैर जमाना चाहता है। पर पार्टी के पांव तले की जमीन 10 जुलाई को तब खिसक गयी, जब झारखंड मुक्ति मोर्चा ने तमाम विपक्षी दलों की बैठक में 41 सीटों पर अपनी दावेदारी पेश की। झामुमो की यह मांग यदि पूरी होती है, तो अन्य विपक्षी दलों को 40 सीटों पर संतोष करना होगा। इसमें कांग्रेस, झाविमो राजद और वाम दलों का कुनबा शामिल है। कांग्रेस की नजर 20 से 25 सीटों पर है वहीं झाविमो की दावेदारी कम से कम 15 सीटों की है। सीटों की अगर इस तरह की शेयरिंग हुई, तो राजद और वामदलों को सीटों का टोटा पड़ जायेगा। बीते विधानसभा चुनाव में राजद का खाता भी नहीं खुला था और वाम दलों की हिस्सेदारी भी नगण्य थी। बीते लोकसभा चुनावों में वामदलों को गठबंधन से बाहर रखा गया था। इस बार वाम दल गठबंधन में शामिल होने के लिए उत्सुकता भी नहीं दिखा रहे। विधानसभा चुनावों में महागठबंधन कितनी सीटें जीतेगा, यह तो चुनाव का रिजल्ट ही बतायेगा, पर इतना तो अभी तय है कि महागठबंधन की गांठ कसने के लिए हेमंत को पुरजोर मेहनत करनी पड़ेगी।