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    Jharkhand Top News

    झारखंड के सामने आगे बढ़ने की चुनौती

    azad sipahi deskBy azad sipahi deskSeptember 25, 2020No Comments7 Mins Read
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    झारखंड में कोरोना के साथ-साथ दूसरी समस्याओं ने खौफनाक रूप धारण कर लिया है। संक्रमितों की संख्या बढ़ने के साथ राज्य के विकास की गाड़ी का लंबे समय से रुका होना गंभीर चिंता का विषय बन गया है। कोरोना के संक्रमण के कारण अर्थव्यवस्था की गाड़ी बेपटरी हो चुकी है और आम लोगों के साथ-साथ सरकार भी परेशान है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगले साल की पहली तिमाही से पहले कोरोना से बचाव का टीका या दवा आने की कोई संभावना नहीं है। ऐसी स्थिति में इस बात की चिंता करने का समय आ गया है कि झारखंड की गाड़ी आगे कैसे बढ़ती रहे। हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं जा सकता। ऐसे में एक बात साफ है कि यह वक्त राजनीति का नहीं है और न ही दोषारोपण करने का। यह वक्त है मिल कर चुनौतियों का सामना करने का और कोरोना से बचते हुए झारखंड को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाने का। इसके लिए सबसे पहले राज्य में सियासत की गाड़ी को कुछ समय के लिए रोकना होगा और राज्य के विकास की गाड़ी को गति देने के उपायों पर विचार करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होगा, झारखंड का कल्याण नहीं हो सकता। यह बात सभी राजनीतिक दलों को, चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में, समझ लेनी चाहिए। अभी राज्य विधानसभा का मानसून सत्र हुआ, लेकिन इसमें सिवाय राजनीति के और कुछ नहीं हुआ। झारखंड के सामने व्याप्त चुनौतियों पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

    झारखंड की पांचवीं विधानसभा का पहला मानसून सत्र दो दिन पहले खत्म हुआ। पांच दिन के सत्र में कार्यवाही तीन दिन चली और इस दौरान अनुपूरक बजट पास करने के अलावा कोई ऐसा काम नहीं हुआ, जिसका उल्लेख किया जा सके। विपक्ष के हंगामे और आरोप-प्रत्यारोप के बीच सत्र समाप्त हो गया। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर सत्र की जरूरत क्या थी। यह सवाल कोरोना संकट के दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि अब इस संकट से जूझते हुए छह महीने हो गये हैं और झारखंड जैसे राज्य समस्याओं से चौतरफा घिरते हुए नजर आ रहे हैं।
    झारखंड को कोरोना के साथ-साथ दूसरी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। राज्य के विकास की गाड़ी पूरी तरह ठहर गयी है और फिलहाल इसके स्टार्ट होने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है। जहां तक चुनौतियों का सवाल है, तो झारखंड के सामने सबसे बड़ी चुनौती विकास की इस गाड़ी को स्टार्ट करना है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगले साल की पहली तिमाही से पहले कोरोना का टीका या दवाई आने की कोई उम्मीद नहीं है। इस स्थिति में झारखंड को ऐसी रणनीति बनाने की जरूरत है, जिससे वह संक्रमण से भी बचे और विकास के रास्ते पर भी बढ़े।
    झारखंड सरकार ने कोरोना के दौर में सामाजिक मोर्चे पर बहुत अच्छा काम किया है। पिछले छह महीने में झारखंड ने कोरोना के संक्रमण के साथ जिस संकल्प और जज्बे से मुकाबला किया है, उसी तरह के प्रयास को जारी रखने का समय आ गया है। बाहर से लौटे कामगारों को रोजगार देना और राज्य की ठप पड़ी आर्थिक गतिविधियों को दोबारा शुरू करने का माहौल तैयार करना झारखंड सरकार के सामने बड़ी चुनौती है। मोटे अनुमान के अनुसार करीब 10 लाख लोग बाहर से लौटे थे। इनमें से तीन चौथाई, यानी करीब साढ़े सात लाख लोग अगले एक साल तक काम के लिए बाहर जाने की स्थिति में नहीं होंगे। इन सभी को काम देना बेहद कठिन होगा, क्योंकि राज्य की अर्थव्यवस्था पहले से ही खस्ताहाल है। विशेषज्ञ कहते हैं कि घर लौटनेवाले प्रवासी श्रमिकों में से केवल 15 प्रतिशत ही कुशल हैं। बाकी के पास कौशल के नाम पर कुछ नहीं है। वे या तो खेतिहर मजदूर बन सकते हैं या फिर हजार-दो हजार की पूंजी लगाकर छोटा-मोटा व्यवसाय कर सकते हैं। झारखंड में खेती की हकीकत बहुत अधिक उजली नहीं है।
    इस स्थिति में हेमंत सरकार को हर हाथ को काम भी देना है और अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर भी लानी है। मौजूदा समय में इससे उबरने का सबसे बेहतर विकल्प कृषि और उससे संबद्ध क्षेत्र ही हो सकते हैं। परंपरागत कृषि की सोच से उबरते हुए हमें इस क्षेत्र में कुछ नये प्रयोग करने की आवश्यकता है। कृषि वानिकी को बढ़ावा देना होगा। राज्य सरकार ने इस दिशा में सराहनीय पहल भी की है। यह कड़वी हकीकत है कि झारखंड में कृषि वानिकी को बढ़ावा देने को लेकर सरकारों का रवैया अब तक उदासीन ही रहा है। नतीजा यह है कि झारखंड की अधिसंख्य भूमि में एक फसलीय खेती होती रही है और काम के अभाव में लोग दूसरे राज्यों की ओर पलायन करते रहे हैं। जीडीपी के मानक भी इसकी पुष्टि करते हैं। राज्य की जीडीपी में कृषि का योगदान महज 14-15 फीसदी ही है। आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए थी कि कृषि और इससे जुड़े संबद्ध क्षेत्रों का जीडीपी में योगदान 25-30 फीसदी होता। झारखंड में फसल घनत्व 120 है, अर्थात खरीफ फसल में तो शत प्रतिशत कृषि संसाधनों का उपयोग होता है, लेकिन रबी में महज 20 प्रतिशत। झारखंड में एक फसलीय खेती होने के कारण उत्पादकता करीब दो टन प्रति हेक्टेयर है। झारखंड में खरीफ के चार-पांच माह छोड़ दें तो अन्य शेष माह जमीन खाली पड़ी रहती है।
    इसके अलावा झारखंड को अगले एक साल के लिए एक ठोस कार्य योजना तैयार करनी होगी, ताकि आनेवाली चुनौतियों का सामना किया जा सके। लगभग खाली हो चुके खजाने को भरने के साथ इस चुनौती का सामना झारखंड कैसे करता है, यह देखना दिलचस्प होगा। इसका सबसे अच्छा विकल्प छोटी-छोटी आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देना और साथ ही मध्यम दर्जे के घरेलू उद्योगों को मदद देकर आगे लाना हो सकता है। जाहिर है इस तरह की योजनाएं बनाने के लिए सभी का सक्रिय सहयोग जरूरी होगा। इसलिए विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान जो माहौल देखने को मिला, उससे काम नहीं चलनेवाला।
    झारखंड के सियासतदानों को समझ लेना चाहिए कि अब समय राजनीति या आरोप-प्रत्यारोप का नहीं, बल्कि मिल-बैठ कर एक ठोस रणनीति बनाने का है, ताकि इस आपदा का मुकाबला किया जा सके। इसके लिए समाज के सभी वर्गों को आगे आना होगा और जो जहां है, उसे वहीं से इस लड़ाई के लिए मोर्चेबंदी करनी होगी। झारखंड बचा रहेगा, तो राजनीति भी होती रहेगी और आरोप-प्रत्यारोप भी होते रहेंगे, लेकिन अभी दूसरी सभी गतिविधियों को बंद करने का समय है। संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए भी सभी वर्गों को सक्रिय रूप से योगदान करना होगा। आज झारखंड के सवा तीन करोड़ लोगों के मन में केवल एक ही बात आनी चाहिए और वह यह कि हमें हर हाल में इस संक्रमण को फैलने से रोकने के साथ विकास की गाड़ी को दोबारा पटरी पर लाना है। यह यकीन के साथ कहा जा सकता है कि यदि राज्य का हर व्यक्ति यह ठान ले कि वह कोरोना की लड़ाई में अपनी भूमिका पूरी निष्ठा से निभायेगा, तो फिर झारखंड इस आपदा से भी पार पा लेगा। झारखंड को आपदा के इस दलदल से बाहर निकालने के लिए मजबूत फैसलों की जरूरत है, जो हर व्यक्ति, चाहे आम हो या खास, समान रूप से लागू किया जाये। जब तक ऐसा नहीं होता, झारखंड को आगे बढ़ता हुआ देखने की लालसा मन में ही रह जायेगी। और हां, सत्ता पक्ष को भी तमाम मतभेदों को भुला कर विकास का एक मुकम्मल ब्लू प्रिंट बना कर सभी दलों से सहयोग करने की बात करनी चाहिए।

    Challenge to move ahead of Jharkhand
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