दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत के ऊपरी सदन, यानी राज्यसभा के बारे में कहा जाता है कि इसकी कार्यवाही राजनीतिक कम, बौद्धिक और सकारात्मक अधिक होती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि राज्यसभा का गठन ही गैर-राजनीतिक हस्तियों को देश के नीति निर्धारण की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल करने के उद्देश्य के लिए किया गया है। इस सदन के सदस्यों से हमेशा शालीन व्यवहार की उम्मीद लगायी गयी थी, क्योंकि इसके सदस्यों में गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि की प्रमुख हस्तियों को शामिल करने की बात कही गयी थी। लेकिन हमारे संविधान की इस अवधारणा को इतनी बुरी तरह कुचला गया कि अब राज्यसभा भी संसद का सदन कम, किसी छुटभैये क्लब की तरह नजर आने लगा है। रविवार 20 सितंबर को राज्यसभा में जो कुछ हुआ, वह इसका ही एक प्रत्यक्ष उदाहरण था। राज्यसभा में किसी बिल का इस तरीके का विरोध अनुचित ही नहीं, आपत्तिजनक और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को शर्मसार करनेवाला था। सरकार के किसी भी फैसले के विरोध के कई लोकतांत्रिक विकल्प मौजूद हैं और फिर अदालत तो है ही। इसके बावजूद विपक्ष के कुछ सांसदों ने जिस तरीके का आचरण किया, वह कहीं से भी स्वीकार्य नहीं हो सकता। उनके इस आचरण से उन्हें ही नुकसान पहुंचा है। राज्यसभा में हुए इस अभूतपूर्व हंगामे पर आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

23 मई, 1952 को जब भारतीय संसद के ऊपरी सदन राज्यसभा की पहली बैठक हुई थी, तब तत्कालीन सभापति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि स्वतंत्र भारत की विकास यात्रा में इस सदन के योगदान को रेखांकित किया जाये, इसके लिए सामूहिक और ईमानदार प्रयास जरूरी है। उन्होंने सदस्यों को कहा था, राजनीति के पथरीले रास्तों की बाधाएं आपके सामने भी आयेंगी, लेकिन आपको इन बाधाओं से न केवल बच कर निकलना है, बल्कि देश को आगे ले जाने के लिए उन्हें दूर भी हटाना है। राज्यसभा देश की संसदीय प्रणाली का गौरवशाली स्तंभ साबित हो, इसके लिए सभी को मिल कर कोशिश करनी होगी।
डॉ राधाकृष्णन का यह संबोधन 20 सितंबर, 2020 को दिन में एक बजे के करीब उस समय उसी राज्यसभा में धूल धुसरित होता नजर आया, जब विपक्ष के कुछ सांसद कृषि विधेयकों के खिलाफ सदन के भीतर जोरदार हंगामा करने लगे, असंसदीय व्यवहार करने लगे और यहां तक कि उपसभापति हरिवंश के साथ मारपीट पर उतारू हो गये। दस्तावेज फाड़ दिये गये, आसन के सामने लगी माइक को तोड़ दिया गया। ये सांसद भूल गये कि उनका यह आचरण टीवी पर पूरा देश देख रहा है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और परंपराओं को अपने उत्पाती आचरणों से शर्मसार करनेवाले इन सांसदों को यह भी याद नहीं रहा कि वे किसी मुहल्ले के सड़क छाप क्लब में नहीं बैठे हैं, बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत के ऊपरी सदन में बैठे हैं।
विपक्षी सांसदों की दलील है कि वे कृषि बिल पर मत विभाजन की मांग को ठुकरा कर इन्हें पारित कराये जाने की प्रक्रिया का विरोध कर रहे थे। लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि विरोध का यह तरीका कितना लोकतांत्रिक था। सरकार के किसी भी फैसले का विरोध करने के लिए लोकतंत्र में बहुत सारे विकल्प दिये गये हैं। ऐसा कतई नहीं है कि बल प्रयोग या हिंसात्मक आचरण के जरिये ही सरकार का विरोध किया जा सकता है। संसदीय प्रणाली में तो बहस, तर्क और दलील के बाद मत विभाजन सबसे ताकतवर तरीका मौजूद है। फिर ऐसा आचरण क्यों, यह सवाल पूरा देश पूछ रहा है।
राज्यसभा में कृषि विधेयकों को लेकर जो कुछ हुआ, वह सब राजनीति की खुंटचाल का ही परिणाम है। लोकसभा में पारित इन विधेयकों को लेकर विपक्ष पहले से ही सरकार पर हमलावर था और उसे उम्मीद थी कि राज्यसभा में सत्ता पक्ष के पास बहुमत नहीं है, इसलिए वहां इन विधेयकों का रास्ता रोक दिया जायेगा। लेकिन विपक्ष अपनी इस रणनीति में उस समय फेल हो गया, जब राज्यसभा ने इन विधेयकों को ध्वनि मत से पारित कर दिया। इसके बाद विपक्ष पराजय की अपनी झेंप को छिपाने के लिए इस तरह के अलोकतांत्रिक आचरण पर उतर गया।
राज्यसभा में रविवार को जो कुछ हुआ, उसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है। सभापति एम वेंकैया नायडू ने हंगामा और अलोकतांत्रिक आचरण करनेवाले आठ सांसदों डेरेक ओ ब्रायन, संजय सिंह, राजीव साटव, सैयद नासिर हुसैन, रिपुन बोरा, केके रागेश और एल्मलारान करीम को एक सप्ताह के लिए सदन से निलंबित कर साफ कर दिया है कि वह इस सदन की मर्यादा और लोकतांत्रिक परंपराओं-मूल्यों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। निलंबित किये गये इन सांसदों ने सोमवार को भी जो आचरण किया, वह राज्यसभा के इतिहास का एक बुरा अध्याय ही होगा। इन्होंने न केवल सभापति के आदेश का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया, बल्कि सदन की मर्यादा को भी तार-तार कर दिया है।
इन सांसदों को यह समझना चाहिए कि संसद हमारे देश के लोकतंत्र का मंदिर है और यहां किया जानेवाला हर आचरण देश के सामने नजीर के रूप में पेश किया जाता है। शोरगुल और मारपीट या तोड़फोड़ से किसी मसले का समाधान नहीं हो सकता। यदि विपक्षी सांसदों को लगता है कि सदन में उनकी बात नहीं सुनी गयी, तो उन्हें इसका विरोध लोकतांत्रिक तरीके से करना चाहिए था। बिल के विरोध में बहुमत का समर्थन जुटा कर वे सरकार को इन्हें वापस लेने पर मजबूर कर सकते थे, आसन द्वारा अपनायी गयी प्रक्रिया को अदालत में चुनौती दे सकते थे या फिर धरना-प्रदर्शन और दूसरे लोकतांत्रिक हथियारों का जखीरा उनके पास मौजूद है। उनका इस्तेमाल आसानी से किया जा सकता था। ये विपक्षी सांसद यदि मानते हैं कि हंगामा मचा कर और दस्तावेज फाड़ने तथा धक्का-मुक्की के बल पर वे संसदीय प्रक्रिया को बाधित कर देंगे, तो यह उनकी भूल है। उन्होंने ऐसा कर भारत की शानदार संसदीय प्रणाली को बेइज्जत ही नहीं किया है, बल्कि अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है। भले ही विधेयकों के उनके विरोध का देश के लोग समर्थन करें, लेकिन विरोध के उनके तरीके से किसी को ऐतबार नहीं होगा, इस बात में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

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