विशेष
भाजपा जानती है आदिवासियों को झामुमो से अलग करना मुश्किल
इसलिए पार्टी ने झामुमो में सेंधमारी के साथ सामान्य सीटों पर किया फोकस
कांग्रेस के कई दावेदारों में असमंजस के बादल छाने लगे हैं
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड विधानसभा के चुनाव के लिए बनाये जा रहे सियासी समीकरण बेहद दिलचस्प होते जा रहे हैं। राज्य की सत्ता में अपनी वापसी के लिए हरसंभव प्रयास कर रही भाजपा के लिए यह चुनाव कितना महत्वपूर्ण है, यह इसी बात से साबित होता है कि पार्टी ने अपनी पूरी ताकत यहां झोंक रखी है। भाजपा पूर्ण रूप से एक्टिव मोड में है। भाजपा अपनी एक्टिविटी से विरोधी दलों को उलझाये रखना चाहती है। भाजपा किसी भी कीमत पर सत्ता में अपनी वापसी चाहती है, जो 2019 में उसके हाथ से छिटक गयी थी। एक रणनीति के तहत भाजपा ने पहले आदिवासी नेताओं को अपने पाले में करने का बड़ा अभियान चलाया। यह इसलिए कि वह जेएमएम को आदिवासी सीटों पर उलझाये रखना चाहती है। भाजपा यह अच्छी तरह से जानती है कि आदिवासियों को झामुमो और खासकर सोरेन परिवार से अलग करना इतना आसान नहीं है। भाजपा इसीलिए झामुमो के कद्दावर नेताओं पूर्व सीएम चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम को अपने पाले में लेकर आयी कि उनकी उम्मीदवारी से झामुमो को चुनौती मिलेगी और उस चुनौती से पार पाने के लिए हेमंत सोरेन को वहां ज्यादा मेहनत करनी पड़गी। ऐसे में उनका फोकस सामान्य सीटों पर कम होगा। भाजपा यह भी जानती है कि कुछ आदिवासी सीटों के साथ-साथ और किन सीटों पर उसे फोकस करना है। इसलिए भाजपा ने झामुमो के दो कद्दावर नेताओं को अपने पाले में करने के बाद, अब विधानसभा की उन सामान्य सीटों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है, जिन पर कांग्रेस का कब्जा है। इनमें कुछ सीटें झामुमो के पास भी हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो भाजपा का असली टारगेट कांग्रेस है, क्योंकि उसे पता है कि झारखंड में झामुमो को कमजोर करने की रणनीति अभी उतनी असरदार नहीं हो सकेगी। चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम भले ही भाजपा में आ गये हैं, लेकिन वे चुनावों में पार्टी के लिए कितने मददगार हो सकेंगे, यह अभी देखना बाकी है। हां यह जरूर है कि उनके भाजपा में आने के बाद भाजपा के एजेंडे को गति मिलेगी। खासकर संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला चुनाव में छायेगा। हालांकि भाजपा इस मुद्दे को वर्षों से उठाती रही है, लेकिन वह आदिवासी मतदाताओं में उतना घर नहीं कर पाया, अब जब जेएमएम से आये कद्दावर आदिवासी नेता चंपाई और लोबिन हेंब्रम बांग्लादेशी घुसपैठ से आदिवासियों को होनेवाले नुकसान पर बोलेंगे, तो निश्चित रूप से महागठबंधन के लिए असमंजस की स्थिति होगी। इसके इतर चुनाव में कांग्रेस को पूरी तरह घेरने के लिए भाजपा ने अपनी रणनीति भी बना ली है। कांग्रेस को भी यह भान हो चुका है कि भाजपा की नजर उसी की सीटों पर है। कोंग्रेसी भले ही रियेक्ट नहीं कर रहे हैं, लेकिन कहीं न कहीं कांग्रेस के दावेदारों के मन में शंकाओं का बादल घिरता जा रहा है। ऐसी सूचना है कि कई पूर्व के प्रत्याशी असमंजस में हैं। चुनाव आते-आते कांग्रेसियों की बेचैनी सामने भी आयेगी। फिलहाल भाजपा कांग्रेस की सीटों पर फोकस कर,अपने प्रतिद्वंद्वियों की दोतरफा घेराबंदी करने की रणनीति पर काम कर रही है। भाजपा की यह रणनीति कितना सफल हो पाती है, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा, लेकिन फुसफुसाहट तो शुरू हो गयी है। इस विधानसभा चुनाव में क्या है भाजपा की रणनीति और वह कितनी कारगर हो पायेगी, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड के आसन्न विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक समीकरण तेजी से आकार ले रहे हैं, तो रणनीतियों के एक से बढ़ कर एक पहलू सामने आ रहे हैं। पिछले सप्ताह सत्तारूढ़ इंडी अलायंस के प्रमुख घटक झारखंड मुक्ति मोर्चा के दो कद्दावर नेताओं, चंपाई सोरेन और लोबिन हेंब्रम को अपने पाले में कर भाजपा ने झामुमो को करारा झटका तो दिया, लेकिन यह उसकी सियासी रणनीति का केवल एक पक्ष भर है। भाजपा की रणनीतियों पर नजर रखनेवालों का मानना है कि पार्टी ने झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए जो व्यूह रचना की है, उसे समझ पाना इतना आसान नहीं है।
भाजपा ने दरअसल झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। पार्टी ने अपने दो कद्दावर नेताओं, शिवराज सिंह चौहान और हिमंता बिस्वा सरमा को यहां तैनात किया है, तो इसका कारण यही है कि दोनों चुनावी चौसर के खेल में माहिर माने जाते हैं। इन दोनों की झारखंड में तैनाती का असर दिख भी रहा है। लेकिन यह सब एक झांकी भर है। इन दोनों कद्दावर नेताओं के अलावा भाजपा ने इस बार विभिन्न जिलों के चुनाव प्रभारी के रूप में केंद्र के प्रभावशाली नेताओं का भी वहां प्रवास तय किया है। ध्यान यह रखा गया है कि वे नेता जिला स्तर पर भाजपा नेताओं को एकसूत्र में बांध कर गुटबाजी को खत्म करायें और कार्यकर्ताओं में जोश भरे। इस काम में कई राज्यों के नेताओं को लगाया गया है। कहने का मतलब कि भाजपा का असली खेल अभी बाकी है और यह खेल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दिख सकता है।
भाजपा ने झामुमो के दो बड़े नेताओं को अपने खेमे में कर तो लिया है, लेकिन उसे पता चल गया है कि इससे झामुमो के वोट बैंक पर विशेष फर्क नहीं पड़नेवाला है। 2019 के विधानसभा चुनाव में राज्य की 28 सुरक्षित विधानसभा सीटों में से भाजपा को केवल दो सीटें मिली थीं, जबकि झामुमो ने 20 और कांग्रेस ने छह सीटें जीती थीं। उस चुनाव में झामुमो ने कुल 30 और कांग्रेस ने 16 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा के खाते में केवल 25 सीटें आयी थीं। उसी तरह लोकसभा चुनाव में झारखंड की सभी सुरक्षित आदिवासी सीटें इंडी एलायंस के पाले में चली गयीं।
2019 के चुनाव परिणाम से सीख लेकर भाजपा ने इस बार अपनी रणनीति में थोड़ा बदलाव किया है। उसने झामुमो के बड़े नेताओं को अपने पाले में करने के साथ उन सामान्य सीटों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है, जहां पिछली बार कांग्रेस जीती थी। भाजपा के शीर्ष रणनीतिकार इस मुहिम में लगे हैं। बात-बात में ऐसे संदेश भी दिये जा रहे हैं। भाजपा के रणनीतिकारों का कहना है कि चुनाव परिणाम पर भले ही इसका कुछ खास प्रभाव नहीं पड़े, लेकिन प्रतिद्वंद्वी पर मनोवैज्ञानिक बढ़त के लिए यह कवायद आवश्यक है।
भाजपा को पता चल गया है कि झामुमो को आदिवासी सीटों पर कमजोर करने की उसकी रणनीति अंतिम परिणाम पर कोई खास असर नहीं डाल सकती है। झारखंड में झामुमो का जनाधार आदिवासी-क्रिश्चियन और मुसलिम वोटर हैं, जिन्हें तोड़ पाना लगभग असंभव है। इसलिए पार्टी ने केवल उन आदिवासी सीटों पर ही ध्यान लगाया है, जहां जीत-हार का अंतर बहुत कम रहता है। चंपाई सोरेन की सीट सरायकेला और लोबिन हेंब्रम की सीट बोरियो इनमें प्रमुख है। इसके अलावा पार्टी ने उन सभी आदिवासी सीटों की सूची तैयार की है, जहां कोशिश करने पर सफलता मिल सकती है। इनमें जामा, दुमका, जगन्नाथपुर, खिजरी और बिशुनपुर हैं।
इन आदिवासी सीटों के अलावा भाजपा ने कुछ ऐसी सीटें भी चिह्नित की हैं, जहां उसे सफलता मिल सकती है। इन सीटों में बड़कागांव, मांडू, बेरमो, जमशेदपुर पश्चिम, बरही, झरिया, मधुपुर और डुमरी शामिल हैं। ये सभी सामान्य सीटें हैं और फिलहाल कांग्रेस के पास हैं। भाजपा का मानना है कि आदिवासी सीटों की बजाय सामान्य सीटों पर ताकत लगाना अधिक लाभदायक हो सकता है।
इसके अलावा, भाजपा के रणनीतिकार मानते हैं कि पार्टी जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर झारखंड में हेमंत सोरेन के खिलाफ आवाज उठा रही थी और जिस मामले में उनको जेल जाना पड़ा था, अब वह मुद्दा भाजपा के लिए उलटा पड़ता दिख रहा है। इस मुद्दे से लोकसभा चुनाव में पार्टी को फायदे की बजाय ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। इसका खामियाजा विधानसभा चुनाव में भी ना भुगतना पड़े, इसी को ध्यान में रख कर भाजपा ने अब अपनी रणनीति बदल दी है। अपनी रणनीति को अमली जामा पहनाने के लिए भाजपा अभी से ही माहौल बना रही है। उसने झामुमो पर कम, कांग्रेस पर अधिक प्रहार करना शुरू किया है। बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे पर फिर बल दिया है। क्योंकि घुसपैठ से सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी समुदाय ही हो रहा है।
कांग्रेस खेमे में खलबली
भाजपा की इस रणनीति को लेकर कांग्रेस भी सतर्क है, हालांकि उसके खेमे में मची खलबली अब सामने आने लगी है। पार्टी ने हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष को बदला है। राजेश ठाकुर की जगह केशव महतो कमलेश को कमान सौंपी गयी है। पार्टी ने भाजपा की रणनीति के जवाब में बार-बार सांगठनिक मजबूती का प्रदर्शन करने की रणनीति अपनायी है। इस पूरी स्थिति में बड़ा सवाल यह है कि आखिर झारखंड की सत्ता में रहते हुए कांग्रेस को किस बात का डर है। दरअसल पार्टी को बाहर से नहीं, भीतर से ही खतरा महसूस हो रहा है। 2019 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करने के बाद झारखंड कांग्रेस की स्थिति जिस तरह कमजोर हुई है, वह किसी से छिपी नहीं है। पार्टी का संगठन किसी भी मुद्दे पर स्टैंड लेने में असमंजस में दिखाई देता है। इसका कारण यही है कि पार्टी के भीतर अब पुरानी बात नहीं रही। समर्पित नेताओं और कार्यकर्ताओ की उपेक्षा के कारण संगठन कमजोर होता चला गया। पार्टी में उन लोगों को ज्यादा तरजीह दी गयी, जो तीन या चार साल पहले दूसरे दलों से कांग्रेस में आये। पार्टी संगठन और विधायकों के बीच अविश्वास की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। भाजपा ने कांग्रेस की इसी कमजोरी का फायदा उठाने की कोशिश की है। अब सियासी शह और मात के इस खेल में किसे जीत मिलती है और किसे हार, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा।