विशेष
झामुमो-कांग्रेस के साथ भाजपा के लिए भी आसान नहीं होगा रण
विकास और पिछड़ेपन के साथ-साथ राजनीतिक मुद्दों का भी होगा टेस्ट
सीट शेयरिंग और टिकट बंटवारे से ही शुरू हो जायेगा चुनावी झकझूमर
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार पलामू प्रमंडल का राजनीतिक परिदृश्य हमेशा पूरे उफान पर रहता है। झारखंड का ‘बिहार’ कहा जानेवाला पलामू प्रमंडल भले ही पिछड़ेपन की पीड़ा झेल रहा है, लेकिन यहां के लोगों का राजनीतिक चिंतन और विमर्श हमेशा से पहली कतार का रहा है। यही कारण है कि इस प्रमंडल की मिट्टी में पैदा होकर कई लोग देश और प्रदेश स्तर के नेता बने और झारखंड की दशा-दिशा को भी पलामू की धरती से ताकत मिली। यह अलग बात है कि यहां पैदा हुए लोगों ने अपनी माटी का कर्ज चुकाने, यानी पलामू के विकास पर कभी समुचित ध्यान नहीं दिया। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। पलामू के लोग अब अपनी इस पीड़ा को खुल कर बताते हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था के सबसे मजबूत हथियार, यानी वोट से इसे समय-समय पर व्यक्त भी करते हैं। पलामू के लोगों की राजनीतिक जागरूकता का ही प्रमाण है कि यहां कभी किसी एक दल का वर्चस्व बहुत दिनों तक कायम नहीं हुआ। चाहे लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का, पलामू में न तो मुद्दों की कमी होती है और न प्रत्याशियों की। इसलिए पलामू प्रमंडल को झारखंड की राजनीति का केंद्रबिंदु भी माना जा सकता है।
इन परिस्थितियों में इस बार का विधानसभा चुनाव भी यहां बेहद रोचक होनेवाला है, क्योंकि पलामू के लोग हर राजनीतिक दल को उसके कामकाज और प्रदर्शन की कसौटी पर कसने के लिए तैयार हैं। इतना ही नहीं, पलामू में इस बार सीट शेयरिंग से लेकर टिकट बंटवारे तक में खूब झकझूमर देखने को मिलेगा। पलामू प्रमंडल की नौ सीटों में से पांच पर भाजपा का कब्जा है, तो दो पर झामुूमो और एक-एक पर कांग्रेस और एनसीपी का। इस बार क्या है इन सीटों का माहौल और कौैन हैं दावेदार, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
पलामू का नाम सुनते ही ऐसे इलाके की तस्वीर उभरती है, जिसके माथे पर आजादी के 78 साल बाद भी पिछड़ेपन का कलंक चस्पां है और जहां विकास नाम की चीज कहीं खो गयी है। 1 जनवरी, 1892 को अस्तित्व में आये पलामू की विडंबना है कि इस इलाके को जहां प्रकृति की उपेक्षा का दंश झेलना पड़ता है, वहीं मानवीय उपेक्षा की पीड़ा भी इसके सीने में कहीं अधिक गहरी है। करीब 20 लाख की आबादी और तीन जिलों, मेदिनीनगर, गढ़वा तथा लातेहार को मिला कर बनाये गये पलामू प्रमंडल की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां की प्रति व्यक्ति आय झारखंड के औसत के मुकाबले करीब नौ हजार रुपये कम है। झारखंड की प्रति व्यक्ति आय जहां 63 हजार 754 रुपये प्रति वर्ष है, वहीं पलामू में यह 54 हजार 883 रुपये है। अपनी गोद में 970 किस्म की वनस्पतियों को समेटनेवाली पलामू की धरती आज भी विकास के लिए तरस रही है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जहां झारखंड के महत्वपूर्ण जिले रांची से सीधे फोर लेन या अच्छी सड़कों से जुड़ चुके हैं, वहीं रांची से पलामू जाते हुए आपको खासकर कुड़ू से डालटनगंज हिचकोले खाने पड़ेंगे।
पलामू के पिछड़ेपन का आलम यह है कि कृषि प्रधान इलाका होने के बावजूद यहां आज तक किसी ने भी सिंचाई और दूसरी आधारभूत सुविधाओं की तरफ ध्यान नहीं दिया। वर्षों के इंतजार और अरबों के खर्च के बावजूद आज भी पलामू के किसान अपने खेतों में कनहर के पानी का इंतजार कर रहे हैं। अधिकारी साल दर साल प्रोजेक्ट को बड़ा कर रहे हैं, पैसे की बर्बादी हो रही है, लेकिन धरातल पर काम नहीं दिखता। अब तो हाइकोर्ट तक ने सरकार से पूछ दिया है कि आखिर पलामू के खेतों को कनहर का पानी कब मिलेगा। कनहर की लड़ाई में हेमेंद्र प्रताप देहाती ने अपनी जीवन खपा दिया, लेकिन खेतों को कनहर का पानी नहीं ही मिला। यहां सिंचाई परियोजनाओं के नाम पर या तो केवल वोट बटोरे गये या फिर राजनीतिक रोटियां सेकी गयीं। मंडल और कनहर डैम जैसी बड़ी सिंचाई परियोजनाएं कब पूरी होंगी, इसका कोई अंदाजा किसी को नहीं है। बटाने, अन्नराज और अमानत की सिंचाई परियोजनाएं रुक-रुक कर चल रही हैं। इलाके से होकर गुजरनेवाले एनएच 75 की हालत यह है कि इसका अस्तित्व ही गायब हो गया है। बिजली के लिए पलामू के लोगों को आज भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ रहा है।
जहां तक पलामू में औद्योगिक विकास और शिक्षा व्यवस्था का सवाल है, तो इन दोनों मोर्चों पर भी यहां की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। पलामू में किसी भी सरकार ने कोई उद्योग स्थापित करने का कभी प्रयास नहीं किया। जपला का सीमेंट कारखाना इसी उपेक्षा के कारण दम तोड़ चुका है। रेहला स्थित निजी क्षेत्र की केमिकल फैक्टरी ही पलामू की औद्योगिक गतिविधि का केंद्र है। शिक्षा के क्षेत्र में भी पलामू की कमोबेश यही स्थिति है। एक विश्वविद्यालय की स्थापना जरूर की गयी है, लेकिन यहां आधारभूत संरचनाओं की भारी कमी है। हाल के दिनों में एक मेडिकल कॉलेज भी खोला गया है, लेकिन वहां भी कमियों का अंबार लगा है। निजी क्षेत्र का एक इंजीनियरिंग कॉलेज जरूर काम कर रहा है।
वहीं निजी मेडिकल कॉलेज अपनी तरफ से प्रयास कर रहे हैं। सड़क और बिजली जैसी आवश्यक सुविधाओं के अभाव में यहां का जनजीवन आज भी प्राचीन काल जैसा ही है। यह तल्ख सच्चाई है कि पलामू का जनजीवन खासकर ग्रामीण इलाकों में आज भी रात आठ बजे के बाद अपने घरों में कैद हो जाता है। रात आठ बजे के बाद एक तरह से पब्लिक परिवहन बंद हो जाता है। हां, रात के अंधेरे में अवैध बालू और अवैध कोयला ढोनेवाले वाहन फर्राटे से चलते हैं।
राजनीतिक रूप से जागरूक
पिछड़ेपन का धब्बा अपने माथे पर लिये पलामू प्रमंडल राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील और जागरूक है। यहां के लोगों की राजनीतिक चेतना का प्रमाण यही है कि पलामू आज तक किसी राजनीतिक दल या विचारधारा का गढ़ नहीं बना है। यहां से चुने जानेवाले लोग हमेशा काम की कसौटी पर कसे जाते रहे हैं और यह सिलसिला लोकसभा चुनाव से लेकर पंचायत स्तर तक के चुनाव में जारी रहता है। इसलिए पलामू को कोई भी दल या प्रत्याशी हलके में लेने की भूल नहीं करता है।
क्या है पलामू का राजनीतिक परिदृश्य
पलामू की राजनीति में धुरंधर माने जानेवाले नेताओं के राजनीतिक रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे हैं। पलामू हमेशा से राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील और जागरूक रहा है। झारखंड अलग राज्य बनने के बाद से पलामू के राजनीतिक मैदान का स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है। कोयल और सोन में बहुत पानी बह चुका है। पुराने स्थापित नेताओं की सक्रियता कम हुई है, तो नये चेहरों ने उस खालीपन को भरा है। पूरे देश की तरह यहां की राजनीति में भी आक्रामकता का बोलबाला बढ़ा है।
झारखंड में सत्ता की राजनीति में जबदस्त दखल रखने वाले पलामू प्रमंडल में विधानसभा की नौ सीटें हैं। इनमें डालटनगंज, विश्रामपुर, छत्तरपुर, भवनाथपुर और पांकी सीट पर भाजपा का कब्जा है, जबकि गढ़वा और लातेहार पर झामुमो का कब्जा है। मनिका सीट कांग्रेस के पास है, तो हुसैनाबाद एनसीपी के पास।
क्या है विधानसभा चुनाव का परिदृश्य
पलामू प्रमंडल की नौ विधानसभा सीटों को लेकर चुनावी समीकरण की तसवीर हालांकि पूरी तरह साफ होने में अभी समय लगेगा, लेकिन इतना तय है कि इस बार का मुकाबला किसी भी दल या प्रत्याशी के लिए आसान नहीं होगा। चुनाव मैदान में उतरनेवाले संभावित चेहरों का क्षेत्र की जनता आकलन करने में लगी है। हर सीट पर वोटों की छीना-झपटी को लेकर दलों और उम्मीदवारों के बीच झकझूमर शुरू है। हर विधानासभा क्षेत्र में अपने-अपने तरीके से जनसंपर्क शुरू हो गया है।
भाजपा सभी सीटों पर मैदान में
भाजपा प्रमंडल की सभी नौ सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसलिए उसमें सीट शेयरिंग का कोई खास झंझट नहीं है। केवल हुसैनाबाद सीट पर पेंच फंस सकता है, जो अभी एनसीपी के पास है। यहां से भाजपा के कई दावेदार सामने आ चुके हैं। लेकिन सत्तारूढ़ झामुमो-कांग्रेस-राजद के बीच सीट शेयरिंग को लेकर पेंच फंस रहा है। पलामू जिले की तीन सीटों पर दावेदारी को लेकर इंडिया ब्लॉक के अंदर घमासान मचा हुआ है। झामुमो, राजद और कांग्रेस के कई दिग्गज यहां से चुनाव लड़ना चाहते हैं। सभी अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं। डाल्टनगंज, पांकी और विश्रामपुर सीट से कांग्रेस चुनाव लड़ती है, जबकि गठबंधन के तहत राष्ट्रीय जनता दल हुसैनाबाद और छतरपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ता रहा है।
झारखंड मुक्ति मोर्चा भी कई बार यहां से चुनाव लड़ चुका है। कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल हुसैनाबाद और विश्रामपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने पर अड़े हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा डाल्टनगंज और हुसैनाबाद विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने पर अड़ा है। इससे इंडिया ब्लॉक के अंदर खींचतान मची हुई है।
सब कुछ देख-सुन रही है जनता
राजनीति के अंदरखाने चल रही रस्साकशी को पलामू की जनता बड़े गौर से देख-सुन रही है। पूरे प्रमंडल में अभी से ही यह चर्चा होने लगी है कि इस बार भी वोट का आधार नाम नहीं, काम को ही बनाया जायेगा। ऐसे में पलामू प्रमंडल के दो मंत्रियों, मिथिलेश ठाकुर (गढ़वा) और बैजनाथ राम (लातेहार) को उनके काम की कसौटी पर कसा जायेगा, जबकि भाजपा के पांच विधायकों, आलोक चौरसिया (डाल्टनगंज), शशिभूषण मेहता (पांकी), रामचंद्र चंद्रवंशी (विश्रामपुर), भानुप्रताप शाही (भवनाथपुर) और पुष्पा देवी (छतरपुर) के सामने अपनी उपलब्धियां गिनाने की चुनौती है। कांग्रेस के रामचंद्र सिंह (मनिका) और एनसीपी के कमलेश सिंह (हुसैनाबाद) भी जनता के सामने अपना पक्ष कैसे रखते हैं, यह देखनेवाली बात होगी।