गुजरात हाईकोर्ट द्वारा गोधरा कांड पर दिए गए फैसले का सीधा मतलब यही है कि विशेष एसआईटी अदालत द्वारा जिन 31 लोगों को दोषी माना गया वे वास्तव में दोषी थे। एसआईटी अदालत ने इन 31 दोषियों में से ग्यारह को फांसी की सजा सुनाई थी और बीस को उम्र कैद की सजा दी थी। हाईकोर्ट ने ग्यारह की मौत की सजा को उम्र कैद में ही बदला है। इसका मतलब यह हुआ कि फांसी की सजा पाए दोषियों के अपराध को फांसी के योग्य नहीं माना गया है। हालांकि 27 फरवरी 2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की एक बोगी एस-6 में आग लगाकर जिस तरह 59 लोगों को मरने के लिए मजबूर किया गया, उससे जघन्यतम अपराध और क्या हो सकता था।
गुजरात दंगों पर गठित नानावती आयोग ने भी माना था कि उस बोगी में आग कोई घटना या दुर्घटना नहीं थी, बल्कि एक गहरी साजिश थी और केवल एक ही समुदाय के लोगों को जिंदा जलाने का इरादा था। मारे गए सभी लोग कार सेवक थे जो अध्योध्या से अपने घरों को लौट रहे थे। और इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ही गुजरात में इतिहास का सबसे भयानक दंगा फैला और सैकड़ों लोगों को अपनी जान खोनी पड़ी। सच तो यह है कि इस मामले पर पूरे देश में जमकर राजनीति भी हुई। यूपीए सरकार के समय तो रेल मंत्रालय ने इस मामले की जांच के लिए यूसी बनर्जी समिति गठित की थी, जिसने साबरमती एक्सप्रेस की आग को महज एक हादसा माना था। लेकिन गुजरात पुलिस का साफ मानना था कि आग बाहर से लगाई थी और यह साजिश थी। हालांकि बनर्जी समिति की रिपोर्ट को विशेष अदालत ने खारिज कर दिया था।
ऐसी ही राजनीतिक उठा-पटक देश में लगातार चलती रही। गुजरात के दंगों को राजनीति का मुद्दा बनाया जाता रहा, लेकिन जब सवाल गोधरा की घटना पर उठता तो चुप्पी साध ली जाती थी। पहले एसआईटी जांच फिर विशेष अदालत का फैसला और अब हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह स्वीकार करना होगा कि अपराधियों के वर्ग ने जानबूझकर अयोध्या से लौटते कार सेवकों को जलाकर मार डाला था कि वे अपनी जान तक बचा सकते थे। अपराधियों के खिलाफ आपराधिक साजिश, ज्वलनशील पदार्थ जुटाने और समुदाय विशेष के लोगों पर हमला करके मार डालने का आरोप साबित हुआ है। वैसे, दोनों अदालतों ने 63 आरोपियों को बरी भी किया है।
इनमें मौलाना उमरजी भी शामिल हैं, जिन्हें एसआईटी ने गोधरा कांड का मुख्य मास्टर माइंड माना था, लेकिन एसआईटी इसके खिलाफ पुख्ता सबूत नही जुटा पाई थी। मौत की सजा पाए ग्यारह लोगों को हाईकोर्ट ने उम्र कैद में बदला है तो इसका कारण भी शायद यही रहा है कि इनका साजिश में शामिल होना तो साबित हुआ है लेकिन इसके मास्टर माइंड साजिशकर्ताओं की सही पहचान नहीं हो सकी। फैसले का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी रहा कि गोधरा कांड में मारे गए लोगों के परिजनों को सरकार द्वारा दस-दस लाख रुपया मुआवजा देने का आदेश है।
इसके साथ ही अदालत की यह टिप्पणी भी गौरतलब है कि राज्य सरकार एवं रेलवे प्रशासन कानून-व्यवस्था बनाए रखने में विफल रहे। वैसे इस फैसले को भी भारतीय न्याय व्यवस्था की पेचीदगियों और लेट-लतीफी के रूप में भी देखे जाने की जरूरत है। ऐसे जघन्य कांड पर भी फैसला आने में पन्द्रह साल तक लग जाते हैं, जिसे अभी भी अंतिम नहीं माना जा सकता। अभी सुप्रीम कोर्ट में अपील होगी और नए सिरे से फिर सुनवाई होगी। आखिर न्याय तो होगा, लेकिन और अधिक विलंब भी होगा। अदालती फैसलों पर सहमति-असहमति अपनी जगह है। अदालत सर्वोपरि है, लेकिन कुछ खास तरह के मामले शीघ्र न्याय की उम्मीद तो की ही जाती है।