हमारे देश की अदालतों में मुकदमों के बोझ की वजह से आज इंसाफ की क्या गति है, यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे मामले सामने आते रहते हैं जिनमें फैसला आने में कई बार इतनी देर हो जाती है कि न्याय निरर्थक हो चुका होता है। विधि आयोग की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देश के पांच शीर्ष न्यायाधिकरणों में करीब साढ़े तीन लाख मामले लंबित हैं, जिनमें से अकेले आयकर अपीली न्यायाधिकरण में इक्यानबे हजार मुकदमे फैसले की बाट जोह रहे हैं। इसके अलावा, केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, रेलवे दावा न्यायाधिकरण, ऋण वसूली न्यायाधिकरण, सीमाशुल्क, आबकारी और सेवा कर अपील न्यायाधिकरण में भी लंबित शिकायतों की तादाद इस समस्या को जटिल बना रही है। हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक इन न्यायाधिकरणों में शिकायतों के निपटारे की दर हर साल दर्ज होने वाले मामलों की तुलना में कमोबेश ठीक है। इसके बावजूद न्यायाधिकरणों में न्याय की गति धीमी है, जो इस ओर ध्यान दिलाता है कि समूचे न्यायिक तंत्र में कहीं जड़ता का आलम है। खुद विधि आयोग की रिपोर्ट में यह चिंता जताई गई है कि कुछ न्यायाधिकरणों के कामकाज के संबंध में आंकड़े संतोषजनक नहीं हैं।

अदालतों पर मुकदमों के बोझ के मद्देनजर ही वैकल्पिक उपाय के रूप में न्यायाधिकरणों की स्थापना की गई, ताकि न्याय प्रशासन में देरी और लंबित मामलों की समस्या से निपटा जा सके। इसी सिलसिले में लोक अदालतों का भी गठन किया गया। लेकिन आज हालत यह है कि इन जगहों पर भी लंबित मामलों की तादाद इतनी ज्यादा हो गई है कि उसका नकारात्मक असर न्याय की अवधारणा पर पड़ रहा है। विधि एवं न्याय मंत्रालय के एक आंकड़े के मुताबिक देश भर की नियमित अदालतों में 2015 तक लंबित मुकदमों की संख्या करीब साढ़े तीन करोड़ थे। दरअसल, न्याय का तंत्र इतना उलझा हुआ है कि बहुत मामूली विवादों पर फैसला आने में भी कई बार पांच या दस साल या फिर इससे ज्यादा वक्त लग जाता है। जेलों में बंद लोगों में से विचाराधीन कैदियों की संख्या दो-तिहाई के आसपास है। विडंबना यह है कि विचाराधीन कैदियों में ऐसे लोग भी हैं, जो अपने खिलाफ चल रहे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा से ज्यादा समय जेल में काट चुके हैं।

अदालतों में मुकदमों के बोझ के लिए न्यायाधीशों की कमी को सबसे बड़ा कारण बताया जाता है। तमाम न्यायिक पद रिक्त हैं। अदालतों में गरमी की लंबी छुट्टियों को लेकर भी कई बार सवाल उठे हैं। एक बार पूर्व न्यायाधीश राजेंद्रमल लोढ़ा ने यह सुझाव दिया था कि जब अस्पताल साल भर काम करते हैं, तो न्यायालयों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता है! इससे संबंधित सुझाव कई मौकों पर सामने आ चुके हैं। लेकिन नियमित अदालतों में बढ़ते मुकदमों के अंबार की समस्या के हल के लिए अब तक कोई ठोस पहल नहीं हुई और उसके नतीजे सामने हैं। अब न्यायाधिकरणों में भी जिस कदर मामलों का बोझ बढ़ता जा रहा है, उससे अगर समय रहते नहीं निपटा गया तो यह आने वाले वक्त में इंसाफ की तस्वीर को और धुंधला ही करेगा। कहा भी गया है कि न्याय में देरी करना न्याय से इनकार करने के बराबर है।
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