सिविल सेवा की नौकरी में शासन की मलाई खाने के बाद लाल बत्ती का चस्का आइएएस और आइपीएस अधिकारियों को ऐसा लग जाता है कि फिर जीवनपर्यंत वे उस सुख का उपभोग करना चाहते हैं। नौकरी के दौरान रिटायरमेंट लेने की स्थिति हो या सेवा काल खत्म होने के बाद के रिटायरमेंट का क्षण वे जिस दूसरे प्रोफेशन की ओर आकृष्ट होते हैं, वह राजनीति होती है। राजनीति में बीडी राम जैसे आइपीएस जहां सांसद बनने में सफल होते हैं, तो कई के हाथ आशातीत सफलता नहीं लगती। राजनीति में आइएएस और आइपीएस अफसरों के सफल या विफल होने के कारणों की पड़ताल करती दयानंद राय की रिपोर्ट।
एक समय था, जब राजनीति में आनेवाले आइएएस और आइपीएस अफसरों को हॉट केक समझा जाता था। उनका पार्टी में आना और छा जाना लगभग तय होता था, लेकिन वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद और देश में भाजपा का परचम लहराने के बाद राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है। अफसरों का रुतबा अब राजनीति में जलवा बिखेर पाने में सफल नहीं हो पा रहा है। बात हम झारखंड की करते हैं। चाहे वह कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार रहे हों या भाजपा के ज्योति भ्रमर तुबिद, राजनीति में आने के बाद वे सहज स्वीकार्य हो गये हों, ऐसा नहीं है। जेबी तुबिद ने भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा, पर जनता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। आइएएस अधिकारी विमल कीर्ति सिंह भी राजनीति में आने लिए नौकरी छोड़ने के बाद सीन से गायब हैं। असल में आइएएस और आइपीएस अधिकारी अपनी ठसक के घेरे से बाहर ही नहीं निकल पाते हैं। ऐसे में यह माना जाने लगा है कि जनता अफसर नेताओं को पसंद नहीं कर रही। आइपीएस से राजनेता बने डॉ अजय कुमार ने जमशेदपुर सांसद के तौर पर अच्छा काम किया, पर जब वे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने तो सफल नहीं हो पाये। अपने लगभग 16 महीने के कार्यकाल में उन्होंने कांग्रेस में नयी ऊर्जा भरने की कोशिश की पर पार्टी के वरीय नेताओं को साधने में सफल नहीं हो सके। उन पर आरोप लगा कि वे पुलिसिया तरीके से पार्टी को चला रहे हैं।
इसके बाद उनके कार्यकाल में ही प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में धक्का-मुक्की हुई और उन्होंने नौ अगस्त को इस्तीफा दे दिया। आॅल इंडिया कांग्रेस कमिटी के सचिव डॉ अरुण उरांव ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभायी, पर झारखंड की राजनीति में उन्हें पार्टी ने कोई अहम भूमिका नहीं दी। डॉ अरुण उरांव डायनेमिक हैं और काम करना चाहते हैं पर काम नहीं कर पा रहे हैं। उनके साथ दिक्कत यह है कि वे अवसर तलाश रहे हैं और सारी काबिलियत उनके पास है, पर उन पर पार्टी नजरें इनायत नहीं कर रही है। राजनीति में बहुत स्वीकार्य न हो पाये नेता के रूप में दूसरा उदाहरण अमिताभ चौधरी का है। अमिताभ चौधरी ने राजनीति में अपनी चौधराहट चलाने की कोशिश की, पर सफलता ने उनका दामन नहीं थामा। झाविमो के टिकट पर उन्होंने रांची से लोकसभा चुनाव लड़ा, पर जनता ने स्वीकार नहीं किया। इसी तरह भाजपा में शामिल होने के बाद विमल कीर्ति सिंह कोई खास कारनामा दिखा नहीं कर पाये। हालांकि बीडी राम भाजपा ज्वाइन करने के बाद सांसद बनने में सफल रहे। पर उनकी राजनीतिक पारी बेहद उल्लेखनीय रही ऐसा भी नहीं है। हालांकि कई अधिकारियों के राजनीति में सफल होने की कहानियां भी हैं। आइपीएस अधिकारी रहे डॉ अरुण उरांव के पिता बंदी उरांव अविभाजित बिहार में मंत्री बनने में सफल रहे थे। वहीं एक ख्याति प्राप्त इंजीनियर से राजनेता बने कार्तिक उरांव की ख्याति आज भी बरकरार है। उन्हें लोग आज भी याद करते हैं। उनका उदाहरण भी पेश करते हैं।
क्यों हॉट केक नहीं रहे आइपीएस और आइएएस
राजनीति के जानकारों का कहना है कि आइएएस और आइपीएस अफसरों को जनता इसलिए अस्वीकार कर रही है क्योंकि वह नेता बनने के बाद भी अफसर के अपने आवरण से बाहर नहीं निकल पाते। अफसरशाही का भूत उनमें इतना सवार रहता है कि जनता के बीच वह सहज स्वीकार्य नहीं हो पाते। जनता उन्हें स्वीकार नहीं कर पाती। आइएएस और आइपीएस अफसरों की सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि सिविल सर्विस में भले ही उन्हें जनता के लिए सहज सुलभ होने को कहा जाता है पर ऐसा कर पाना उनके लिए मुश्किल होता है। जनता हो या कार्यकर्ता वह अपने लिए नेताओं से बराबरी का दर्जा चाहती है पर सिविल सेवा से आये पदाधिकारी हर आदमी को अपना मातहत समझते हैं। कार्यकर्ता हो या जनता सब उन्हें अपना स्टाफ लगने लगते हैं। सर्वोच्च होने की ग्रंथि से वह बाहर निकल नहीं पाते। जबकि नेता बनने के लिए उन्हें अपने अतीत के घेरे से बाहर निकलना होता है। जो ब्यूरोके्रसी के अपने अतीत से बाहर निकलने में सफल होते हैं उन्हें राजनीति में सफलता मिलती है। जहां तक कार्तिक उरांव और बंदी उरांव जैसे नेताओं की बात है तो वह अलग दौर था और आज का दौर अलग है।
जनसेवा कूट-कूट कर भरी होती, तो मिलती सफलता
नाम न छापने की शर्त पर आइपीएस अधिकारी से राजनेता बने एक शख्स ने बताया कि आइएएस हों या आइपीएस वे राजनीति में सफल नहीं होंगे ऐसा नहीं है। इस संबंध में कोई सीधा निष्कर्ष निकालना पूर्वाग्रह होगा। यदि उनमें जनसेवा की भावना कूट-कूट कर भरी होगी तो सफलता उन्हें अवश्य मिलेगी। होता यह है कि लंबे समय तक अफसर रहने के दौरान मिला रुतबा उनका दिमाग सातवें आसमान में ले जाता है।
सिविल सेवा पास करने के बाद वे जनसेवा के लिए चुने जाते हैं। सरकार चाहती है कि वे सिविल सर्वेंट के तौर पर गांव-देहात और सुदूरवर्ती इलाकों में रह रहे अंतिम पायदान पर खड़े लोगों की सेवा में जुटे पर विडंबना यह है कि वे ऐसा नहीं कर पाते चाहे कारण जो भी रहे हों। जहां तक कार्तिक उरांव और बंदी उरांव के राजनीति में सफल होने की बात है तो जनसेवा का जुनून उनमें कूट-कूट कर भरा था। स्वर्गीय कर्तिक उरांव एचईसी में डिप्टी चीफ इंजीनियर रहे पर नौकरी कभी उनके लिए बाधा नहीं रही। जैसे ही उन्हें मौका मिला उन्होंने नौकरी छोड़ी और पूरी ताकत से राजनीति के जरिये जनसेवा में जुट गये। बंदी उरांव ने भी जब नौकरी छोड़ी तो वह गिरिडीह के एसपी थे पर उनमें भी जनसेवा का भाव प्रबल था इसलिए राजनीति में उन्हें सफलता मिली और उनका कार्य आज भी लोगों के जेहन में है। मेरा यह मानना है कि जो भी आइएएस या आइपीएस अधिकारी राजनीति में उल्लेखनीय करना चाहते हैं उन्हें जनता के स्तर पर आना होगा। उनकी भाषा में उनकी बात सुननी होगी। उनकी समस्याएं सुलझाने की तत्परता दिखानी होगी और सबसे बढ़कर संवेदनशील होना होगा। यदि हाथ मिलाने के बाद वे अपना हाथ डिटॉल से धोने लगे, तो जनता उन्हें कैसे आत्मसात करेगी। उन्हें जनता को गले लगाना होगा। यदि वे ऐसा कर पाये तो निश्चित रूप से राजनीति में सफल होंगे।