बिहार की राजनीति को नजदीक से जानने-समझनेवालों ने आसन्न विधानसभा चुनाव के परिदृश्य में जिस एक नेता को सबसे चौंकानेवाला माना है, वह हैं लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान। पिछले साल लोकसभा के चुनाव के दौरान उन्होंने अपने पिता और बिहार की दलित राजनीति के कद्दावर नेता रामविलास पासवान के साथ मिल कर जो राजनीतिक सौैदेबाजी की, उससे उनके रणनीतिक कौशल का अंदाजा मिल गया था, लेकिन अब बिहार विधानसभा चुनाव में उनके फैसलों से साफ हो गया है कि वह थोड़े से में संतुष्ट होनेवाले नेताओं में नहीं हैं। पहले अकेले दम पर चुनाव लड़ने का फैसला और सार्वजनिक रूप से नीतीश कुमार को चुनौती देने की हिम्मत दिखानेवाले चिराग पासवान आज की तारीख में बिहार की एक मजबूत राजनीतिक ताकत बन चुके हैं, बल्कि उनकी गंभीरता और संजीदगी को भी बेहद गंभीरता से लिया जाने लगा हैै। चुनावी कोलाहल के बीच पिता के निधन के बावजूद चिराग ने पिछले दिनों जिस गंभीरता और शालीनता का परिचय दिया है, वह साबित करता है कि वह लंबी रेस का घोड़ा हैं। राजनीति यदि उन्हें विरासत में मिली है, तो वह उसे आगे ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। चिराग की इस अलग किस्म की राजनीति ने उन्हें भीड़ से अलग रख दिया है। बिहार के इस युवा नेता की राजनीतिक शैली पर आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
श्ुारुआत कुछ बयानों से।
10 नवंबर के बाद सीएम नहीं रहेंगे नीतीश कुमार
हम नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ेंगे।’
हम भाजपा के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेंगे।’
‘मैं नरेंद्र मोदी का हनुमान हूं। सीना चीर कर दिखा सकता हूं।’
पापा ने मुझे अकेले चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया।’
यदि नीतीश जी मेरे सामने आयेंगे, तो मैं उनके पैर छू लूंगा।’
हां, बिहार एनडीए से बाहर निकलने का फैसला मेरा था।’
मैं पीएम को किसी धर्म संकट में डालना नहीं चाहता। वह चाहें, तो मेरे खिलाफ भी बोल सकते हैं।’
ये आठ बयान चिराग पासवान के हैं, जो उन्होंने पिछले तीन सप्ताह के दौरान दिये हैं। इन बयानों ने बिहार की दलित राजनीति के कद्दावर नेता रामविलास पासवान द्वारा स्थापित लोक जनशक्ति पार्टी के युवा अध्यक्ष चिराग पासवान को बिहार विधानसभा के चुनावी परिदृश्य का सबसे चर्चित और अलग किस्म का नेता बना दिया है। चिराग ने इन बयानों से साबित कर दिया है कि विरासत में मिली राजनीति को वह आगे ले जाने के लिए पूरी तरह तैयार हैं।
कल्पना कीजिये, एक युवक की मन:स्थिति का, जिसके पिता का अभी-अभी निधन हुआ है और वह बेटा होने का फर्ज निभा रहा है, लेकिन चुनावी कोलाहल के दौरान हर तरफ से उस पर बयानों के तीर चल रहे हों। इसके बावजूद वह बिना किसी उत्तेजना और तनाव के हर तीर को अपने तरीके से विफल कर रहा हो। चिराग पासवान ने पिछले 12 दिन में यही माद्दा दिखाया है, जिसके कारण वह नेताओं की भीड़ में अलग दिखाई देने लगे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों ने बिहार में उनके अकेले चुनाव लड़ने के फैसले पर सवाल उठाये, लेकिन स्थिति साफ होते ही उनके इस फैसले को बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा प्रयोग कहा जाने लगा। इसी तरह जब भाजपा के कई बड़े नेता लोजपा का दामन थामने लगे, तो चिराग पासवान को भाजपा की बी टीम की संज्ञा दी जाने लगी, लेकिन खुद चिराग ने साफ कर दिया कि वह अपने किस्म की राजनीति करते हैं और आगे भी करेंगे।
पिछले 15 साल से बिहार की कमान संभाल रहे नीतीश कुमार ने हालांकि अब तक सीधे-सीधे चिराग पासवान या लोजपा पर निशाना नहीं साधा है, लेकिन उनकी पार्टी जदयू के कई नेता लगातार चिराग पासवान के खिलाफ हमलावर रहे। उधर भाजपा के नेताओं ने भी चिराग पासवान को ‘वोटकटवा’ बता दिया, लेकिन चिराग ने कह दिया कि वह पीएम मोदी के हनुमान हैं। राजनीति की यह धारा बिहार जैसे प्रदेश के लिए एकदम नयी है। बिहार की राजनीति जातीय और सामुदायिक रूप से बेहद संवेदनशील होती है। खास कर 1974 के बाद से यहां जातीय राजनीति का बोलबाला रहा है। चिराग के पिता रामविलास पासवान भी कहीं न कहीं उसी राजनीति के अहम हिस्से थे। लेकिन चिराग ने साबित कर दिया है कि वह जातीय राजनीति से अलग हट कर अपना एक अलग तरीका स्थापित करने के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं।
करीब दो सप्ताह पहले जब चिराग पासवान ने बिहार में अकेले चुनाव लड़ने का एलान किया, तब उनके फैसले को संदेह की नजरों से देखा जाने लगा। उनके अलग और अकेले चुनाव लड़ने के एलान के बाद यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण हो गया कि आखिर इससे लाभ किसको होगा। इस सवाल का जवाब तलाशना असंभव नहीं, तो कठिन जरूर है। चिराग जिस दलित समुदाय से आते हैं, उसके करीब सात फीसदी मतदाता हैं और कम से कम 30 सीटों पर वे परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर चिराग का जदयू और नीतीश से मोहभंग क्यों हुआ। पहले जदयू और बाद में भाजपा की ओर से कहा गया कि चिराग की पार्टी ने अपनी हैसियत से अधिक सीटों की मांग की, जिसे पूरा करना असंभव था। इन दावों में कितनी सच्चाई है, यह तो 10 नवंबर को ही पता चलेगा।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि चिराग पासवान आज की तारीख में बिहार की राजनीति के सबसे ताकतवर क्षेत्रीय नेता हैं। जहां तक चुनावी सफलता की बात है, तो वह इसे लोकसभा चुनाव में साबित भी कर चुके हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा कि वह नीतीश के लिए बाधा बनते हैं या फिर भाजपा की मदद से सत्ता का वरण करते हैं। चिराग का चुनावी नारा ‘बिहार फर्स्ट-बिहारी फर्स्ट’ है। उनके अलग होने का नुकसान जहां नीतीश को होगा, वहीं भाजपा के लिए वह तुरुप का पत्ता बने रहेंगे। भाजपा को भविष्य में यदि कभी नीतीश से खतरा हुआ, तो उस स्थिति में चिराग की झोपड़ी उसके लिए सुरक्षित ठिकाना बन सकेगी। यह भी चर्चा है कि नीतीश द्वारा महाराष्ट्र की कहानी दोहराये जाने की आशंका को टालने के लिए ही चिराग का इस्तेमाल किया जा रहा है।
बिहार के चुनाव का अंतिम परिणाम चाहे कुछ भी हो, लेकिन चिराग पासवान के रूप में प्रदेश को एक नया राजनीतिक चेहरा मिला है, जिसके पास बिहार को आगे ले जाने का माद्दा तो है ही, अपनी बेबाकी और गंभीरता से अलग किस्म की राजनीति को स्थापित करने की हिम्मत भी है।