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25 साल! 25 ही कहना चाहिए, क्योंकि 1997 से ही सक्रिय हो गयी थीं सोनिया गांधी। अपने अकेले कंधों पर कांग्रेस की भारी जिम्मेदारी उठाने वाली भारत के प्रथम राजनीतिक परिवार की विदेशी बहू इस जिम्मेदारी से फाइनली मुक्त हो गयीं। कांग्रेस ही नहीं, देश की राजनीति के लिए सोनिया का योगदान बहुत बड़ा है। विडंबना है कि कांग्रेसियों ने ही इसे उनके अंतिम दौर में नहीं समझा और उनको कई आरोपों से घेरा। यह बात जगजाहिर है कि अगर सोनिया 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बन कर पार्टी की जिम्मेदारी नहीं संभालतीं, तो आज पार्टी इस तरह एक नहीं दिखती, उसी वक्त कई हिस्सों में बंट जाती। सोनिया का सबसे बड़ा योगदान तो यही है उन्होंने देश की सबसे पुरानी पार्टी को टूटने नहीं दिया। 1998 से 2004 तक कड़ी मेहनत की और पार्टी को केंद्र में सत्ता में लायीं। न केवल प्रधानमंत्री पद का त्याग किया, बल्कि कांग्रेस के बड़े नेताओं के विरोध के बावजूद किसान कर्ज माफी, मनरेगा और महिला बिल जैसे क्रांतिकारी फैसले करवाये। और अब मतदान के द्वारा नया अध्यक्ष चुनवा कर उसे कार्यभार सौंपने का ऐतिहासिक काम भी किया। परिवार के बाहर के अध्यक्ष से जिम्मेदारी ली थी और परिवार के बाहर के अध्यक्ष को ही सौंप दी। सोनिया ने बहुत आरोप सहे। खुद पार्टी के लोगों ने विदेशी मूल का सवाल उठाया और विरोधियों ने तो इसे लगातार मुद्दा बनाये रखा। चाहतीं तो 1989 में राजीव गांधी की हत्या के बाद बच्चों को लेकर इटली जा सकती थीं। 2004 में प्रधानमंत्री बन सकती थीं। इतना ही नहीं, कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी अपने पास रख सकती थीं। लेकिन सोनिया ने न केवल अपनी जिम्मेदारी समझी, बल्कि जनभावना का सम्मान किया और लोकतांत्रिक मूल्यों को बरकरार रखा। कहा जाता है कि आखिरी में हंसने का मौका सबसे भले आदमी को ही मिलता है। पहले सारे उसे सता कर हंस चुके होते हैं और वह चुप रह कर अपना काम करता रहता है। और फिर नियति उसे सबसे अंत में खुश होने का मौका देती है। साथ ही संतोष भी। सुख का भाव भी। इसलिए आज जाते-जाते सोनिया भी हंस रही होंगी। भारतीय राजनीति में सोनिया गांधी के योगदान का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राहुल सिंह।

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस 26 अक्तूबर, 2022 को एक बार फिर नेहरू-गांधी परिवार की छाया से बाहर निकल गयी। करीब 22 साल पहले अंतिम बार सीताराम केसरी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाला था और अब मल्लिकार्जुन खड़गे इस पद पर आसीन हो गये हैं। लेकिन कांग्रेस का नेहरू-गांधी परिवार की छाया से बाहर निकलने से अधिक महत्वपूर्ण इस सवाल का जवाब खोजना है कि कांग्रेस की निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी और देश की राजनीति को क्या दिया। कांग्रेस के 137 साल पुराने इतिहास में सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहनेवाली सोनिया गांधी ने खड़गे को कमान सौंप कर पार्टी की जिम्मेदारियों से मुक्ति तो पा ली, लेकिन करीब 22 साल बाद सोनिया गांधी को इतिहास और खासकर कांग्रेस का इतिहास बेहतर रूप से याद करेगा या नहीं, यह एक यक्ष प्रश्न है। उनका 25 साल का राजनीतिक सफर कांग्रेस के लिए एक स्वर्णिम युग तो रहा ही है, यह कोई नहीं झुठला सकता। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि जब सोनिया गांधी ने 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाला, तब लोकसभा में पार्टी की 26 फीसदी या कहें 141 सीटें थीं। 2009 में यह बढ़ कर 206 (38 फीसदी) हो गयीं, लेकिन जब उन्होंने पार्टी की कमान छोड़ी, तब यह संख्या 52 है, यानी सदन में कांग्रेस की उपस्थिति मात्र नौ फीसदी है। 1998 में कांग्रेस की प्रदेश विधानसभाओं में 4067 में से 1136 सीटें थीं, लेकिन 2022 में 4120 सीटों में से उसके पास केवल 785 सीटें हैं।
यह सर्वविदित है कि विदेशी मूल की महिला होने के बाद भी उन्होंने कांग्रेस को विषम परिस्थितियों में 10 साल सत्ता का सुख दिलाया और प्रधानमंत्री जैसे पद को ठुकराया। लेकिन सोनिया को इतिहास में स्वर्णिम रूप में दर्ज करवाने की जिम्मेदारी अब खड़गे के साथ राहुल गांधी पर निर्भर है। हालांकि नेहरू-गांधी परिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में विफल नहीं हुआ है। इसलिए अगर ये दोनों कांग्रेस की उम्मीदों की कसौटी पर खरे नहीं उतरे, तो सोनिया गांधी पर इन दोनों को कांग्रेस पर थोपने का एक और दोष मढ़ा जायेगा।
शायद किसी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष के रूप में सबसे अधिक समय तक रहने की वजह से ऐसा हो, क्योंकि सोनिया कांग्रेस के 137 साल के इतिहास में अभी तक सबसे अधिक समय 22 साल तक कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष रही हैं। वह राजीव के जीवित रहते कई चुनाव प्रचारों में उनके साथ एक भारतीय बहू जैसी सौम्य छवि के साथ ही दिखीं और राजीव की हत्या के बाद भी साड़ी में भारतीय परंपरा का ही निर्वहन करती नजर आयीं।
यह बात भी सभी जानते हैं कि सोनिया किसी राजनीतिक रिश्तों के तहत राजीव से विवाह कर भारत नहीं आयी थीं और न ही वह राजनीतिक घराने से थीं। पति की हत्या होने के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने की घोषणा कर दी, परंतु सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया, जिसके बाद काफी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालन-पोषण करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। लेकिन जब भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी पर संकट के बादल गहराये, जिसे उनकी सास और पति ने खून से सींचा था, तो वह एक मर्दानी की तरह राजनीति में आने को तैयार हुईं। लोग भले ही तरह-तरह की बातें करें, लेकिन यह वह दौर था, जब पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल के बाद कांग्रेस 1996 में आम चुनाव भी हार गयी थी और कांग्रेस में एक बार फिर नेहरू-गांधी परिवार के किसी सदस्य की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के दबाव में सोनिया गांधी ने 1997 में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ली और उसके 62 दिनों के अंदर 1998 में वह कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष चुनी गयीं।
राजनीति में कदम रखने के बाद उनका विदेशी मूल का होने का मुद्दा लगातार विरोधी दल उठाते रहे। उनकी भाषा को लेकर और हिंदी न बोल पाने को लेकर भी मुद्दा बनाया गया। यही नहीं, उन पर परिवारवाद का भी आरोप लगा, लेकिन समय के साथ उन्होंने हर उस बात का जवाब अपने काम से दिया, जिसे राजनीतिक लोग उनकी कमजोरी के रूप में पेश करते हुए इसे मुद्दा बना रहे थे। हालांकि इस दौरान कांग्रेसियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा और इन मुद्दों को नकारते रहे। इस दौरान सोनिया अक्टूबर 1999 में बेल्लारी, कर्नाटक से और साथ ही अपने दिवंगत पति के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ीं और लगभग तीन लाख मतों के अंतर से विजयी हुईं। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान 13वीं लोकसभा में वह विपक्ष की नेता चुनी गयीं।
सोनिया गांधी ने कांग्रेस को उस समय कठिनाई से उबारा था, जब पार्टी खंडित होने की कगार पर पहुंच गयी थी। विपरीत राजनीतिक माहौल में उन्होंने न केवल पार्टी की कमान संभाली, बल्कि 2004 के चुनाव में सबको चौंकाते हुए दो सौ से ज्यादा सीटें जीत कर भारतीय राजनीति के सीने पर कभी न मिटनेवाली लकीर खींच दी। 16 मई 2004 को सोनिया गांधी 16 दलीय गंठबंधन की नेता चुनी गयीं, जिसका वामपंथी दल सहयोग कर रहे थे और यह गठबंधन देश में सरकार बनाने जा रहा था। उस समय यह कहा जा रहा था कि इस गठबंधन की नेता सोनिया गांधी ही देश की प्रधानमंत्री बनतीं, लेकिन सोनिया गांधी ने सबको चौंकाते हुए 18 मई को डॉ मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार बताया और पार्टी को उनका समर्थन करने का अनुरोध किया। कांग्रेसियों ने इसका खूब विरोध किया और उनसे इस फैसले को बदलने का अनुरोध किया, पर सोनिया ने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था। इसके बाद सभी नेताओं ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया और वह प्रधानमंत्री बने। फिर 2009 में भी कांग्रेस सत्ता में लौटी।
जब यह बात कही जाती है कि कांग्रेस पार्टी नेहरू-गांधी परिवार की वजह से ही है, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि इसमें सोनिया का योगदान कुछ कम नहीं है। पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान जिस तरह कांग्रेस में बिखराव की स्थिति बनी और कांग्रेस के नेताओं ने कांग्रेस को अपने-अपने नाम से चलाने की कोशिश के दौरान मूल पार्टी से हट कर अपनी ही कांग्रेस बना ली, यह किसी से छुपा नहीं है। फिर चाहे तिवारी कांग्रेस की बात हो या फिर एनसीपी की। सभी नेताओं को एक छत के नीचे लाने में और 2004 से 2014 तक कांग्रेस को सत्ता सुख दिलाने में सोनिया ने जो योगदान दिया और एक नयी दिशा दी, वह भुलाने लायक नहीं है।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के शासन काल में सोनिया गांधी ने देश को कई नायाब तोहफे दिये। उन्होंने 2005 में सूचना का अधिकार कानून, मनरेगा, कैशलेस बेनिफिट और आधार पर सरकार का साथ दिया और इसको लागू करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। सोनिया ने एनजीओ सेक्टर को भी खूब बढ़ावा दिया। उन्होंने कांग्रेस पार्टी के नेताओं, जिन्होंने बड़ी-बड़ी गलतियां की थीं, उन्हें हटाया नहीं, बल्कि उन पर विश्वास किया, जिसका कई बार उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा। इन नेताओं की वजह से उन्हें नीचा दिखना पड़ा। फिर चाहे उन नेताओं में गुजरात से आने वाले अहमद पटेल हों या फिर कांग्रेस की वरिष्ठ नेता अंबिका सोनी, दिग्विजय सिंह, शीला दीक्षित।
इटली के आॅरवैसेनो से भारत के दिल्ली तक के सफर में सोनिया ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया है, जो एक भारतीय पत्नी भी हैं और भारतीय मां भी। फिर भी वह विदेशी महिला हैं। 71 बसंत पार कर चुकीं सोनिया ने अपने 48 साल भारत के लिए दिये हैं। अपने 71 साल के जीवन में कई उतार-चढ़ावों को पार करने वाली सोनिया को राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कुछ भी कहें, लेकिन उन्हें भारतीय विदुषी कहना अतिशयोक्ति न होगी।

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