-पांच संसदीय और विधानसभा की 28 सीटों को जीतने का मिला है टास्क
-पार्टी ने फ्री हैंड दे दिया है, तो अब सामने खड़ी है साबित करने की चुनौती
-20 नवंबर के बाद ही अपने असली रंग में दिखेंगे झारखंड भाजपा अध्यक्ष
भाजपा ने वर्ष 2019 में मुट्ठी की रेत की तरह हाथ से फिसल गयी झारखंड की सत्ता को वापस हासिल करने के लिए आदिवासी कार्ड को अपना प्रमुख हथियार बना लिया है। हेमंत सोरेन की अगुवाई वाले झामुमो-कांग्रेस-राजद के गठबंधन से मुकाबले के लिए पार्टी ने बाबूलाल मरांडी को झारखंड में अपना चेहरा बना कर यह संकेत पहले दे दिया था और अब पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा द्वारा 28 अक्टूबर को रांची में ली गयी लाइन से साफ हो गया है कि भाजपा के इस खेल के कप्तान केवल और केवल बाबूलाल मरांडी हैं। पार्टी ने उनके कंधे पर आदिवासियों के लिए सुरक्षित झारखंड की 14 में से पांच संसदीय सीटों और 81 में से 28 विधानसभा सीटों को जीतने की बड़ी जिम्मेवारी डाल दी है। लोकसभा की पांच में से तीन सीटें तो 2019 में भाजपा ने जीती थीं, लेकिन विधानसभा चुनाव में आदिवासी उससे पूरी तरह बिदक गये थे। भाजपा उस स्थिति को बदलना चाहती है। इसलिए उसने मरांडी को कमान सौंपी है। भाजपा के लिए झारखंड इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस राज्य को देश भर के आदिवासियों का प्रतिनिधि प्रदेश माना जाता है। यहां के आदिवासी ही देश के बाकी हिस्सों में रहनेवाले आदिवासियों के लिए नैरेटिव सेट करते हैं और भाजपा इसी नैरेटिव को अपने पक्ष में करने की कोशिश में जुटी हुई है। इसलिए कहा जा सकता है कि झारखंड की आदिवासी सीटों पर बाबूलाल मरांडी का लिटमस टेस्ट होगा, जिसकी कवायद में वह 20 नवंबर के बाद जुटेंगे। पार्टी द्वारा सौंपे गये इस टास्क में सफल होने के लिए क्या हो सकती है बाबूलाल मरांडी की रणनीति और आदिवासियों को दोबारा अपने पाले में करने में कितनी सफल हो सकेगी भाजपा, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड भाजपा द्वारा फरवरी 2020 में धुर्वा के प्रभात तारा मैदान में आयोजित रैली के बाद 28 अक्टूबर 2023 को हरमू मैदान में आयोजित रैली के बीच दामोदर और स्वर्णरेखा नदी में बहुत पानी बह चुका है। लेकिन इन दोनों रैलियों में एक बड़ी समानता है, जिसे इन करीब चार साल का अंतराल भी धुंधला नहीं कर सकी। यह समानता है कि दोनों रैलियों के केंद्र में एक ही व्यक्ति था और वह थे बाबूलाल मरांडी। इस समानता के बावजूद इन दोनों रैलियों में बड़ा अंतर यह था कि 2020 की रैली में बाबूलाल मरांडी उस भाजपा में शामिल हो रहे थे, जो दो महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में पराजित होकर राज्य की सत्ता से बाहर हो चुकी थी, जबकि 2023 की रैली में बाबूलाल मरांडी उसी भाजपा की कमान संभाल कर उसे दोबारा सत्ता शिखर तक पहुंचाने के लिए हुंकार भर रहे थे।
लेकिन इन दोनों रैलियों के बीच एक बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि भाजपा आलाकमान ने बाबूलाल मरांडी को उस चुनौती की भट्ठी में झोंक दिया है, जिससे बाहर निकलना झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रह चुके इस राजनेता के लिए एकदम आसान नहीं है। इसके कई कारण हैं।
संगठन में जोश और उत्साह की कमी
बाबूलाल मरांडी को एक ऐसे संगठन की कमान मिली है, जिसका आकार किसी भी दूसरे राजनीतिक संगठन से बहुत बड़ा है। उसके पास संसाधनों की भी कोई कमी नहीं है, लेकिन सबसे बड़ी समस्या संगठन के भीतर के उत्साह और जज्बे को लेकर है। भाजपा के संगठन को सत्ता सुख का वह घुन लग गया है, जिससे वह अब तक बचती आयी थी। 2014 के चुनाव में जीत हासिल कर पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद से पार्टी संगठन में एक ठहराव सा आ गया। उसका मुख्य कारण यह था कि केंद्र और राज्य में डबल इंजन की सरकार होने के कारण भाजपा कार्यकर्ताओं को किसी जन मुद्दे को लेकर आंदोलन करने का मौका नहीं मिला। पार्टी की तरफ से भी उन पांच वर्षों में कोई बड़ा कार्यक्रम आयोजित नहीं हुआ। प्रधानमंत्री का कार्यक्रम हुआ भी, तो वह सरकारी ज्यादा था। प्रधानमंत्री तीन बड़े कार्यक्रम में झारखंड आये थे। चूंकि यह पार्टी की रैली नहीं थी, इसलिए वहां मुख्य भीड़ सरकारी सेविका, सहायिका, आंगनबाड़ी की दीदी और अन्य सरकारी सेवकों की थीं। उन्हीं को प्रशासन के लोग अपने साधन से लाये थे। थोड़े बहुत अन्य लोग वहां पहुंचे थे। यहां तक कि राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर भी पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ लाने का कोई स्कोप नहीं था। यहां भी सरकारी सेवक ही ढोकर लाये जाते थे, क्योंकि योजनाएं भी उन्हीं के लिए घोषित होती थीं। केंद्र और राज्य की सत्ता में होने के कारण पार्टी कार्यकर्ताओं के भीतर संघर्ष का माद्दा मुरझाने लगा। पांच साल तक पार्टी संगठन सत्ता की राजनीति करती रही। नेताओं और कार्यकर्ता सत्ता के मोहरे बन गये और आम जनता से उनका लगाव खत्म होने लगा। पार्टी के नेता सत्ता की राजनीति में इस कदर डूब गये कि उन्हें इसका आभास तक नहीं हुआ। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 11 सीटें जीत लीं, तो उन्हें लगा कि उनके लिए यही राजनीति ठीक है, लेकिन उन्हें हकीकत का एहसास तब हुआ, जब उसी साल के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी बुरी तरह पराजित हो गयी। तब पार्टी नेतृत्व को इस बात का एहसास हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तैयार की गयी जिस जमीन को वह अपना समझ रहे थे, वह उनका भ्रम था। अब जब झारखंड भाजपा का कोई भी नेता या कार्यकर्ता उस दौर को देखता है, तो उसे इस भूल का एहसास होता है। बाबूलाल मरांडी के सामने पहली चुनौती पार्टी के भीतर संघर्ष और आंदोलन की उस धार को दोबारा सामने लाने की है। उन कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की है, जो अब आंदोलन के दरम्यान पुलिस की लाठी खाने को तैयार नहीं हैं। 14 साल तक भाजपा से अलग होने और फिर पार्टी में वापसी को सामान्य राजनीतिक घटना बनाने के लिए बाबूलाल मरांडी ने कई काम तो कर लिये हैं, लेकिन अब उनके सामने भाजपा को 2014 से पहले की स्थिति में लाने की चुनौती है। बता दें कि 2014 से पहले भाजपा कार्यकर्ता आंदोलन के लिए जाने जाते थे। जनमुद्दों की आवाज उठाने के लिए जाने जाते थे। पुलिस की लाठी खाने के लिए जाने जाते थे। भाजपा के सत्ता में आते ही कार्यकर्ता आरामतलबी बन गये। उन्होंने अपने कद को इतना बड़ा कर लिया कि कोई कार्यकर्ता कहलाने के लिए राजी ही नहीं था। सभी भाजपा के वरीय नेता बन गये। एक जमाना था, जब भाजपा के लोग अपने को कार्यकर्ता कह कर पुकारने पर गौरवान्वित महसूस करते थे, लेकिन आज की तारीख में अगर आप किसी कार्यकर्ता को कार्यकर्ता या समर्थक बोल दें, तो वह अंदर ही अंदर आपको ताड़ लेगा। नाक-भौंह सिकोड़ लेगा।
20 नवंबर के बाद बनायेंगे टीम
भाजपा आलाकमान द्वारा बाबूलाल मरांडी को राज्य में भाजपा की आदिवासी लीडरशिप का चेहरा बनाये जाने के बाद अब उनके सामने अपनी टीम बनाने का चैलेंज है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि यह काम वह 20 नवंबर के बाद ही करेंगे, क्योंकि अभी वह पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में प्रचार में व्यस्त हैं। मरांडी को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के आदिवासी इलाकों में प्रचार का बड़ा चेहरा बनाया गया है। पांच दिन वह छत्तीसगढ़, तीन दिन मध्यप्रदेश और दो दिन तेलंगाना में सभा करेंगे। इसका कारण यह है कि भाजपा झारखंड को देश भर के आदिवासियों का प्रतिनिधि राज्य मानती है। यह बात कुछ हद तक सही भी है। ऐसा माना जाता है कि झारखंड के आदिवासियों का राजनीतिक रुझान ही देश के दूसरे हिस्सों के आदिवासियों का रुझान तय करता है। ऐसे में झारखंड और यहां के आदिवासी नेता भाजपा के लिए कितने महत्वपूर्ण हो जाते हैं, यह आसानी से समझा जा सकता है। भाजपा के अन्य नेताओं को भी पड़ोसी राज्यों में प्रचार का जिम्मा मिला है।
एक बार प्रचार संपन्न होने के बाद मरांडी अपनी टीम बनायेंगे, जिसमें बहुत बड़े बदलाव की संभावना नहीं है, क्योंकि अगले छह महीने में चुनाव होने हैं। ऐसे में टीम में बड़ा फेरबदल कर मरांडी बड़ा रिस्क नहीं लेंगे। जहां जरूरी होगा, वहीं संगठन में बदलाव होगा। एक बार टीम बन जायेगी, तो फिर वह राज्य की आदिवासी सीटों पर फोकस करेंगे। इसके लिए तैयारियां अभी से ही शुरू कर दी गयी हैं। इसका दूसरा लाभ यह होगा कि तब तक, यानी 3 दिसंबर को राज्य विधानसभा चुनाव के परिणाम भी आ जायेंगे।
चुनौती आसान नहीं है मरांडी के लिए
इन तमाम परिस्थितियों में साफ पता चलता है कि बाबूलाल मरांडी के लिए चुनौती आसान नहीं है। हालांकि उनकी नेतृत्व क्षमता और जनता के बीच स्वीकार्यता को लेकर किसी को कोई संदेह नहीं है, लेकिन इस बार रास्ता उतना आसान नहीं है। इसकी एक वजह यह है कि इस बार उनके पास सत्ता की ताकत नहीं है। मरांडी की सबसे ज्यादा चिंता खूंटी, लोहरदगा, दुमका सीट को लेकर है। जहां तक चाईबासा सीट का सवाल है, तो भाजपा भी यह अच्छी तरह जानती है कि गीता कोड़ा के बगैर वहां उसकी दाल नहीं गलनेवाली। अब यह समय बतायेगा कि कोड़ा दंपत्ति क्या निर्णय लेता है। लोहरदगा सीट पर भाजपा इसलिए चिंतित है कि वहां के सांसद की तसवीर जेंटलमैन की बन गयी है। जबकि दूसरी तरफ वहां से कांग्रेस सुदखदेव भगत या बंधु तिर्की में से किसी एक को चुनाव लड़ाना चाहेगी, जिनका राजनीतिक तेवर काफी आक्रामक है। भाजपा यह अच्छी तरह जानती है कि कांटा कांटा से ही निकलेगा, गुलाम के फूल से नहीं। हेमलाल मुर्मू की झामुमो में वापसी के बाद भाजपा के लिए राजमहल सीट से उम्मीदवार ढूंढ़ना भी आसान नहीं है। कुल मिला कर इन चिंताओं का हल निकालने के लिए दिसंबर महीने से भाजपा फुल फ्लेज में अपनी राजनीतिक ताकत झोंकेगी। जोड़-तोड़, पाला बदल और घर वापसी की मुहिम छेड़ी जायेगी।