विशेष
हर दल में संभावित बगावत को लेकर बन रही अलग से रणनीति
पिछली बार करीब दर्जन भर सीटों पर बागियों ने बिगाड़ा था खेल
इस बार बागियों की संख्या बढ़ी, तो रोमांचक हो जायेगा मुकाबला

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। अगले सप्ताह विधानसभा चुनाव की घोषणा की संभावना है और नवंबर मध्य तक विधानसभा चुनाव कराये जा सकते हैं। चुनाव आयोग की तैयारियां चरम पर हैं और राजनीतिक दल भी सीट बंटवारे और उम्मीदवार चयन को लेकर गहरी गहमा-गहमी में हैं। लेकिन सबसे बड़ी चिंता अब बागी उम्मीदवारों की है। यदि ये नेता मैदान में उतर गये, तो चुनावी खेल में भारी उलटफेर हो सकता है। पिछले चुनावों की तरह इस बार भी कुछ सीटों पर बागियों की वजह से नतीजे प्रभावित हो सकते हैं। 2020 में कई सीटों पर निर्दलीय और बागी उम्मीदवारों ने जीत-हार का समीकरण पलट दिया था। कुछ सीटों पर बागियों ने 40 से 50 हजार तक वोट जुटाकर चुनावी खेल को अंतिम क्षण तक उलझा दिया। राजनीतिक दलों में टिकट चयन में पारदर्शिता की कमी बागी होने का सबसे बड़ा कारण मानी जाती है। जो कार्यकर्ता सालों से मेहनत करते हैं, उन्हें टिकट देने के वक्त नजरअंदाज किया जाता है। इसके अलावा धनबल और बाहरी दबाव भी टिकट बंटवारे में भूमिका निभाते हैं। कई पुराने नेता इसी उम्मीद में दूसरे दलों में शामिल होते हैं कि उन्हें टिकट मिलेगा। जब ऐसा नहीं होता, तो वे बागवत कर मैदान में उतर जाते हैं। बाहरी नेताओं को टिकट मिल जाने पर भी कई पुराने नेता बगावत पर उतर आते हैं। बिहार की राजनीति में बागियों की भूमिका निश्चित रूप से अहम है। 2025 में भी दो-दो ढाई दर्जन सीटों पर बागियों का खेल देखने को मिल सकता है। 2020 के अनुभव से यह स्पष्ट है कि बागियों की वजह से कुछ सीटों पर जीत-हार का अंतर बेहद मामूली रहा। इस बार भी वही स्थिति बन सकती है। राजनीतिक दल जिताऊ उम्मीदवार पर दांव लगाना चाहते हैं, लेकिन दावेदारों की संख्या अधिक है। ऐसे में टिकट वितरण के बाद ही स्पष्ट होगा कि कितने नेता बागी बनकर चुनावी खेल में उलटफेर करेंगे। बिहार में क्या रही है बागी उम्मीदवारों की स्थिति और इनके कारण राजनीतिक दलों की क्या हैं चिंताएं, बता रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।

बिहार विधानसभा चुनाव अब दरवाजे पर आ गया है। अगले सप्ताह चुनाव की घोषणा की संभावना है और नवंबर में चुनाव कराये जा सकते हैं। चुनाव के लिए एक तरफ चुनाव आयोग की तैयारी चल रही है, दूसरी तरफ सीट बंटवारे और उम्मीदवारों के चयन को लेकर भी गहमा-गहमी बढ़ी हुई है। गठबंधन और दलों को इस बात की भी चिंता है कि टिकट नहीं मिलने पर पार्टी का नेता बागी न हो जाये। अगर ऐसा हुआ तो समीकरण बिगड़ सकता है।

पिछले चुनाव में बागियों ने बिगाड़ा था खेल
2020 में कई बागियों ने कई सीटों पर खेल बिगाड़ा था। इस बार कई सीटों पर पेंच है। राजनीतिक दल जिताऊ उम्मीदवार पर दांव लगाना चाहते हैं लेकिन कई दावेदार पहले से मौजूद हैं। ऐसे में जिन नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा, उनमें से कई निर्दलीय या फिर किसी अन्य पार्टी से टिकट लेकर मैदान में उतर जाते हैं। इस बार भी दो से ढाई दर्जन सीटों पर ऐसी स्थिति बनती नजर आ रही है।

11 सीटों पर एक हजार से कम वोटों का अंतर था
2020 में विधानसभा की 11 सीटों पर एक हजार से कम वोटों के अंतर से जीत-हार का फैसला हुआ था। इनमें से कई सीटों पर निर्दलीय और बागियों ने बड़ी भूमिका निभायी थी। कई सीटों पर बागियों ने 40 से 50 हजार तक वोट लाकर 2020 विधानसभा चुनाव में बड़ा उलटफेर किया था।

इन सीटों पर बागियों ने बिगाड़ा था खेल
मीनापुर से 2015 में भाजपा उम्मीदवार रहे अजय कुमार पार्टी से टिकट नहीं मिलने पर 2020 में लोजपा के टिकट पर मैदान में उतरे थे। उन्होंने 43 हजार से अधिक वोट प्राप्त किया, जबकि उस सीट पर जदयू उम्मीदवार को राजद प्रत्याशी ने 16 हजार वोटों से हरा दिया। इसी तरह लौकहा से 2015 में भाजपा के टिकट पर लड़े प्रमोद कुमार प्रियदर्शी भाजपा से टिकट नहीं मिलने पर 2020 में लोजपा के टिकट से उतर गये। उन्होंने 30 हजार वोट प्राप्त किया। यहां जदयू उम्मीदवार को राजद प्रत्याशी के हाथों 10 हजार वोटों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा। वहीं, रजौली सुरक्षित सीट से 2015 में भाजपा से चुनाव लड़े अर्जुन राम टिकट नहीं मिलने पर 2020 में निर्दलीय उतर कर 14400 वोट ले आये। यहां पर भाजपा 12 हजार वोटों से राजद से हार गयी। पूर्णिया के कसबा में भाजपा से 2010 और 2015 में लड़े प्रदीप कुमार दास 2020 में लोजपा से चुनाव लड़े और 60 हजार वोट ले आये। यहां हम के उम्मीदवार तीसरे स्थान पर चला गया। सिकटा विधानसभा क्षेत्र से 2015 में भाजपा से चुनाव लड़े दिलीप वर्मा 2020 में टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय चुनाव लड़े और दूसरे स्थान पर रहे, जबकि यहां जदयू का उम्मीदवार तीसरे स्थान पर चला गया। बैकुंठपुर से 2015 में जदयू से मंजीत सिंह चुनाव लड़े थे। 2020 में यह सीट भाजपा के पास चली गयी। मंजीत सिंह निर्दलीय चुनाव लड़े और 43 हजार से अधिक वोट ले आये। इस वजह से भाजपा के उम्मीदवार 11 हजार वोट से हार गये। महाराजगंज से भाजपा के टिकट पर देवरंजन सिंह 2015 में चुनाव लड़े थे। टिकट नहीं मिलने पर 2020 में लोजपा के टिकट से उतरे और 18 हजार वोट ले आये। जदयू उम्मीदवार 12 हजार वोट से चुनाव हार गया। एकमा से जदयू के मनोरंजन सिंह उर्फ धूमल सिंह 2015 में चुनाव लड़े थे। टिकट नहीं मिलने पर 2020 में उनकी पत्नी सीता देवी निर्दलीय चुनाव लड़ीं। वहीं 2015 में एकमा में भाजपा उम्मीदवार रहे कामेश्वर सिंह 2020 में लोजपा से चुनाव लड़े और 30 हजार वोट लाये। सीता देवी यहां 13 हजार वोटों से चुनाव हार गयीं।

इस बार इन सीटों पर है बगावत की आशंका
पटना जिले की बाढ़ विधानसभा सीट से भाजपा के ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू विधायक हैं। पिछले दिनों अपने बयानों को लेकर चर्चा में रहे हैं। पार्टी नेतृत्व के खिलाफ भी बयान दे चुके हैं, तो वहीं जेडीयू के संजय सिंह ने भी बयान दिया था कि हम भी बाढ़ से तैयारी कर रहे हैं। हालांकि उसके बाद उनका बयान नहीं आया। इसके अलावा करणवीर सिंह यादव उर्फ लल्लू मुखिया भी दावेदारों की सूची में है। यदि उन्हें पार्टी से टिकट नहीं मिला, तो वह निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। इसी तरह गायघाट सीट पर पिछली बार जदयू एमएलसी दिनेश सिंह की बेटी कोमल सिंह लोजपा के टिकट पर चुनाव लड़ीं थीं। लोजपा की ओर से इस सीट पर दावेदारी हो रही है, जबकि गायघाट सीट पर पूर्व विधायक महेश्वर प्रसाद यादव के बेटे भी दावेदारी ठोक रहे हैं। उनका दावा है कि सीट जदयू की रही है। पिछले दिनों एनडीए के कार्यक्रम में दोनों के बीच विवाद भी हुआ था। चकाई से निर्दलीय सुमित सिंह 2020 में चुनाव जीते थे। बाद में उन्होंने जदयू का समर्थन कर दिया और सरकार में मंत्री भी बनाए गये। वह विज्ञान तकनीकी मंत्री हैं, लेकिन जदयू के टिकट पर संजय प्रसाद वहां से चुनाव लड़े थे। लोजपा ने भी उम्मीदवार दिया था और उसके कारण संजय प्रसाद की हार हो गयी। सुमित सिंह इस बार जदयू के टिकट पर वहां से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं, जबकि संजय को भी भरोसा है कि ललन सिंह टिकट कटने नहीं देंगे। ऐसे में यहां भी बगावत तय है।
इसके अलावा एक दर्जन से अधिक सीट ऐसी है, जिन पर एक से अधिक दावेदार हैं। यदि टिकट कटा, तो किसी न किसी का बागी चुनाव लड़ना तय है। डुमरांव, करहगर, आरा, महुआ और दानापुर सीट पर भी कई दावेदार हैं। पटना में कुम्हरार और दीघा विधानसभा सीट पर भी कई दावेदार हैं। सीट बंटवारे और उम्मीदवारों की घोषणा के बाद ही यह स्थिति स्पष्ट हो पायेगी कि कुल कितने बागी इस बार विधानसभा चुनाव में नजर आयेंगे।

बागावत के पीछे की वजह
बगावत के कारणों की बात करें, तो पार्टियों में टिकट चयन में पारदर्शिता नहीं बरती जाती है। जो कार्यकर्ता सालों से काम करते हैं, टिकट देने के वक्त पार्टी में उनकी उपेक्षा करती है। इसके अलावा धनबल का भी टिकट बंटवारे में बड़ा योगदान होता है। पार्टियों पर टिकट बेचने का आरोप भी लगता है। छोटी पार्टियों पर तो यह सबसे ज्यादा आरोप लगता है। इसलिए टिकट नहीं मिलने पर कई पुराने नेता बागवत कर मैदान में आ जाते हैं। इसके अलावा कई नेता इसी उम्मीद से दूसरे दलों में शामिल होते हैं कि उन्हें टिकट मिलेगा, लेकिन जब ऐसा नहीं होता है, तो वे बागी हो जाते हैं। इसी तरह कई बार जब बाहर से आये नेता को टिकट मिल जाता है, तो दूसरे नेता बगावत पर उतर आते हैं। पिछले चुनावों में भी बागी उम्मीदवार उतरते रहे हैं, इस बार भी ऐसा होता दिख रहा है।

पिछले तीन चुनावों के आंकड़े
बिहार में पिछले तीन विधानसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें, तो 2010, 2015 और 2020 में हुए चुनाव में भाजपा के केवल 34 उम्मीदवार ही तीनों चुनाव लड़े थे, जबकि जदयू के 26 उम्मीदवार तीनों चुनाव लड़े थे। यदि दोनों दलों के तीन चुनाव में लड़े सीटों को देखें, तो भाजपा 2010 में 102 , 2015 में 157 और 2020 में 110 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जबकि जदयू 2010 में 141, 2015 में 101 और 2010 में 115 सीटों पर चुनाव लड़ा। वहीं राष्ट्रीय जनता दल से केवल 12 उम्मीदवार ही ऐसे हैं, जो तीनों चुनाव लड़े हैं और कांग्रेस से केवल सात उम्मीदवार तीनों चुनाव लड़े हैं। राजद ने 2010 में 168 , 2015 में 101 और 2020 में 144 सीटों पर तीनों चुनाव लड़ा था।

बागियों के कारण लगा था झटका
2020 विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के 29 प्रत्याशी तीसरे नंबर पर रहे थे और इसका बड़ा कारण बागी और निर्दलीय उम्मीदवार ही थे। एनडीए के 19, तो महागठबंधन के 10 उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहे थे। तीसरे स्थान पर एनडीए के रहने वाले प्रमुख उम्मीदवारों में सिकटा से खुर्शीद फिरोज अहमद, रघुनाथपुर से राजेश्वर चौहान, मांझी से माधवी कुमारी, नवादा से कौशल यादव, चकाई से संजय प्रसाद, दिनारा से जयकुमार सिंह, रामगढ़ से अशोक कुमार सिंह, तरारी से कौशल विद्यार्थी थे। वहीं, महागठबंधन के प्रमुख उम्मीदवारों में गोपालगंज से आसिफ गफूर, अमौर से अब्दुल जलील मस्तान, मटिहानी से राजेंद्र प्रसाद सिंह, बायसी से अब्दुल सुब्बान शामिल थे।

टिकट कटने पर निर्दलीय लड़ते हैं चुनाव
बिहार में 70 से 80 की उम्र वाले 31 विधायक हैं। इस बार इनमें से कई विधायकों का टिकट कट सकता है। कई नेताओं ने बागी तेवर अपनाया था, उनमें से कई का टिकट कटना तय माना जा रहा है। यदि टिकट कटा, तो उनमें से कई बागी तेवर अपनायेंगे। वे निर्दलीय की भूमिका में नजर आ सकते हैं। वैसे पिछले दो-तीन विधानसभा चुनावों से निर्दलीय का प्रदर्शन बहुत बेहतर नहीं रहा है। 2010 में 1342 निर्दलीय चुनाव लड़े थे, जिसमें से केवल छह जीत पाये थे और 1324 की जमानत जब्त हो गयी थी। 2015 में 1150 निर्दलीय चुनाव लड़े थे। इसमें से केवल चार जीत पाये और 1132 की जमानत जब्त हो गयी। 2020 में 1299 निर्दलीय चुनाव लड़े थे और केवल एक की जीत हुई थी। 1284 की जमानत जब्त हो गयी। निर्दलीय भले ही चुनाव न जीतें, लेकिन कई के चुनाव हारने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। निर्दलीय के साथ बागी छोटे दलों से भी टिकट लेकर एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों की मुश्किलें बढ़ा सकते हैं।

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