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देश के लिए बेहद चिंताजनक है कफ सिरप कांड, नन्हीं जानों से खेलने का हक किसने दिया
इन मौतों की नैतिक जिम्मेदारी केवल दोषी कंपनियों पर नहीं, पूरे तंत्र पर है, जिसने नैतिकता की आंखें मूंद लीं
मानवता विरोधी अपराध के लिए दोषियों को कठोरतम दंड देने की जरूरत

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
मध्य प्रदेश और राजस्थान में बच्चों की मौतों की जो खबरें आयीं, उन्होंने पूरे देश की नींद उड़ा दी है। महज खांसी-जुकाम जैसी सामान्य बीमारी के लिए दी जाने वाली खांसी की दवा बच्चों के जीवन पर इतनी घातक साबित होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की गयी थी। पिछले एक महीने में इन दोनों राज्यों में दो दर्जन बच्चों की मौत ने चिकित्सा व्यवस्था, दवा नियमन और प्रशासनिक सतर्कता, तीनों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। जहरीले कफ सिरप की यह घटना नयी नहीं है। इससे पहले 2019 में जम्मू और 2022-23 में गांबिया और उज्बेकिस्तान जैसे देशों में भारतीय दवाओं को लेकर वैश्विक स्तर पर विवाद खड़ा हुआ था। दवाओं के उत्पादन में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है। करीब दो सौ देशों में यहां से दवाएं निर्यात होती हैं और जेनेरिक दवाएं सबसे ज्यादा यहीं बनती हैं। इन उपलब्धियों के बीच इन दो प्रमुख राज्यों में कफ सिरप की वजह से बच्चों की मौत शर्मनाक एवं त्रासदीपूर्ण है। भारत दुनिया का फार्मेसी हब कहलाता है, लेकिन समय-समय पर घटिया दवाओं के मामले हमारी छवि को धूमिल करते हैं। सवाल यह है कि जब दवा कंपनियों के खिलाफ पहले से संदिग्ध रिपोर्ट थीं, तो उन्हें सरकारी योजनाओं में शामिल क्यों किया गया? साथ ही विशेषज्ञ लगातार कहते आये हैं कि दो साल से छोटे बच्चों को खांसी-जुकाम की दवाएं नहीं दी जानी चाहिए, लेकिन ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में अक्सर बिना उचित परामर्श के इन्हें दिया जाता है। यही लापरवाही जानलेवा बनती है। क्या है जहरीले कफ सिरप का पूरा मामला और नकली दवाओं का पूरा रैकेट, बता रहे हैं आजाद सिपाही के संपादक राकेश सिंह।

दो राज्यों राजस्थान और मध्यप्रदेश में कफ सिरप से जुड़ी बच्चों की मौत की घटनाएं देश की दवा नियामक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं। यह केवल एक चिकित्सा त्रुटि या आकस्मिक दुर्घटना नहीं, बल्कि उस तंत्र की विफलता का प्रतीक है, जिस पर जनता अपने जीवन की रक्षा के लिए भरोसा करती है। दवा जैसी जीवनदायी वस्तु में भी जब लालच, लापरवाही या भ्रष्टाचार घुसपैठ कर जाते हैं, तो वह अमृत भी विष बन जाता है। बच्चों की मासूम जानें जब घटिया या मिलावटी दवा के कारण चली जाती हैं, तो यह केवल परिवारों की नहीं, बल्कि पूरे समाज की नैतिकता एवं विश्वास की मृत्यु होती है। कफ सिरप में पाये गये विषैले तत्व-जैसे डाइएथिलीन ग्लाइकॉल या एथिलीन ग्लाइकॉल, पहले भी कई देशों में सैकड़ों बच्चों की जान ले चुके हैं। फिर भी बार-बार ऐसे हादसे होना इस बात का प्रमाण है कि भारत की दवा नियामक व्यवस्था में संरचनात्मक खामियां बनी हुई हैं। सवाल है कि पिछली गलतियों से क्या सीखा गया? भारत में बने कफ सिरप पहले भी सवालों में आ चुके हैं। 2022 में गांबिया में कई बच्चों की मौत के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक भारतीय कंपनी के कफ सिरप को लेकर चेतावनी जारी की थी। इसके बाद भी कई और जगहों से इसी तरह की शिकायत आयी।

देश की प्रतिष्ठा को धक्का लगा
दवाओं के उत्पादन में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है। करीब दो सौ देशों में यहां से दवाएं निर्यात होती हैं और जेनेरिक दवाएं सबसे ज्यादा यहीं बनती हैं। इन उपलब्धियों के बीच इन दो प्रमुख राज्यों में कफ सिरप की वजह से बच्चों की मौत शर्मनाक एवं त्रासदीपूर्ण है। इससे स्पष्ट है कि दवा के क्षेत्र में जिस तरह की निगरानी, मानक और सुरक्षा उपायों की जरूरत है, उसमें कोताही बरती जा रही है। दवा के रूप में जहर धड़ल्ले से मासूमों की मौत का कारण बन रहा है।

अधिक लाभ की लालच में गलत काम
इस घटना के सामने आने के बाद कार्रवाई का दौर भले ही जारी है, दवाएं वापस ली गयी हैं, केस दर्ज हुआ है और नेशनल रेगुलेटरी अथॉरिटी ने कई राज्यों में जांच की है। इन घटनाओं से साफ है कि दवा निर्माण की प्रक्रिया में कच्चे माल के स्रोत से लेकर तैयार उत्पाद की गुणवत्ता जांच तक हर स्तर पर लापरवाही व्याप्त है। कई कंपनियां लागत घटाने के लिए औद्योगिक ग्रेड के सॉल्वेंट या रसायनों का प्रयोग कर लेती हैं, जो मानव उपभोग के लिए निषिद्ध होते हैं।

निरीक्षण और परीक्षण की कमजोर व्यवस्था
वहीं निरीक्षण और परीक्षण की सरकारी व्यवस्था न केवल कमजोर है, बल्कि अक्सर प्रभावशाली कंपनियों के दबाव में निष्क्रिय भी हो जाती है। राज्य और केंद्र स्तर के दवा-नियामक विभागों में पर्याप्त संसाधन और तकनीकी क्षमता का अभाव है, जिससे समय पर निगरानी और सैंपल परीक्षण संभव नहीं हो पाता। जब निरीक्षण औपचारिकता बन जाये और रिपोर्ट खरीद-फरोख्त की वस्तु बन जायें, तब ऐसी त्रासदियां स्वाभाविक हैं। तमिलनाडु की दवा कंपनी श्रीसन फार्मास्युटिकल्स के कोल्ड्रिफ कफ सिरप के नमूने में 48.6 प्रतिशत डाइ एथिलीन ग्लाइकॉल मिला है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार इसकी मात्रा 0.10 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। यह एक खतरनाक औद्योगिक रसायन है, जिसका इस्तेमाल गाड़ियों और मशीनों में होता है। इसकी वजह से पीड़ित बच्चों की किडनी फेल हो गयी।

मात्रा नहीं, गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा
इन घटनाओं ने न केवल स्वास्थ्य प्रशासन की विश्वसनीयता को चोट पहुंचायी है, बल्कि भारत की वैश्विक छवि पर भी धब्बा लगाया है। पिछले वर्षों में अफ्रीकी देशों में भी भारतीय सिरप से हुई मौतों के बाद कई देशों ने हमारे फार्मा उत्पादों पर प्रतिबंध लगाया था। अब घरेलू स्तर पर घटित ऐसी घटनाएं यह दर्शाती हैं कि हमने उन हादसों से कोई सबक नहीं लिया। दुनिया के सबसे बड़े जेनेरिक दवा उत्पादक देश के रूप में भारत को यह मानना होगा कि केवल उत्पादन की मात्रा नहीं, बल्कि गुणवत्ता ही हमारी असली ताकत होनी चाहिए।

व्यवस्था दोषी है इस संकट के लिए
इस संकट का सबसे पीड़ादायक पहलू यह है कि इसका शिकार वे मासूम बच्चे बने, जिनकी प्रतिरोधक क्षमता अभी विकसित नहीं हुई थी और जिनकी जीवन रक्षा का उत्तरदायित्व समाज और राज्य पर है। इन मौतों की नैतिक जिम्मेदारी केवल दोषी कंपनियों पर नहीं, बल्कि उस पूरे तंत्र पर है, जिसने नियमन और नैतिकता की आंखें मूंद लीं। दवाओं में मिलावट या गलत प्रमाणपत्र देना कोई साधारण अपराध नहीं, बल्कि मानवता के खिलाफ किया गया घोर अपराध है। इस पर कड़े से कड़ा दंड होना चाहिए, ताकि भविष्य में कोई भी निर्माता या अधिकारी ऐसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचे।

दवाओं की गुणवत्ता की सख्त निगरानी
भारत के औषधि बाजार का आकार लगभग 60 अरब डॉलर है। इसका बड़ा हिस्सा छोटी कंपनियों के पास है। सीडीएसीओ ने इस साल अप्रैल की अपनी रिपोर्ट में बताया था कि ज्यादातर छोटी और मंझोली कंपनियों की दवाएं जांच में तयशुदा मानक से कमतर पायी गयीं। इस जांच में 68 प्रतिशत एमएसएमइ फेल हो गयी थीं। इससे पहले जब केंद्रीय एजेंसी ने 2023 में जांच की, तब भी 65 प्रतिशत कंपनियों की दवाएं सब-स्टैंडर्ड मिली थीं। प्रश्न है कि यह तथ्य सामने आने के बाद आखिर सरकार क्या सोच कर इन दवाओं को बाजार में विक्रय जारी रहने दिया? क्यों ऐसे हादसे होने दिये जाते रहे? यह आवश्यक है कि दवा उद्योग में कच्चे माल की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाये, हर बैच की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हो और दवाओं के मानक अंतरराष्ट्रीय स्तर के हों। केंद्र और राज्य सरकारों को ड्रग इंस्पेक्टरों की संख्या और प्रयोगशालाओं की क्षमता बढ़ानी चाहिए। हर कंपनी के लाइसेंस नवीनीकरण के समय उसकी पिछली गुणवत्ता रिपोर्ट और परीक्षण परिणामों की समीक्षा की जानी चाहिए। जिन कंपनियों ने सुरक्षा मानकों का उल्लंघन किया है, उनके लाइसेंस तत्काल रद्द कर दिये जाने चाहिए और शीर्ष प्रबंधन को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। केवल प्रशासनिक कार्रवाई पर्याप्त नहीं, बल्कि इन मामलों में आपराधिक जिम्मेदारी तय करना भी जरूरी है।

आत्मचिंतन जरूरी
इसके साथ ही चिकित्सा जगत और समाज को भी आत्मचिंतन करना चाहिए। डॉक्टरों को यह समझना होगा कि शिशुओं को ओटीसी-ओवर दी काउंटर दवाएं देना कितना खतरनाक हो सकता है। सरकार द्वारा जारी परामर्श और चेतावनियों को जमीनी स्तर तक पहुंचाने की जरूरत है। मीडिया को भी सनसनी से ऊपर उठकर जनता को जागरूक करने की जिम्मेदारी निभानी होगी। इन त्रासदियों को केवल समाचार बनाकर भुला देना नहीं, बल्कि उन्हें स्वास्थ्य-सुधार के आंदोलन में बदलना समय की मांग है, क्योंकि सरकारी अनुमान से इस साल देश का दवा निर्यात 30 अरब डॉलर को पार कर जायेगा। वहीं 2030 तक औषधि बाजार के 130 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। लेकिन इसके साथ चुनौतियां भी बढ़ रही हैं। दवाओं की जांच और निगरानी अभी तक की कमजोर कड़ी साबित हुई है। केंद्रीय और राज्य की नियामक एजेंसियों को ज्यादा बेहतर तालमेल के साथ पारदर्शिता, ईमानदारी और ज्यादा तेजी से काम करने की जरूरत है, क्योंकि यह मामला केवल अर्थव्यवस्था या देश की छवि ही नहीं, अनमोल जिंदगियों से जुड़ा है।

अंतत: यह घटना हमें याद दिलाती है कि जीवन रक्षा के साधनों में जब नैतिकता का अभाव हो जाता है, तो प्रगति की समूची इमारत ध्वस्त हो जाती है। दवा उद्योग में पारदर्शिता, जिम्मेदारी और मानवीय संवेदनशीलता को सर्वाेच्च प्राथमिकता देनी होगी। सरकार और समाज दोनों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी बच्चे की जान किसी घटिया या मिलावटी दवा के कारण न जाये। जब तक दवा बनाने वाला और दवा बांटने वाला अपनी जिम्मेदारी को धर्म, करुणा, विश्वास और ईमानदारी की दृष्टि से नहीं देखेगा, तब तक ऐसी त्रासदियां दोहरायी जाती रहेंगी। इसलिए अब वक्त आ गया है कि हम दवा नहीं, दायित्व बनायें, नियमन नहीं, निष्ठा पैदा करें और इस मानवता विरोधी अपराध के लिए दोषियों को उदाहरण स्वरूप कठोरतम दंड दें, ताकि भविष्य में जीवन रक्षक औषधि फिर से विश्वास की प्रतीक बन सके।

 

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