हालांकि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को सभी मानते हैं, फिर भी कईबार एक दूसरे से बेजा दखल की शिकायत और विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है। इसकी झलक एक बार फिर दिखाई दी। मौका था संविधान दिवस का। इस अवसर पर जहां दो केंद्रीय मंत्रियों ने न्यायपालिका के प्रति असंतोष जताया, वहीं प्रधान न्यायाधीश ने उनकी शिकायतों को निराधार बताया, और प्रधानमंत्री ने विवाद को खत्म करने की कोशिश की, यह कहते हुए कि हमारे लोकतंत्र के तीनों अंगों को संतुलन और मर्यादा के साथ काम करना चाहिए। केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने न्यायिक सक्रियता पर आपत्ति जताई तो केंद्रीय कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद ने जजों की नियुक्ति की बाबत कोलेजियम प्रणाली को बनाए रखने पर न्यायपालिका की आलोचना की।

ये दोनों मुद््दे ऐसे हैं जिन पर बरसों से जब-तब हुई न्यायपालिका की आलोचना के और भी हवाले दिए जा सकते हैं। न्यायिक सक्रियता के पक्ष में अकसर यह दलील दी जाती रही है कि अगर सरकार अपना काम ठीक से न करे, तो लोग अदालत की शरण में जाएंगे ही। जेटली ने इस तर्क की काट में सवाल उठाया कि क्या न्यायपालिका के अपना काम ठीक से न करने की सूरत में विधायिका या कार्यपालिका उसके काम में दखल दे सकती है!
उनका सवाल सोलहों आने सही है, यानी दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। पर कई बार जिसे सरकार न्यायिक सक्रियता समझती है, वह नागरिक अधिकारों से जुड़े किसी मसले पर अदालत का फैसला या टिप्पणी होती है। जैसा कि प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने रेखांकित भी किया है, नागरिक अधिकार हमारे संविधान का मूलाधार हैं, और संविधान के बुनियादी ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती; की जाएगी तो न्यायपालिका को दखल देने का अधिकार है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि जजों की नियुक्ति की कोलेजियम प्रणाली भी संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है। कोलेजियम प्रणाली तो सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों की उपज है। फिर, 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने क्यों खारिज कर दिया, जबकि उस कानून को संसद ने सर्वसम्मति से पारित किया था?

यहां भी न्यायालय ने संविधान के बुनियादी ढांचे की दलील का सहारा लिया, यह कहते हुए कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बुनियादी ढांचे का हिस्सा है। दो केंद्रीय मंत्रियों के आलोचनात्मक स्वर के पीछे सुप्रीम कोर्ट के एक और फैसले से उपजी खटास हो सकती है। कोर्ट ने निजता को एक मौलिक अधिकार ठहराया, जबकि सरकार का कहना था कि निजता एक नागरिक अधिकार तो है, पर अलंघनीय नहीं।

विडंबना यह है कि यूपीए सरकार के समय जब सर्वोच्च अदालत ने 2-जी के एक सौ बाईस लाइसेंस और दो सौ चौदह कोयला खदानों के आबंटन रद््द कर दिए थे, केंद्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख के पद पर नौकरशाह पीजे थॉमस की नियुक्ति खारिज कर दी थी और सीबीआइ को पिंजरे में बंद तोता करार दिया था, तब भाजपा को नहीं लगा था कि यह न्यायिक सक्रियता है, बल्कि वह तब खुश ही नजर आ रही थी। न्यायपालिका की भूूमिका को राजनीतिक चश्मे से या सुविधा या असुविधा के लिहाज से नहीं देखा जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के बुनियादी ढांचे यानी नागरिक अधिकारों के संरक्षण के अलावा कानून की व्याख्या करने की जिम्मेदारी भी संविधान ने सौंप रखी है और खुद प्रधानमंत्री ने उसकी इस भूमिका का जिक्र किया है। शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर न किसी को आपत्ति है न कोई असहमति। पर इस सिद्धांत को बहुत बार कई तरह की जटिलता के बीच काम करना पड़ता है। इसलिए संतुलन की अपेक्षा किसी राजनीतिक नजरिए से नहीं, बल्कि हमेशा संवैधानिक मूल्यों के आलोक में ही की जानी चाहिए।

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