एक सप्ताह पहले रांची में भाजपा के प्रदेश मुख्यालय में जिस समय कांग्रेस के विधायक सुखदेव भगत और राष्टÑीय सचिव अरुण उरांव पार्टी में शामिल हो रहे थे, उसी समय राजनीतिक हलकों में यह चर्चा शुरू हो गयी थी कि यह भाजपा के चेहरा बदलने का पहला अध्याय है। यह चर्चा इसलिए भी शुरू हुई कि भाजपा के बारे में अब तक आम तौर पर यही धारणा थी कि इसके फोकस में राज्य की 73 प्रतिशत आबादी है, जो गैर-आदिवासी है। पार्टी की यह छवि आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उसका बहुत नुकसान कर रही थी। हालांकि पार्टी ने झारखंड अलग राज्य बनने के बाद बाबूलाल मरांडी को और फिर अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बना कर इस धारणा को बदलने का प्रयास किया। इतना ही नहीं, उसने पहले ताला मरांडी और बाद में लक्ष्मण गिलुआ को प्रदेश अध्यक्ष की कमान भी सौंपी। बावजूद इसके आदिवासी बहुल इलाकों में भाजपा की छवि सहज स्वीकार्य नहीं थी। हां, पौने पांच साल के अपने शासनकाल के दौरान मुख्यमंत्री रघुवर दास ने आदिवासी बहुल इलाकों में जितना समय दिया और विकास के जितने काम किये, उससे पार्टी की इमेज आदिवासी बहुल इलाकों में जरूर सुधरी, लेकिन विश्वास जमाना अभी बाकी है।
2014 के बाद शुरू हुई कवायद
झारखंड और उससे पहले एकीकृत बिहार का यह इलाका भाजपा का मजबूत गढ़ रहा। इसके बावजूद पार्टी को 27 प्रतिशत आदिवासियों की पार्टी बनने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी। उसे झामुमो से लगातार संघर्ष करना पड़ रहा था। भाजपा आदिवासियों को यह संदेश देने की कोशिश कर रही थी कि वह राज्य की सभी जातियों और समुदायों के विकास में लगी है। हालांकि दो आदिवासी मुख्यमंत्री और दो प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बावजूद उसे इसमें कामयाबी नहीं मिल रही थी। 2014 के चुनाव के बाद जब रघुवर दास को पार्टी ने सीएम की कमान सौंपी, तब पार्टी के गैर-आदिवासी चेहरे को विपक्ष ने खूब उभारा। लेकिन रघुवर दास ने इसे चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने पार्टी के आदिवासी नेताओं, खास कर नीलकंठ सिंह मुंडा, लुइस मरांडी, समीर उरांव, लक्ष्मण गिलुआ और रामकुमार पाहन जैसे नेताओं को आगे बढ़ने के खूब अवसर प्रदान किये। इसके साथ ही उन्होंने संथाल और कोल्हान जैसे आदिवासी इलाकों पर ध्यान केंद्रित किया। इन इलाकों में विकास योजनाएं तेजी से लागू की गयीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पहले कार्यकाल में चार बार संथाल के दौरे पर आये और कई राष्टÑीय योजनाओं का श्रीगणेश किया।
प्रभावी आदिवासी चेहरे की कमी हमेशा रही
भाजपा के साथ एक समस्या यह भी रही कि उसके पास एक ऐसे आदिवासी चेहरे की हमेशा कमी रही, जिसे पूरे राज्य में स्वीकार किया जाता हो। अर्जुन मुंडा, नीलकंठ सिंह मुंडा, रामकुमार पाहन या लुइस मरांडी जैसे आदिवासी नेता भाजपा के पास थे, लेकिन आदिवासी इलाकों में इनकी पहचान असरदार नहीं रही। अर्जुन मुंडा के बारे में तो धारणा यह बन गयी थी कि वह गैर-आदिवासियों के नेता हैं। विधानसभा के पिछले चुनाव में जब वह खरसावां से हार गये, तो यह भी कहा गया कि उनकी राजनीति खत्म हो गयी है। पार्टी के पास कड़िया मुंडा भी थे, लेकिन उनकी सौम्यता और आक्रामकता की कमी के कारण उनका असर पूरे राज्य में नहीं था।
सुखदेव और अरुण पूरा करेंगे यह कमी
इस कमी को दूर करने के लिए भाजपा ने डॉ अरुण उरांव और सुखदेव भगत को पार्टी में शामिल करा लिया। सुखदेव भगत जहां प्रशासनिक सेवा छोड़ कर सक्रिय राजनीति में आये, वहीं अरुण उरांव के साथ आइपीएस के अनुभव के साथ आदिवासियों के सबसे बड़े नेताओं में शुमार कार्तिक उरांव की विरासत भी है। आदिवासी इन दोनों चेहरों को अपने बीच का मानते हैं और आज भी इन दोनों का असर राज्य की 27 प्रतिशत आबादी में साफ देखा जा सकता है।
भाजपा ने पूर्व आइपीएस अधिकारी रेजी डुंगडुंग को भी अपने पाले में करने की तैयारी की है। उनके पार्टी में शामिल होने के बाद ये तीन बड़े आदिवासी चेहरे भाजपा के लिए आदिवासी बहुल इलाकों में जनाधार बढ़ायेंगे।
भाजपा को इन तीनों का और लाभ भी मिलेगा
आदिवासियों के बीच पैठ बनाने के साथ ही भाजपा को इन तीन आदिवासी नेताओं का और भी लाभ मिलेगा। तीनों की गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण आम लोगों में उनका खासा आकर्षण भी है। तीनों विषय के जानकार हैं। उनके बोलने की शैली और क्षमता आम राजनीतिक नेताओं से अलग है। चूंकि ये तीनों नौकरशाही के अंग रहे हैं, इसलिए इनकी कार्यशैली भी आम नेताओं से अलग हैं। अब तक विधानसभा के अंदर और बाहर विपक्ष के प्रहारों का जवाब देने की जिम्मेदारी खुद मुख्यमंत्री संभाल रहे थे, लेकिन अब इन तीनों को सामने लाकर सीएम को कुछ राहत मिलेगी।
इन तीनों नेताओं के भाजपा में शामिल होने के बाद अब झामुमो से आदिवासियों की हितैषी होने का दावा छिन गया है। भाजपा ने इन नेताओं को अपने पाले में करने के साथ ही साफ कर दिया है कि उसने अपना चेहरा बदल लिया है। उसकी यह कवायद अभी शुरू हुई है। अभी कई और सर्वमान्य आदिवासी चेहरे उसके पाले में आयेंगे। इसके साथ ही पार्टी ने अपनी उस कमजोरी को भी दूर कर लिया है, जिसके कारण उसे अक्सर आदिवासी अपना विरोधी मानने लगे थे। भाजपा की यह कवायद उसे निश्चित तौर पर अगले विधानसभा चुनाव में लाभदायक स्थिति में रखेगी, जहां अब तक वह बैकफुट पर रहती थी।